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फ़ज़्ल ताबिश

1933 - 1995 | भोपाल, भारत

फ़ज़्ल ताबिश

ग़ज़ल 13

नज़्म 6

अशआर 11

उसे मालूम है मैं सर-फिरा हूँ

मगर ख़ुश है कि उस को चाहता हूँ

कर शुमार कि हर शय गिनी नहीं जाती

ये ज़िंदगी है हिसाबों से जी नहीं जाती

सुनते हैं कि इन राहों में मजनूँ और फ़रहाद लुटे

लेकिन अब आधे रस्ते से लौट के वापस जाए कौन

सूरज ऊँचा हो कर मेरे आँगन में भी आया है

पहले नीचा था तो ऊँचे मीनारों पर बैठा था

हर इक शय ख़ून में डूबी हुई है

कोई इस तरह से पैदा होता

पुस्तकें 8

 

ऑडियो 9

इस कमरे में ख़्वाब रक्खे थे कौन यहाँ पर आया था

उसे मालूम है मैं सर-फिरा हूँ

ख़्वाहिशों के हिसार से निकलो

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