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नज़्म
जिन्हें मुतरिबों ने चाहा कि सदाओं में पिरो लें
जिन्हें शाइ'रों ने चाहा कि ख़याल में समो लें
साहिर लुधियानवी
नज़्म
सो रहे हैं मस्त-ओ-बे-ख़ुद घर के कुल पीर-ओ-जवाँ
हो गई हैं बंद हुस्न-ओ-इश्क़ में सरगोशियाँ
कैफ़ी आज़मी
नज़्म
कर रहा है क़स्र-आज़ादी की बुनियाद उस्तुवार
फ़ितरत-ए-तिफ़्ल-ओ-ज़न-ओ-पीर-ओ-जवाँ का इंक़लाब
ज़फ़र अली ख़ाँ
नज़्म
मर्द-ओ-ज़न पीर-ओ-जवाँ इन के मज़ालिम के शिकार
ख़ून-ए-मासूम में डूबी हुई इन की तलवार
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
हर ख़ुर्द-ओ-कलाँ हर पीर-ओ-जवाँ है आज निदा-ए-आज़ादी
ये कोशिश सब पर लाज़िम है दाइम हो बक़ा-ए-आज़ादी
अर्श मलसियानी
नज़्म
हमें बंद कमरों में क्यूँ पिरो दिया गया है
एक दिन की उम्र वाले तो अभी दरवाज़ा ताक रहे हैं