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आसिफ़ फर्ऱुखी

1959 - 2020 | कराची, पाकिस्तान

आधुनिक कहानीकारों में शामिल महत्वपूर्ण नाम,साहित्यिक पत्रकारिता के लिए प्रसिद्ध।

आधुनिक कहानीकारों में शामिल महत्वपूर्ण नाम,साहित्यिक पत्रकारिता के लिए प्रसिद्ध।

आसिफ़ फर्ऱुखी की कहानियाँ

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परिंदे की फ़रियाद

परिंदे की फ़र्याद आत्म ज्ञान की कहानी है। इस कहानी में एक परिंदा बेचने वाला शख़्स सिग्नल लाईट के इंतज़ार में खड़ी गाड़ीयों में बैठे लोगों से फ़र्याद करता है कि वो उन्हें ख़रीद कर उड़ा दें ये दुआ देंगे। परिंदा बेचने वाला एक गाड़ी में बैठे शख़्स को ज़बरदस्ती एक पिंजरा थमा देता है। वो जल्दी से भुगतान कर के आगे बढ़ जाता है। फिर लगभग रोज़ाना उस व्यक्ति के गले पड़ एक दो पिंजरे उसके सर मढ़ देता है। घर पहुंचने के बाद उन परिंदों को उड़ाते हुए उसे बचपन में पढ़ी हुई नज़्म परिंदे की फ़र्याद याद आ जाती है और वो महसूस करता है कि उसकी ज़िंदगी भी वक़्त, सामाजिक बंधन और ज़िम्मेदारियों के पिंजरे में क़ैद है।

समंदर

"कछुवे की पैदाइश और उसके सम्पूर्ण जीवन को प्रतिबिंबित करती यह कहानी मानव जीवन की विकास यात्रा की उपमा है। सूत्रधार सम्पूर्ण चंद्रमा की रात में साहिल पर कछुओं के आने और बच्चा जनने की पूरी प्रक्रिया देखने के उद्देश्य से जाता है। समुंद्र की पुरशोर मौजों को देखकर वो जीवन के रहस्यों पर ग़ौर करने में इतना लीन हो जाता है कि समुंद्र से कछुवे के निकलने का लम्हा गुज़र जाता है। अपने ख़यालों की दुनिया से वो उस समय जागता है जब कछुवे रेत हटा कर अपना भट्ट बनाना शुरू कर देते हैं। भट्ट बना कर उसमें अंडे देने और फिर समुंद्र में उसके वापस जाने की पूरी प्रक्रिया देखने के बाद वो घर वापस आ जाता है। कछुवे के एक छोटे बच्चे को उठा कर जिस तरह सूत्रधार चूमता है, इससे उसके मामता के जज़्बे का बख़ूबी चित्रण होता है।"

बहीरा-ए-मुर्दार

औलाद से वंचित एक जोड़े की कहानी है। भाग्य की विडम्बना ये है कि पति-पत्नी दोनों में कोई कमी नहीं, इसके बावजूद वो औलाद के सुख से वंचित हैं। हर बार गर्भ ठहरने के कुछ ही दिन बाद बच्चा ज़ाए‘अ हो जाता है। अख़बार में मुलाज़िम सूत्रधार अपने जीवन के अभावों का उल्लेख भी इसी संदर्भ में करता है। उसको संडे मैगज़ीन के लिए एक कालम लिखने के लिए दिया जाता है। एक दिन वो कालम लिखने के लिए बहुत देर तक परेशान रहता है और फिर लिखता है... इस्राईल के क़रीब एक झील है जिसका नाम बहीरा-ए-मुर्दार है। उसके खारे पानी की यह विशेषता है कि वहाँ कोई ज़िंदा चीज़ पनप नहीं सकती। न आबी पौधे न मुरग़ाबियाँ, न मछलियाँ। इसीलिए उसे बहीरा-ए-मुर्दार कहते हैं।

ऊपर वालियाँ

यह एक बीमार व्यक्ति की रूदाद है जिसका जिस्म बुख़ार की वजह से तप रहा है। घर वाले उसके आराम के ख़्याल से कानाफूसी में बातें करते हैं लेकिन उन कानाफुसियों में कुछ आवाज़ें ऐसी हैं जिन्हें सुनकर वो दुखी हो जाता है क्योंकि उनमें बीमार की फ़िक्र से ज़्यादा उनकी अपनी परेशानियाँ और झुँझलाहटें हैं। दवा से फ़ायदा न होने पर झाड़ फूंक शुरू होती है, आग में मिर्चें डाली जाती हैं, गोश्त के टुकड़े से नज़र उतार कर और सर पर रोटियों का थाल बाँध कर चीलों को खिलाया जाता है। ये सारी प्रक्रियाएं बीमार व्यक्ति को ये सोचने पर मजबूर कर देती हैं कि आख़िर ये चीलें कब तक झपट्टा मारती रहेंगी, मंडलाना कब शुरू करेंगी।

आज का मरना

इस कहानी में सामाजिक जड़ता का मातम किया गया है। बिल्लियों को खाना खिलाने वाली एक बूढ़ी भिखारन वर्षों से एक विशेष स्थान पर बैठती थी और इसी वजह से वो दृश्य का एक महसूस हिस्सा बन गई थी। लेकिन जब उसका देहांत हो जाता है तो किसी के कान पर जूँ तक नहीं रेंगती। कहानी का सूत्र-धार अमरीका जैसे मशीनी शहर को सिर्फ़ इसलिए छोड़कर आता है क्योंकि नाइन इलेवन के बाद एक विशेष पहचान के साथ वहाँ ज़िंदगी बसर करना मुश्किल हो गया था और उसे अपने शहर के मूल्य और परम्पराएं प्रिय थीं। लेकिन जब वो अपने शहर आया तो उसने देखा कि उसका समाज इतना सुन्न हो चुका है कि किसी की मौत भी उसके दिनचर्या में कोई फ़र्क़ नहीं ला पाती।

Recitation

Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

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