aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "राहगीर"
राही मासूम रज़ा
1927 - 1992
लेखक
दिवाकर राही
1914 - 1968
शायर
सईद राही
अहमद राही
1923 - 2002
आदिल राही
ग़ुलाम मुर्तज़ा राही
जमुना प्रसाद राही
राकेश राही
राहील फ़ारूक़
मिर्ज़ा राहील
राही फ़िदाई
अमित झा राही
मुसतफ़ा राही
1931 - 1986
महबूब राही
बाल स्वरुप राही
शाम को जब मैं मुल्ला जी से सीपारे का सबक़ लेकर लौटता तो ख़र्रासियों वाली गली से होकर अपने घर जाया करता। उस गली में तरह तरह के लोग बस्ते थे। मगर मैं सिर्फ़ मोटे माशकी से वाक़िफ़ था जिसको हम सब, "कद्दू करेला ढाई आने" कहते थे।माशकी के घर के साथ बकरियों का एक बाड़ा था जिसके तीन तरफ़ कच्चे पक्के मकानों की दीवारें और सामने आड़ी तिरछी लक्ड़ियों और ख़ारदार झाड़ियों का ऊंचा ऊंचा जंगला था। इसके बाद एक चौकोर मैदान आता था, फिर लँगड़े कुम्हार की कोठरी और उसके साथ गेरू रंगी खिड़कियों और पीतल की कीलों वाले दरवाज़ों का एक छोटा सा पक्का मकान। इसके बाद गली मैं ज़रा सा ख़म पैदा होता और क़दरे तंग हो जाती फिर जूँ जूँ उसकी लंबाई बढ़ती तूँ तूँ उसके दोनों बाज़ू भी एक दूसरे के क़रीब आते जाते। शायद वो हमारे क़स्बे की सब से लंबी गली थी और हद से ज़्यादा सूनसान! उसमें अकेले चलते हुए मुझे हमेशा यूँ लगता था जैसे मैं बंदूक़ की नाली में चला जा रहा हूँ और जूँ ही मैं उसके दहाने से बाहर निकलूंगा ज़ोर से "ठायं" होगा और मैं मर जाऊंगा। मगर शाम के वक़्त कोई न कोई राहगीर उस गली में ज़रूर मिल जाता और मेरी जान बच जाती। उन आने जाने वालों में कभी कभार एक सफ़ेद सी मूंछों वाला लंबा सा आदमी होता जिसकी शक्ल बारह माह वाले मिलखी से बहुत मिलती थी। सर पर मलमल की बड़ी सी पगड़ी। ज़रा सी ख़मीदा कमर पर ख़ाकी रंग का ढीला और लंबा कोट। खद्दर का तंग पाएजामा और पांव में फ़्लैट बूट। अक्सर उसके साथ मेरी ही उम्र का एक लड़का भी होता जिसने ऐन उसी तरह के कपड़े पहने होते और वो आदमी सर झुकाए और अपने कोट की जेबों मे हाथ डाले आहिस्ता आहिस्ता उस से बातें किया करता। जब वो मेरे बराबर आते तो लड़का मेरी तरफ़ देखता था और मैं उसकी तरफ़ और फिर एक सानिया ठिठके बग़ैर गरदनों को ज़रा ज़रा मोड़ते हम अपनी अपनी राह पर चलते जाते।
तीन नौजवान ऐंग्लो इंडियन लड़कियाँ उन तस्वीरों को ज़ौक़-व-शौक़ से देख रही थीं। एक ख़ास शान-ए-इस्ति़ग़ना के साथ मगर सिन्फ़-ए-नाज़ुक का पूरा पूरा एहतिराम मल्हूज़ रखते हुए वो भी उनके साथ साथ मगर मुनासिब फ़ासले से उन तस्वीरों को देखता रहा। लड़कियाँ आपस में हंसी मज़ाक़ की बातें भी करती जाती थीं और फ़िल्म पर राय-ज़नी भी। इतने में एक लड़की ने, जो अपनी साथ वालियों से ...
