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ग़ज़ल
ख़ुद-फ़रोशी-हा-ए-हस्ती बस-कि जा-ए-ख़ंदा है
हर शिकस्त-ए-क़ीमत-ए-दिल में सदा-ए-ख़ंदा है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
हुई बुलबुल सना-ख़्वान-ए-दहान-ए-तंग किस गुल की
कि फ़रवर्दी में ग़ुंचे का मुँह इतना सा निकल आया
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
सब को फूल और कलियाँ बाँटो हम को दो सूखे पत्ते
ये कैसे तोहफ़े लाए हो ये क्या बर्ग-फ़रोशी है
जमील मलिक
ग़ज़ल
तुम्हारी पॉलीसी का हाल कुछ खुलता नहीं साहब
हमारी पॉलीसी तो साफ़ है ईमाँ-फ़रोशी की
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
शम्अ' मग़रूर न हो बज़्म-ए-फ़रोज़ी पे बहुत
रात-भर की ये तजल्ली है सहर कुछ भी नहीं