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रात और रेल

MORE BYअसरार-उल-हक़ मजाज़

    फिर चली है रेल स्टेशन से लहराती हुई

    नीम-शब की ख़ामुशी में ज़ेर-ए-लब गाती हुई

    डगमगाती झूमती सीटी बजाती खेलती

    वादी कोहसार की ठंडी हवा खाती हुई

    तेज़ झोंकों में वो छम छम का सुरूद-ए-दिल-नशीं

    आँधियों में मेंह बरसने की सदा आती हुई

    जैसे मौजों का तरन्नुम जैसे जल-परियों के गीत

    एक इक लय में हज़ारों ज़मज़मे गाती हुई

    नौनिहालों को सुनाती मीठी मीठी लोरियाँ

    नाज़नीनों को सुनहरे ख़्वाब दिखलाती हुई

    ठोकरें खा कर लचकती गुनगुनाती झूमती

    सरख़ुशी में घुँगरुओं की ताल पर गाती हुई

    नाज़ से हर मोड़ पर खाती हुई सौ पेच-ओ-ख़म

    इक दुल्हन अपनी अदा से आप शरमाती हुई

    रात की तारीकियों में झिलमिलाती काँपती

    पटरियों पर दूर तक सीमाब झलकाती हुई

    जैसे आधी रात को निकली हो इक शाही बरात

    शादयानों की सदा से वज्द में आती हुई

    मुंतशिर कर के फ़ज़ा में जा-ब-जा चिंगारियाँ

    दामन-ए-मौज-ए-हवा में फूल बरसाती हुई

    तेज़-तर होती हुई मंज़िल-ब-मंज़िल दम-ब-दम

    रफ़्ता रफ़्ता अपना असली रूप दिखलाती हुई

    सीना-ए-कोहसार पर चढ़ती हुई बे-इख़्तियार

    एक नागन जिस तरह मस्ती में लहराती हुई

    इक सितारा टूट कर जैसे रवाँ हो अर्श से

    रिफ़अत-ए-कोहसार से मैदान में आती हुई

    इक बगूले की तरह बढ़ती हुई मैदान में

    जंगलों में आँधियों का ज़ोर दिखलाती हुई

    रासा-बर-अंदाम करती अंजुम-ए-शब-ताब को

    आशियाँ में ताइर-ए-वहशी को चौंकाती हुई

    याद जाए पुराने देवताओं का जलाल

    उन क़यामत-ख़ेज़ियों के साथ बल खाती हुई

    एक रख़्शर-ए-बे-अनाँ की बर्क़-रफ़्तारी के साथ

    ख़ंदक़ों को फाँदती टीलों से कतराती हुई

    मुर्ग़-ज़ारों में दिखाती जू-ए-शीरीं का ख़िराम

    वादियों में अब्र के मानिंद मंडलाती हुई

    इक पहाड़ी पर दिखाती आबशारों की झलक

    इक बयाबाँ में चराग़-ए-तूर दिखलाती हुई

    जुस्तुजू में मंज़िल-ए-मक़्सूद की दीवाना-वार

    अपना सर धुनती फ़ज़ा में बाल बिखराती हुई

    छेड़ती इक वज्द के आलम में साज़-ए-सरमदी

    ग़ैज़ के आलम में मुँह से आग बरसाती हुई

    रेंगती मुड़ती मचलती तिलमिलाती हाँफती

    अपने दिल की आतिश पिन्हाँ को भड़काती हुई

    ख़ुद-ब-ख़ुद रूठी हुई बिफरी हुई बिखरी हुई

    शोर-ए-पैहम से दिल-ए-गीती को धड़काती हुई

    पुल पे दरिया के दमा-दम कौंदती ललकारती

    अपनी इस तूफ़ान-अंगेज़ी पे इतराती हुई

    पेश करती बीच नद्दी में चराग़ाँ का समाँ

    साहिलों पर रेत के ज़र्रों को चमकाती हुई

    मुँह में घुसती है सुरंगों के यकायक दौड़ कर

    दनदनाती चीख़ती चिंघाड़ती गाती हुई

    आगे आगे जुस्तुजू-आमेज़ नज़रें डालती

    शब के हैबतनाक नज़्ज़ारों से घबराती हुई

    एक मुजरिम की तरह सहमी हुई सिमटी हुई

    एक मुफ़लिस की तरह सर्दी में थर्राती हुई

    तेज़ी-ए-रफ़्तार के सिक्के जमाती जा-ब-जा

    दश्त दर में ज़िंदगी की लहर दौड़ाती हुई

    डाल कर गुज़रे मनाज़िर पर अंधेरे का नक़ाब

    इक नया मंज़र नज़र के सामने लाती हुई

    सफ़्हा-ए-दिल से मिटाती अहद-ए-माज़ी के नुक़ूश

    हाल मुस्तक़बिल के दिलकश ख़्वाब दिखलाती हुई

    डालती बे-हिस चटानों पर हक़ारत की नज़र

    कोह पर हँसती फ़लक को आँख दिखलाती हुई

    दामन-ए-तीरीकी-ए-शब की उड़ाती धज्जियाँ

    क़स्र-ए-ज़ुल्मत पर मुसलसल तीर बरसाती हुई

    ज़द में कोई चीज़ जाए तो उस को पीस कर

    इर्तिक़ा-ए-ज़िंदगी के राज़ बतलाती हुई

    ज़ोम में पेशानी-ए-सहरा पे ठोकर मारती

    फिर सुबुक-रफ़्तारियों के नाज़ दिखलाती हुई

    एक सरकश फ़ौज की सूरत अलम खोले हुए

    एक तूफ़ानी गरज के साथ डराती हुई

    एक इक हरकत से अंदाज़-ए-बग़ावत आश्कार

    अज़्मत-ए-इंसानियत के ज़मज़मे गाती हुई

    हर क़दम पर तोप की सी घन-गरज के साथ साथ

    गोलियों की सनसनाहट की सदा आती हुई

    वो हवा में सैकड़ों जंगी दुहल बजते हुए

    वो बिगुल की जाँ-फ़ज़ाँ आवाज़ लहराती हुई

    अल-ग़रज़ उड़ती चली जाती है बे-ख़ौफ़-ओ-ख़तर

    शाइर-ए-आतिश-नफ़स का ख़ून खौलाती हुई

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    अज्ञात

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