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मोहम्मद अल्वी के शेर
रोज़ अच्छे नहीं लगते आँसू
ख़ास मौक़ों पे मज़ा देते हैं
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टैग : आँसू
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अंधेरा है कैसे तिरा ख़त पढ़ूँ
लिफ़ाफ़े में कुछ रौशनी भेज दे
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टैग : ख़त
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आज फिर मुझ से कहा दरिया ने
क्या इरादा है बहा ले जाऊँ
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टैग : दरिया
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माना कि तू ज़हीन भी है ख़ूब-रू भी है
तुझ सा न मैं हुआ तो भला क्या बुरा हुआ
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उस से मिले ज़माना हुआ लेकिन आज भी
दिल से दुआ निकलती है ख़ुश हो जहाँ भी हो
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टैग : विदाई
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देखा तो सब के सर पे गुनाहों का बोझ था
ख़ुश थे तमाम नेकियाँ दरिया में डाल कर
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टैग : गुनाह
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अब न 'ग़ालिब' से शिकायत है न शिकवा 'मीर' का
बन गया मैं भी निशाना रेख़्ता के तीर का
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टैग : रेख़्ता
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नज़रों से नापता है समुंदर की वुसअतें
साहिल पे इक शख़्स अकेला खड़ा हुआ
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वो जंगलों में दरख़्तों पे कूदते फिरना
बुरा बहुत था मगर आज से तो बेहतर था
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देखा न होगा तू ने मगर इंतिज़ार में
चलते हुए समय को ठहरते हुए भी देख
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टैग : इंतिज़ार
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और बाज़ार से क्या ले जाऊँ
पहली बारिश का मज़ा ले जाऊँ
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टैग : बारिश
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उस से बिछड़ते वक़्त मैं रोया था ख़ूब-सा
ये बात याद आई तो पहरों हँसा किया
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थोड़ी सर्दी ज़रा सा नज़ला है
शायरी का मिज़ाज पतला है
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टैग : सर्दी
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रात मिली तन्हाई मिली और जाम मिला
घर से निकले तो क्या क्या आराम मिला
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परिंदे दूर फ़ज़ाओं में खो गए 'अल्वी'
उजाड़ उजाड़ दरख़्तों पे आशियाने थे
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टैग : परिंदा
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मैं ख़ुद को मरते हुए देख कर बहुत ख़ुश हूँ
ये डर भी है कि मिरी आँख खुल न जाए कहीं
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आँखें खोलो ख़्वाब समेटो जागो भी
'अल्वी' प्यारे देखो साला दिन निकला
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हर वक़्त खिलते फूल की जानिब तका न कर
मुरझा के पत्तियों को बिखरते हुए भी देख
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बुला रहा था कोई चीख़ चीख़ कर मुझ को
कुएँ में झाँक के देखा तो मैं ही अंदर था
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चला जाऊँगा जैसे ख़ुद को तन्हा छोड़ कर 'अल्वी'
मैं अपने आप को रातों में उठ कर देख लेता हूँ
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गुल-दान में गुलाब की कलियाँ महक उठीं
कुर्सी ने उस को देख के आग़ोश वा किया
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रखते हो अगर आँख तो बाहर से न देखो
देखो मुझे अंदर से बहुत टूट चुका हूँ
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ऑफ़िस में भी घर को खुला पाता हूँ मैं
टेबल पर सर रख कर सो जाता हूँ मैं
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ढूँडता हूँ मैं ज़मीं अच्छी सी
ये बदन जिस में उतारा जाए
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टैग : बदन
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