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ग़ज़ल
सुनता नहीं वो वर्ना ये सरगोशी-ए-अग़्यार
क्या मुझ को गवारा है कि मैं कुछ नहीं कहता
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
सरगोशी करते पर्दे कुंडी खटकाता नट-खट दिन
दबे दबे क़दमों से तपती छत पर जाती दो-पहरें
इशरत आफ़रीं
ग़ज़ल
वो क़ुलक़ुल-ए-मीना में चर्चे मिरी तौबा के
और शीशा-ओ-साग़र की मय-ख़ाने में सरगोशी
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
ये कैसी सरगोशी-ए-अज़ल साज़-ए-दिल के पर्दे हिला रही है
मिरी समाअत खनक रही है कि तेरी आवाज़ आ रही है
अब्दुल हमीद अदम
ग़ज़ल
तेरी शक्ल के एक सितारे ने पल भर सरगोशी की
शायद माह-ओ-साल-ए-वफ़ा की बस इतनी मज़दूरी थी