साँस उन के मरीज़-ए-हसरत की रुक रुक के चलती जाती है
साँस उन के मरीज़-ए-हसरत की रुक रुक के चलती जाती है
मायूस नज़र है दर की तरफ़ और जान निकलती जाती है
चेहरे से सरकती जाती है ज़ुल्फ़ उन की ख़्वाब के आलम में
वो हैं कि अभी तक होश नहीं और शब है कि ढलती जाती है
अल्लाह ख़बर बिजली को न हो गुलचीं की निगाह-ए-बद न पड़े
जिस शाख़ पे तिनके रक्खे हैं वो फूलती-फलती जाती है
आरिज़ पे नुमायाँ ख़ाल हुए फिर सब्ज़ा-ए-ख़त आग़ाज़ हुआ
क़ुरआँ तो हक़ीक़त में है वही तफ़्सीर बदलती जाती है
तौहीन-ए-मोहब्बत भी न रही वो जौर-ओ-सितम भी छूट गए
पहले की ब-निसबत हुस्न की अब हर बात बदलती जाती है
लाज अपनी मसीहा ने रख ली मरने न दिया बीमारों को
जो मौत न टलने वाली थी वो मौत भी टलती जाती है
है बज़्म-ए-जहाँ में ना-मुम्किन बे-इश्क़ सलामत हुस्न रहे
परवाने तो जल कर ख़ाक हुए अब शम्अ भी जलती जाती है
शिकवा भी अगर मैं करता हूँ तो जौर-ए-फ़लक का करता हूँ
बे-वज्ह 'क़मर' तारों की नज़र क्यूँ मुझ से बदलती जाती है
- पुस्तक : Auj-Qamar (पृष्ठ 62)
- रचनाकार : Ustad Sayed Mohd. Hussain Qamar Jalalvi
- प्रकाशन : Shaikh Shokat Ali And Sons (1952)
- संस्करण : 1952
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