बाग़ हुसैन कमाल के शेर
मैं भी गुम-सुम था कोई बात न करने पाया
उस के होंटों पे भी जैसे कोई पहरा देखा
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मैं ही ग़मगीन नहीं तर्क-ए-तअल्लुक़ पे 'कमाल'
वो भी नाशाद था उस को भी फ़सुर्दा देखा
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