सब अमीर-ओ-फ़क़ीर रोते थेदेख कर राह-गीर रोते थे
बात उन्हें बहुत बुरी लगी। इसलिए मुझे यक़ीन हो गया कि सच थी। उसके बाद ताल्लुक़ात इतने कशीदा हो गए कि हमने एक दूसरे के लतीफों पर हँसना छोड़ दिया। इस्तिआरा-ओ-किनाया बरतरफ़, मेरा अपना अक़ीदा तो ये है कि जब तक आदमी को ख़वास की ग़िज़ा मिलती रहे, उसे ग़िज़ा के ख़वास के बखेड़े में पड़ने की मुतलक़ ज़रूरत नहीं। सच पूछिए तो उम्दा ग़िज़ा के बाद कम-अज़-कम मुझे तो बड़ा इं...
बर्र-ए-सग़ीर में चंद इलाक़े ऐसे भी हैं जहां अगर चारपाई को आसमान की तरफ़ पायँती करके खड़ा कर दिया जाये तो हमसाये ताज़ियत को आने लगते हैं। सोग की ये अलामत बहुत पुरानी है, गो कि दीगर इलाक़ों में ये अमूदी (|) नहीं, उफु़क़ी (-) होती है। अब भी गुनजान महल्लों में औरतों इसी आमफ़हम इस्तिआरे का सहारा लेकर कोसती सुनाई देंगी। “इलाही! तन-तन कोढ़ टपके, मचमचाती हुई खाट निकले!” दूसरा भरपूर जुमला बददुआ ही नहीं बल्कि वक़्त-ए-ज़रूरत निहायत जामेअ व मानेअ सवानिह उमरी का काम भी दे सकता है क्योंकि इसमें मरहूमा की उम्र, नामुरादी, वज़न और डील डौल के मुताल्लिक़ निहायत बलीग़ इशारे मिलते हैं। नीज़ इस बात की सनद मिलती है कि राही मुल्क-ए-अदम ने वही कम ख़र्च बालानशीन वसीला नक़्ल-ओ-हमल इख़्तियार किया जिसकी जानिब मीर इशारा कर चुके हैं,
राहगीरراہگیر
a traveller, a wayfarer
बटोही, पथिक, मुसाफ़िर।
Aadha Gaon
ऐतिहासिक
Jaan-e-Ghazal
Asan Karate
अज़हर हुसैन राही
एजुकेशन / शिक्षण
ख़्वाजा हैदर अली आतिश लखनवी
शोएब राही
शोध
Ghreeb-e-shahr
काव्य संग्रह
Hypnotism Ke Amali Tareeqe
अजनबी शहर अजनबी रास्ते
Phool Ke Aansu
अज़ीम राही
अफ़साना
Andheron Ke Sarban
असलम राही
Nooruddin Zangi
Helen of Troy
Jahangeer Wa Noor Jahan
Sifarishat Imla-o-Rumooz-e-Auqaf
एजाज़ राही
Sunehri Ghol
Kadapa Mein Urdu
इतिहास
लेकिन आज ये बड़ी हिम्मत का काम है। ग़ैरों के नाविक-ए-दुशनाम। अपनों की तर्ज़-ए-मलामत। ता'ने तिशने कानाफूसी और रुसवाई सर-ए-बाज़ार... इश्क़ से पहले आशिक़ का ख़ात्मा यक़ीनी!उम्र-ए-रफ़्ता के महबूब इस क़दर क़त्ल-ओ-ग़ारत और फ़ित्ना-ओ-शर बरपा करने के बावजूद भी बेचारे बुरे-भले और ख़ुदातरस बंदे हुआ करते थे। घर हमेशा ऐसे तंग-व-तारीक कूचों में बस्ते थे कि जिस में धूप का कहीं ज़िक्र नहीं। हमेशा दीवार का साया ही रहा करता था और तारीकी ऐसी कि सारी ज़िंदगी दीवार के साए के तले गुज़ार दीजिए क्या मजाल जो किसी राहगीर तक की नज़र पड़ जाए!
