अब्दुल मजीद सालिक
लेख 1
अशआर 9
अब नहीं जन्नत मशाम-ए-कूचा-ए-यार की शमीम
निकहत-ए-ज़ुल्फ़ क्या हुई बाद-ए-सबा को क्या हुआ
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जो उन्हें वफ़ा की सूझी तो न ज़ीस्त ने वफ़ा की
अभी आ के वो न बैठे कि हम उठ गए जहाँ से
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नई शमएँ जलाओ आशिक़ी की अंजुमन वालो
कि सूना है शबिस्तान-ए-दिल-ए-परवाना बरसों से
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हाल-ए-दिल सुन के वो आज़ुर्दा हैं शायद उन को
इस हिकायत पे शिकायत का गुमाँ गुज़रा है
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