इक़बाल कौसर
ग़ज़ल 14
नज़्म 3
अशआर 10
जिस तरह लोग ख़सारे में बहुत सोचते हैं
आज कल हम तिरे बारे में बहुत सोचते हैं
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ध्यान आया मुझे रात की तन्हा-सफ़री का
यक-दम कोई साया सा गली से निकल आया
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बनना था तो बनता न फ़रिश्ता न ख़ुदा मैं
इंसान ही बनता मिरी तकमील तो ये थी
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मिरी ख़ाक उस ने बिखेर दी सर-ए-रह ग़ुबार बना दिया
मैं जब आ सका न शुमार में मुझे बे-शुमार बना दिया
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वो भी रो रो के बुझा डाला है अब आँखों ने
रौशनी देता था जो एक दिया अंदर से
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