फ़ारूक़ शफ़क़
ग़ज़ल 20
अशआर 11
अपनी लग़्ज़िश को तो इल्ज़ाम न देगा कोई
लोग थक-हार के मुजरिम हमें ठहराएँगे
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आँधियों का ख़्वाब अधूरा रह गया
हाथ में इक सूखा पत्ता रह गया
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ज़ेहन की आवारगी को भी पनाहें चाहिए
यूँ न शम्ओं को किसी दहलीज़ पर रख कर बुझा
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सुना है हर घड़ी तू मुस्कुराता रहता है
मुझे भी जज़्ब ज़रा कर के जिस्म-ओ-जाँ में मिला
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होने वाला था इक हादसा रह गया
कल का सब से बड़ा वाक़िआ रह गया
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