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नज़्म तबातबाई

1854 - 1933 | लखनऊ, भारत

नज़्म तबातबाई के शेर

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बिछड़ के तुझ से मुझे है उमीद मिलने की

सुना है रूह को आना है फिर बदन की तरफ़

उड़ाई ख़ाक जिस सहरा में तेरे वास्ते मैं ने

थका-माँदा मिला इन मंज़िलों में आसमाँ मुझ को

बनाया तोड़ के आईना आईना-ख़ाना

देखी राह जो ख़ल्वत से अंजुमन की तरफ़

नश्शे में सूझती है मुझे दूर दूर की

नद्दी वो सामने है शराब-ए-तुहूर की

दर्द-ए-दिल से इश्क़ के बे-पर्दगी होती नहीं

इक चमक उठती है लेकिन रौशनी होती नहीं

जो अहल-ए-दिल हैं अलग हैं वो अहल-ए-ज़ाहिर से

मैं हूँ शैख़ की जानिब बरहमन की तरफ़

अपनी दुनिया तो बना ली थी रिया-कारों ने

मिल गया ख़ुल्द भी अल्लाह को फुसलाने से

तू ने तो अपने दर से मुझ को उठा दिया है

परछाईं फिर रही है मेरी उसी गली में

दिल इस तरह हवा-ए-मोहब्बत में जल गया

भड़की कहीं आग उट्ठा धुआँ कहीं

काबा बुत-ख़ाना आरिफ़ की नज़र से देखिए

ख़्वाब दोनों एक ही हैं फ़र्क़ है ताबीर में

रोज़-ए-सियह में साथ कोई दे तो जानिए

जब तक फ़रोग़-ए-शम्अ है परवाना साथ है

असीरी में बहार आई है फ़रियाद-ओ-फ़ुग़ाँ कर लें

नफ़स को ख़ूँ-फ़िशाँ कर लें क़फ़स को बोस्ताँ कर लें

मिरी बातों में क्या मालूम कब सोए वो कब जागे

सिरे से इस लिए कहनी पड़ी फिर दास्ताँ मुझ को

नज़र कहीं नहीं अब आते हज़रत-ए-नासेह

सुना है घर में किसी मह-लक़ा के बैठ गए

किया है उस ने हर इक से विसाल का वादा

इस इश्तियाक़ में मरना ज़रूरी होता है

सहर को उठते हैं वो देख कर कफ़-ए-रंगीं

अब आइने पे भी सिक्के हिना के बैठ गए

यूँ मैं सीधा गया वहशत में बयाबाँ की तरफ़

हाथ जिस तरह से आता है गरेबाँ की तरफ़

उड़ के जाती है मिरी ख़ाक इधर गाह उधर

कुछ पता दे गई उम्र-ए-गुरेज़ाँ अपना

लोटते रहते हैं मुझ पर चाहने वालों के दिल

वर्ना यूँ पोशाक तेरी मल्गजी होती नहीं

ये दिल की बे-क़रारी ख़ाक हो कर भी जाएगी

सुनाती है लब-ए-साहिल से ये रेग-ए-रवाँ मुझ को

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