हाँ मह-ए-नौ सुनें हम उस का नाम
रोचक तथ्य
1851
हाँ मह-ए-नौ सुनें हम उस का नाम
जिस को तू झुक के कर रहा है सलाम
दो दिन आया है तू नज़र दम-ए-सुब्ह
यही अंदाज़ और यही अंदाम
बारे दो दिन कहाँ रहा ग़ाएब
बंदा आजिज़ है गर्दिश-ए-अय्याम
उड़ के जाता कहाँ कि तारों का
आसमाँ ने बिछा रखा था दाम
मर्हबा ऐ सुरूर-ए-ख़ास-ख़वास
हब्बज़ा ऐ नशात-ए-आम-अवाम
उज़्र में तीन दिन न आने के
ले के आया है ईद का पैग़ाम
उस को भूला न चाहिए कहना
सुब्ह जो जाए और आए शाम
एक मैं क्या कि सब ने जान लिया
तेरा आग़ाज़ और तिरा अंजाम
राज़-ए-दिल मुझ से क्यों छुपाता है
मुझ को समझा है क्या कहीं नम्माम
जानता हूँ कि आज दुनिया में
एक ही है उम्मीद-गाह-ए-अनाम
मैं ने माना कि तू है हल्क़ा-ब-गोश
'ग़ालिब' उस का मगर नहीं है ग़ुलाम
जानता हूँ कि जानता है तू
तब कहा है ब-तर्ज़-ए-इस्तिफ़हाम
मेहर-ए-ताबाँ को हो तो हो ऐ माह
क़ुर्ब-ए-हर-रोज़ा बर-सबील-ए-दवाम
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तुझ को क्या पाया रू-शनासी का
जुज़ ब-तक़रीब-ए-ईद-ए-माह-ए-सियाम
जानता हूँ कि इस के फ़ैज़ से तू
फिर बना चाहता है माह-ए-तमाम
माह बन माहताब बन मैं कौन
मुझ को क्या बाँट देगा तू इनआ'म
मेरा अपना जुदा मोआमला है
और के लेन-देन से क्या काम
है मुझे आरज़ू-ए-बख़्शिश-ए-ख़ास
गर तुझे है उम्मीद-ए-रहमत-ए-आम
जो कि बख़्शेगा तुझ को फ़र फ़रोग़
क्या न देगा मुझे मय-ए-गुलफ़ाम
जब कि चौदह मनाज़िल-ए-फ़लकी
कर चुके क़त्अ तेरी तेज़ी-गाम
तेरे परतव से हों फ़रोग़-पज़ीर
कूए व मुश्कूए व सहन-ओ-मंज़र-ओ-बाम
देखना मेरे हाथ में लबरेज़
अपनी सूरत का एक बिल्लोरीं जाम
फिर ग़ज़ल की रविश पे चल निकला
तौसन-ए-तब्अ' चाहता था लगाम
ज़हर-ए-ग़म कर चुका था मेरा
तुझ को किस ने कहा कि हो बदनाम
मय ही फिर क्यों न मैं पिए जाऊँ
ग़म से जब हो गई हो ज़ीस्त हराम
बोसा कैसा यही ग़नीमत है
कि न समझें वो लज़्ज़त-ए-दुश्नाम
का'बे में जा बजाएँगे नाक़ूस
अब तो बाँधा है दैर में एहराम
इस क़दह का है दौर मुझ को नक़्द
चर्ख़ ने ली है जिस से गर्दिश वाम
बोसा देने में उन को है इंकार
दिल के लेने में जिन को था इबराम
छेड़ता हूँ कि उन को ग़ुस्सा आए
क्यों रखूँ वर्ना 'ग़ालिब' अपना नाम
कह चुका मैं तो सब कुछ अब तू कह
ऐ परी-चेहरा पैक-ए-तेज़-ख़िराम
कौन है जिस के दर पे नासिबा सा
हैं मह-ओ-मेहर-ओ-ज़ोहरा-ओ-बहराम
तू नहीं जानता तो मुझ से सुन
नाम-ए-शाहनशा-ए-बुलंद-मक़ाम
क़िबला-ए-चश्म-ओ-दिल बहादुर-शाह
मज़हर-ए-ज़ुल-जलाल वल-इकराम
शहसवार-ए-तरीक़ा-ए-इंसाफ़
नौ-बहार-ए-हदीक़ा-ए-इस्लाम
जिस का हर फ़े'ल सूरत-ए-ए'जाज़
जिस का हर क़ौल मा'नी-ए-इल्हाम
बज़्म में मेज़बान-ए-क़ैसर-ओ-जम
रज़्म में ऊस्ताद-ए-रुस्तम-ओ-साम
ऐ तिरा लुत्फ़ ज़िंदगी-अफ़ज़ा
ऐ तिरा अह्द फ़र्रुख़ी फ़र्जाम
चश्म-ए-बद-दूर ख़ुसरवाना शिकोह
लौ-हशल्लाह आरिफ़ाना कलाम
जाँ-निसारों में तेरे क़ैसर-ए-रूम
जुरआ'-ख़्वारों में तेरे मुर्शिद-ए-जाम
वारिस-ए-मुल्क जानते हैं तुझे
ईरज-ओ-तोर-ओ-ख़ुसरव-ओ-बहराम
ज़ोर-ए-बाज़ू में मानते हैं तुझे
गेव-ओ-गोदर्ज़-ओ-बीझ़न-ओ-रिहाम
मर्हबा मोशगाफ़ी-ए-नावक
आफ़रीं आब-दारी-ए-समसाम
तीर को तेरे तीर-ए-ग़ैर-हदफ़
तेग़ को तेरी तेग़-ए-ख़स्म-ए-नियाम
रा'द का कर रही है क्या दम बंद
बर्क़ को दे रहा है क्या इल्ज़ाम
तेरे फ़ील-ए-गिराँ-जसद की सदा
तेरे रख़्श-ए-सुबुक-इनाँ का ख़िराम
फ़न-ए-सूरत-गरी में तेरा गुज़र
गर न रखता हो दस्त-गाह-ए-तमाम
उस के मज़रूब के सर-ओ-तन से
क्यों नुमायाँ हो सूरत-ए-इदग़ाम
जब अज़ल में रक़म-पज़ीर हुए
सफ़हा-हा-ए-लयाली-ओ-अय्याम
और उन औराक़ में ब-क्लिक-ए-क़ज़ा
मुजमलन मुंदरज हुए अहकाम
लिख दिया शाहिदों को आशिक़-कुश
लिख दिया आशिक़ों को दुश्मन-ए-काम
आसमाँ को कहा गया कि कहें
गुम्बद-ए-तेज़-गर्द नीली-फ़ाम
हुक्म-ए-नातिक़ लिखा गया कि लिखें
ख़ाल को दाना और ज़ुल्फ़ को दाम
आतिश-ओ-आब-ओ-बाद-ओ-ख़ाक ने ली
वज़्अ-सोज़-ओ-नम-ओ-रम-ओ-आराम
मेहर-ए-रख़्शाँ का नाम ख़ुसरव-ए-रोज़
माह-ए-ताबाँ का इस्म शहना-ए-शाम
तेरी तौक़ी'-ए-सल्तनत को भी
दी ब-दस्तूर सूरत-ए-अरक़ाम
कातिब-ए-हुक्म ने ब-मूजिब-ए-हुक्म
इस रक़म को दिया तराज़-ए-दवाम
है अज़ल से रवाई-ए-आग़ाज़
हो अबद तक रसाई-ए-अंजाम
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