वजह-ए-ख़लिश है बा’इस-ए-आसूदगी भी है
वजह-ए-ख़लिश है बा’इस-ए-आसूदगी भी है
ये बो'द जिस में लज़्ज़त-ए-हमसायगी भी है
कुछ दश्त के बगूले भी हैं बा'इस-ए-फ़िशार
कुछ ख़ुद मिज़ाज-ए-ख़ाक में आवारगी भी है
बस्ती कोई 'अजीब है ये इस जगह के लोग
ख़ंदा-ब-लब हैं चेहरों पे आज़ुर्दगी भी है
वैसे भी कुछ यहाँ से तबी'अत है अब उचाट
यूँ दिल को इस दयार से वाबस्तगी भी है
इस अपनी गोशा-गीरी के हैं और भी सबब
इक वजह पस्त-हिम्मतों की ख़्वाजगी भी है
वो आतिशीं कुरह है ये दिल जिस के हर तरफ़
तारीकी-ए-ख़ला भी है यख़-बस्तगी भी है
फिर मुझ से क़ौम करती है क्यों मो'जिज़े तलब
जब ता'न-ए-सेह्र-ओ-तोहमत-ए-दीवानगी भी है
मौजूदगी तिरी मुत’अय्यन न हो सकी
ऐ तू कि हर जगह तिरी मौजूदगी भी है
क्या कीजिए 'बशीर' शु'ऊर-ए-अना के साथ
हुक्म-ए-सुजूद-ओ-'आजिज़ी-ओ-बंदगी भी है
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