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कौसर मज़हरी

1964 | दिल्ली, भारत

कौसर मज़हरी के शेर

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जाने किस ख़्वाब-ए-परेशाँ का है चक्कर सारा

बिखरा बिखरा हुआ रहता है मिरा घर सारा

नज़र झुक रही है ख़मोशी है लब पर

हया है अदा है कि अन-बन है क्या है

रब्त है उस को ज़माने से बहुत सुनता हूँ

कोई तरकीब करूँ मैं भी ज़माना हो जाऊँ

बोझ दिल पर है नदामत का तो ऐसा कर लो

मेरे सीने से किसी और बहाने लग जाओ

तआक़ुब में है मेरे याद किस की

मैं किस को भूल जाना चाहता हूँ

कौन सी दुनिया में हूँ किस की निगहबानी में हूँ

ज़िंदगी है सख़्त मुश्किल फिर भी आसानी में हूँ

एक मुद्दत से ख़मोशी का है पहरा हर-सू

जाने किस ओर गए शोर मचाने वाले

मैं सब के वास्ते अच्छा था लेकिन

उसी के वास्ते अच्छा नहीं था

चाँद है पानी में या भूले हुए चेहरे का अक्स

साहिल-ए-दरिया पे देखो मैं भी हैरानी में हूँ

गिरा था बोझ कोई सर से मेरे

उसी को फिर उठाना चाहता हूँ

पुतलियों पर रक़्स करना ही कमाल-ए-फ़न नहीं

दर्द के आँसू को तो पैहम रवानी चाहिए

मौसम-ए-दिल जो कभी ज़र्द सा होने लग जाए

अपना दिल ख़ून करो फूल उगाने लग जाओ

उस की पलकों पे जो चमका था सितारा कोई

देखते देखते महताब हुआ जाता है

वही क़तरा जो कभी कुंज-ए-सर-ए-चश्म में था

अब जो फैला है तो सैलाब हुआ जाता है

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