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ग़ज़ल
ऐसा अंदाज़-ए-ग़ज़ल हो कि ज़माने में 'ज़फ़र'
दौर-ए-आइंदा की क़द्रों का निशाँ हो जाऊँ
सिराजुद्दीन ज़फ़र
ग़ज़ल
बदलती क़द्रों में कुछ हूँ कि कुछ नहीं 'मुल्ला'
सवालिया सा निशाँ हूँ ख़ुद अपने नाम के बा'द
आनंद नारायण मुल्ला
ग़ज़ल
मजीद अमजद
ग़ज़ल
न भूल जाए ज़माना वफ़ा की क़द्रों को
मिटे जो इश्क़ में उन के निशाँ की बात करें