हवा
कुछ ऐसी चली
कि खे़मे उखड़ गए हैं
ग़ुबार ऐसा ग़ुबार उठा
कि धूल आँखों में जम गई है
चराग़ भड़कें
तो इस में उन का क़ुसूर क्या है
शुमाल की
ये हवा
कुछ ऐसी शरीर-ओ-गुस्ताख़ है
जो बढ़ कर
भड़कना उन को सिखा रही है
जला रही है
बुझा रही है
हवा कुछ ऐसी चली कि खे़मे उखड़ गए हैं
चराग़ दोनों तरफ़ के
इतने बुझे कि मंज़र भी रो रहा है
सियह लिबादों सियह नक़ाबों का राज हर-सू
कहाँ के रिश्ते
कहाँ के नाते
कहाँ के रिश्ते
कहाँ की मंज़िल
चहार सम्तों में आग ऐसी लगी हुई है
बुझाना चाहें तो बढ़ रही है
बदन-दरीदा कफ़न-दरीदा पड़ी हैं लाशें
सरों में आँचल
बदन से ज़ेवर
उतर चुके हैं
जो ख़्वाब देखे थे हम ने
वो ख़्वाब
मर चुके हैं
हवा कुछ ऐसी चली
कि खे़मे उखड़ गए हैं
हमारे घर में
तमाम चेहरे थे रौशनी के
तमाम चेहरों से रौशनी थी
वो ग़ैर थे
ये सुना था मैं ने
मगर मैं जिन पर
दुआएँ पढ़ पढ़ के फूँकता था
वो मेरा घर फूँकने को आए
बस एक दीवार बीच में थी
वही पड़ोसी भी आए
ख़ंजर-ब-दस्त आए
ये कैसी आँधी चली कि चेहरे बिगड़ गए हैं
हवा कुछ ऐसी चली कि खे़मे उखड़ गए हैं
न कोई अख़बार है जो कीचड़ में
फूल जैसा खिला हुआ है
न रेडियो में ख़बर की ख़ुशबू
न दूरदर्शन में है वो मंज़र
जो मुझ को
सूरज दिखा रहा है
अजीब मौसम है
शहर-ए-दिल में
न आँख अपनी
न कान अपने
न पाँव अपने
पता नहीं हम
ये किस की आँखों से देखते हैं
ये किस के कानों से सुन रहे हैं
ये किस के पैरों से चल रहे हैं
अजीब मौसम है
शहर-ए-दिल में
ज़मीन वाले
तो आज देखो
ख़ला में गर्दिश लगा रहे हैं
समुंदरों पर
मकान अपने बना रहे हैं
इसी ज़मीं पर
ऋषी मुनी और नबी भी आए
तमाम सम्तों के वास्ते
इक पयाम लाए
मगर मैं इतना ही जानता हूँ
ज़मीन पर ज़ुल्म हो रहा है
ज़मीन वाले ही कर रहे हैं
वहाँ फ़रिश्तों ने सच कहा था
मगर ख़ुदा जानता था सब कुछ
वो आज भी जानता है सब कुछ
वो आसमाँ से
उतर के
अपनी ज़मीं पर आएगा
भूल जाओ
वो अपने हाथों से
इस ज़मीं को
हसीं बनाएगा
भूल जाओ
चराग़ अंदर चराग़ तुम हो
किताब अंदर किताब तुम हो
सवाल अंदर सवाल तुम हो
जवाब अंदर जवाब तुम हो
ख़ुदा ने रोज़-ए-अज़ल
जो देखा था ख़्वाब तुम हो
तुम्हीं से इज़्ज़त
तुम्हीं से निकहत
तुम्हीं से शोहरत
ज़मीन की है
बचा सको तो
इसे बचा लो
ज़मीन वालो
ज़मीन वालो
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