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शेर
ज़िंदगी मर्ग-ए-तलब तर्क-ए-तलब 'अख़्तर' न थी
फिर भी अपने ताने-बाने में मुझे उलझा गई
अख़्तर होशियारपुरी
शेर
मेरी दुनिया इसी दुनिया में कहीं रहती है
वर्ना ये दुनिया कहाँ हुस्न-ए-तलब थी मेरा