इस वक़्त बेगम तुराब अली की तेज़ नज़रों के सामने माली का हाथ बड़ी फुर्ती से चल रहा था। उसने पौदों और छोटे छोटे पेड़ों की काट छांट तो क़ैंची से खड़े खड़े ही कर डाली थी और अब वो ऊंचे ऊंचे दरख़्तों पर चढ़ कर बेगम साहिब की हिदायत के मुताबिक़ सूखे या ज़ाइद टहने कुल्हाड़ी से काट काट कर नीचे फेंक रहा था ।कुछ देर बाद बेगम साहिब बैठे-बैठे थक गईं और कुर्सी से उठकर बँगले की चारदीवारी के साथ-साथ टहलने लगीं। बँगले के आगे की दीवार के साथ साथ जो पेड़ थे उनमें दो एक तो ख़ासे बड़े थे जिनकी छाँव घनी थी, ख़ासकर विलायती बादाम का पेड़। उसका साया निस्फ़ बँगले के अंदर और निस्फ़ बाहर सड़क पर रहता था। दिन को जब धूप तेज़ हो जाती तो कभी कभी कोई राहगीर या ख़्वांचे वाला ज़रा दम लेने को उसके साये में बैठ जाता था।
“अब? अब कहीं और जाऊँगा। कहीं ना कहीं से कोई माल मिल ही जाएगा।” सरदार सिंह क़ौमी कारकुन हैं। जेल जा चुके हैं। जुर्माने अदा कर चुके हैं। सयासी आज़ादी के हुसूल के लिए क़ुर्बानियाँ दे चुके हैं। ये वाक़िया सुना कर सुंदर सिंह ने कहा। बदमाशी-ओ-बर्बादी इस हद तक फैल गई है कि हमारे अच्छे अच्छे क़ौमी कारकुन भी इससे महफ़ूज़ नहीं रहे। हमारी सयासी जमातों में काम करने ...
इस दौर के मुल्ला हैं क्यों नंग-ए-मुसलमानी?ऐसे ग़ैज़ वग़ज़ब की फ़िज़ा में भी आज तक कहीं आर्ट पनपा है? आर्ट के लिए तो ज़ब्त और नसक़ और इस्तिहकाम और अख़लाक़ और फ़रोग़ लाज़िम हैं या फिर कोई वलवला कोई उमंग कोई इश्क़ जो दिलों के दरवाज़े खोल दे और उनमें से शे’र-ओ-सुख़न, नग़मा-ओ-रंग के तूफ़ान उछल उछल कर बाहर निकल पड़ें। क्या कभी आर्ट ऐसे में भी पनपता है? कि हर बड़े को दौलत और इक्तिदार की हवस ने अंधा और बहरा कर रखा है और हर छोटा अपनी बे-बज़ाअ’ती का बदला हर हमसाये और राहगीर से लेने पर तुला हो, न कोई इक़तिसादी निज़ाम ऐसा हो कि हर चीज़ की पूरी क़ीमत और हर क़ीमत की पूरी चीज़ नसीब हो और लोग फ़ाक़े के डर से नजात पाकर क़नाअ’त की गोद में ज़रा आँख झपक लें न कोई अख़लाक़ी निज़ाम ऐसा हो कि लोगों को इस दुनिया या उस दुनिया में कहीं भी जज़ा व सज़ा की उम्मीद या ख़ौफ़ हो न मसर्रत का कोई ऐसा झोंका आये कि दरख़्तों की टहनियां मस्त हो कर झूमें और पत्तों की सरसराहाट से आप ही आप नग़मे पैदा हों। न आ’फ़ियत का कोई गोशा ऐसा हो जहां आपका शिकार मो’तकिफ़ हो कर बैठ जाये और आपके लिए तस्वीरें बनाता रहे। न आस-पास कोई ऐसी निराली बस्ती हो जहां शायर ग़रीब-ए-शहर बन कर घूमता फिरे और लोग उसे दीवाना अजनबी समझ कर उसे बिक लेने दें। फुनूने लतीफ़ा की अंजुमन तो आपने बना ली है लेकिन डरता हूँ कि कहीं पहला काम उस अंजुमन का ये न हो कि चंद तस्वीरों को मुख़र्रिब-ए-अख़लाक़ और उर्यां कह कर जला दिया जाये। चंद मुसव्विरों पर ओबाशी और बेदीनी की तोहमत लगा कर उन्हें ज़लील किया जाये। या फिर उन पर ऐसे लोग मुसल्लत कर दिये जाएं जो उनके हुनर को खुरदुरी से खुरदुरी कसौटियों पर परखें और उन पर वाज़िह कर दें कि जिस बरतरी का उन्हें दावा था उस का दौर अब गुज़र गया:
