कौसर मज़हरी के शेर
जाने किस ख़्वाब-ए-परेशाँ का है चक्कर सारा
बिखरा बिखरा हुआ रहता है मिरा घर सारा
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नज़र झुक रही है ख़मोशी है लब पर
हया है अदा है कि अन-बन है क्या है
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रब्त है उस को ज़माने से बहुत सुनता हूँ
कोई तरकीब करूँ मैं भी ज़माना हो जाऊँ
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बोझ दिल पर है नदामत का तो ऐसा कर लो
मेरे सीने से किसी और बहाने लग जाओ
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तआक़ुब में है मेरे याद किस की
मैं किस को भूल जाना चाहता हूँ
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टैग : याद
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कौन सी दुनिया में हूँ किस की निगहबानी में हूँ
ज़िंदगी है सख़्त मुश्किल फिर भी आसानी में हूँ
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एक मुद्दत से ख़मोशी का है पहरा हर-सू
जाने किस ओर गए शोर मचाने वाले
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मैं सब के वास्ते अच्छा था लेकिन
उसी के वास्ते अच्छा नहीं था
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चाँद है पानी में या भूले हुए चेहरे का अक्स
साहिल-ए-दरिया पे देखो मैं भी हैरानी में हूँ
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गिरा था बोझ कोई सर से मेरे
उसी को फिर उठाना चाहता हूँ
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पुतलियों पर रक़्स करना ही कमाल-ए-फ़न नहीं
दर्द के आँसू को तो पैहम रवानी चाहिए
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मौसम-ए-दिल जो कभी ज़र्द सा होने लग जाए
अपना दिल ख़ून करो फूल उगाने लग जाओ
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उस की पलकों पे जो चमका था सितारा कोई
देखते देखते महताब हुआ जाता है
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वही क़तरा जो कभी कुंज-ए-सर-ए-चश्म में था
अब जो फैला है तो सैलाब हुआ जाता है
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