रूदाबा: कार्टर रोड...गुलचहर: जी नहीं... अलीमाला रोड... टैक्सी वाला सारी पाली हिल पर लिए फिरा। होटल में किसी ने हमें बताया था कि ये जगह दिलीप कुमार के बुंगे के नज़दीक होगी... एक राहगीर बोला राजेश खन्ना के बुंगे के आगे दाएँ हाथ को जो सड़क जाती है। मैंने केबी से कहा ये दोनों बुंगे पाली हिल के लैंड मार्क मा’लूम होते हैं तो वो फ़ौरन बोला, “मीडियम लैंडमार्क में तो मरहूमा मीना कुमारी रहती थीं!” (हँसती है) और राजेश खन्ना का बंगला।
घर से निकल कर जब वो सरीन मुहल्ले के मास्टर तारा सिंह चौक पर पहुँचे तो बिजली की रौशनियाँ बुझ गईं, और एक हैबत-नाक और मौत के तसव्वुर से ज़ियादा गहरा अँधेरा छा गया और जाने किस गली के मोड़ पर मुहल्ले का चौकीदार अपनी करख़्त, सख़्त और दहला देने वाली आवाज़ से चिंघाड़ा, “ख़बरदार... ख़बरदार हो!”कमलेश का दिल यूँ धड़का जैसे कोई भटका हुआ, दरख़्त का पत्ता हवा के तुंद झोंके से ज़मीन से उठकर राहगीर की टाँगों से जा चिमटे। सागर ने उसकी कमर में अपना बाज़ू डाल दिया और आहिस्ता से पूछा, “मेरे इरादों में जुरअत भरने वाली आज तन्हाई की हल्की सी चीख़ से ख़ौफ़ खा गई! क्यों?”, कमलेश कुछ न बोली। सागर ने उसका चेहरा अपनी तरफ़ घुमा दिया।
“तुम नहीं मानेगा बुड्ढा अंकल, जाएगा।” साहिब मुस्कुराने लगा। “तो जाओ पर होशयारी से अपने आपको बचा कर...”फिर बुड्ढे अंकल ने साहिब को झुक कर सलाम किया और हस्ब-ए-दस्तूर इ’लाक़े के हर राहगीर को गुड मॉर्निंग करता, जब चर्च के सामने पहुंचा तो उसने आहिस्ता से झुक कर सर से फेल्ट उतार ली। सीने पर सलीब बनाई—“युसु मसीह अपना बेबी का हेल्प करो। अपना बेबी कुछ नहीं जानता। वो बाई गॉड हंड्रेड तक गिनना भी नहीं जानता। युसु मसीह अम जानता, वो लड़का वेरी बैड...उसने हिक्क साहिब की लड़की को ख़राब किया...बेबी का ज़रूर हेल्प करो...... युसु मसीह अमारा भी हेल्प करो। अम मस्जिद जाता। अपना गॉड के पास बेबी के वास्ते दुआ करने। उदर में हिंदू लोग मुसलमान को मारता। अमारा हेल्प करो। अम को कोई नहीं मारेगा।” फिर उसने उंगलियों से कंधे और सीने में सलीब बनाई और आगे बढ़ गया।
“हाँ भई, तो कल हड़ताल हो रही है क्या?” तीसरे ने एक की पसलियों में कोहनी से टहोका दिया। उस ने जवाब दिया, “क्यों न होगी, अरे इतना बड़ा मुसलमान मर जाये और हड़ताल न हो।”ये बात एक राहगीर ने सुन ली, उसने दूसरे चौक में अपने दोस्तों से कही और एक घंटे में इन सब लोगों को जो दिन को सोने और रात को बाज़ारों में जागते रहने के आदी हैं, मालूम हो गया कि सुबह हड़ताल हो रही है।
चराग़-ए-मंज़िल-ए-फ़र्दा जलाएगा इक रोज़वो राहगीर जो तन्हा दिखाई देता है
मैंने देखा कि इस फार्मूले से मिर्ज़ा ने बारहा एक दिन में दस-दस पंद्रह-पंद्रह रुपये बचाए। एक रोज़ दस रुपये की बचत दिखा कर उन्होंने मुझसे पांच रुपये उधार मांगे तो मैंने कहा, “ग़ज़ब है दिन में दस रुपये बचाने के बावजूद मुझसे पांच रुपये क़र्ज़ मांग रहे हो?” कहने लगे, “अगर ये न बचाता तो इस वक़्त तुम्हें पंद्रह देने पड़ते।” मुझे इस सूरत-ए-हाल में सरासर अपना ही ...
Rekhta Gujarati Utsav I Vadodara - 5th Jan 25 I Mumbai - 11th Jan 25 I Bhavnagar - 19th Jan 25
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