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मेहमान-दारी

MORE BYहिजाब इम्तियाज़ अली

    स्टोरीलाइन

    यह एक हॉरर क़िस्म की कहानी है। दो लड़कियाँ एक प्रोफे़सर के साथ समुंद्र के खंडहर की सैर के लिए रात का सफ़र तय कर दूसरे शहर जाते हैं। उस शहर में वे एक मादाम के घर में ठहरते हैं, लेकिन जब उस मादाम की हक़ीक़त का पता चलता है तो हालात दूसरा ही रुख़ इख्त़ियार कर लेते हैं।

    मुझे एक मुद्दत से समरद के खंडर देखने का इश्तियाक़ था। इत्तिफ़ाक़ से एक दिन बातों-बातों में मैंने अपने शौक़ का ज़िक्र बूढ़े डाक्टर गार से किया। वो सुनते ही बोले, “इतना इश्तियाक़ है तो बेटी वहाँ की सैर को जाती क्यों नहीं? तुम्हारे क़याम का इंतिज़ाम मैं किए देता हूँ। मादाम हुमरा दिली ख़ुशी से तुम्हें अपना मेहमान बनाएँगी। कहो तो आज ही उन्हें ख़त लिख दूँ?”

    “मादाम हुमरा कौन हैं?”, मैंने सवाल किया।

    बूढ़े डाक्टर गार ने नस्वार की डिबिया पतलून की जेब से निकाली और उस पर उंगली मारते हुए बोला, “तुम मादाम हुमरा को नहीं जानतीं रूही? दो साल हुए ये ख़ातून समरद से कोई चालीस मील के फ़ासले पर कार के हादिसे में बुरी तरह ज़ख़्मी हो गई थीं। इत्तिफ़ाक़ की बात, उसी ज़माने में हमारी पार्टी शिकार की ग़रज़ से निकली हुई थी। खे़मे क़रीब ही लगे। रात का वक़्त था। शहर दूर था। एक मैं ही वहाँ डाक्टर था। अल्लाह ने वक़्त पर मुझे तौफ़ीक़ दी और मैं उस बेचारी ख़ातून को अपने खे़मे में उठा लाया। चोटें सख़्त आई थीं मगर चार दिन की तीमार-दारी और इ’लाज ने ख़तरे से बाहर कर दिया और मैंने उन्हें अपनी कार में बिठा कर उनके घर पहुँचा दिया।

    वो दिन और आज का दिन, हमेशा उनका इसरार रहा कि मैं कुछ दिन को उनके हाँ जाऊँ और उनका मेहमान रहूँ मगर बा-वजूद उस बेचारी की शदीद इसरार के मैं उधर अब तक जा सका। खंडरों की सैर के लिए वक़्त निकाल सका। बीमारी की ख़िदमत से जो वक़्त बचता है वो मुताले’ की नज़्र हो जाता है। अब ये मौक़ा’ अच्छा पैदा हो गया। अपनी बजाए मैं तुम्हें भेज दूँगा। उन्हें ख़ुशी होगी, तुम्हारी ज़रूरत पूरी हो जाएगी।”

    ये सुनकर मैं बोली, “वाक़ई’, मौक़ा’ तो अच्छा है मगर डाक्टर अकेली मैं नहीं जाती। ब-ख़ुदा मुझे लुत्फ़ आएगा तुम भी साथ चलो।”

    डाक्टर ने अपने क़दीम अंदाज़ में साफ़ इंकार कर दिया, “न बेटी मेरा जी नहीं चाहता। कौन सूटकेस भरे और सफ़र की ज़हमत उठाए।”

    जसवती बरामदे के सिरे पर बैठी मेवा खा रही थी। ये सुनकर वहीं से बोली, “सूटकेस मैं भर दूँगी प्यारे गारी। आप ज़रूर चलें।”

    जसवती बचपन से बूढ़े डाक्टर को गारी-गारी कहने की आ’दी है।

    डाक्टर गार ने थोड़ी देर के ग़ौर के बा’द अपनी आ’दत के मुताबिक़ इरादा बदल डाला, बोला, “तुम लोगों की फ़रमाइश टालते हुए भी तबीअ’त आज़ुर्दा होती है। तो फिर जसवती मेरे सूटकेस तुमको भरने होंगे और मेरी नस्वार की पुड़ियों की देख-भाल रूही तुम करो।”

    बूढ़े डाक्टर की इसी एक गंदी आ’दत से मुझे नफ़रत है। मुझे नस्वार को छूने से भी घिन आती है मगर क्या करती। उस वक़्त मतलब अपना था। नाचार वा’दा कर लिया कि नस्वार की पुड़ियों का एहतिमाम मैं कर लूँगी। डाक्टर गार ने उसी वक़्त मादाम हुमरा को ख़त लिख दिया कि हफ़्ता-अशरा में हम लोगों समेत वहाँ पहुँच रहे हैं। लेकिन डाक्टर के पास बा’ज़ ऐसे अहम केस आते रहे कि ख़त लिखने के पंद्रह दिन बा’द हम अपना सफ़र शुरू’ कर सके।

    उस रोज़ मेरी महबूब इकलौती सहेली जसवती और डाक्टर गार हम तीनों डाक्टर की छोटी सी सफ़री कार में चल पड़े। दिन की गर्मी से बचने के लिए रात का खाना खाकर सफ़र शुरू’ किया गया। प्रोग्राम ये बना कि समरद के रास्ते में रात मादाम हुमरा के हाँ बसर कर के उनकी ख़ुशी पूरी करें और दूसरी सुब्ह समरद के खंडरों में पहुँच जाएँ। ये ख़बर थी कि ये रात ज़िंदगी की निहायत ख़ौफ़नाक रातों में से एक होगी… मालिक की पनाह!

    माह मई की तपती हुई चाँदनी-रात थी। हमारी नन्ही सी “हेमंट ले” वीरान सड़क पर किसी तेज़-रफ़्तार कीड़े की तरह चली जा रही थी। नौ बज चुके थे, ख़याल था कि बारह साढे़ बारह बजे तक हम मादाम हुमरा के हाँ पहुँच जाएँगे। सड़क पर कोई राहगीर था। ज़र्द चाँद मौसम-ए-गर्मा के शफ़्फ़ाफ़ आसमान पर दम-ब-ख़ुद था। ताड़ के फ़लक-बोस छतरी नुमा दरख़्त रात की फ़ुसूँ-कारी से मबहूत खड़े थे।

    जसवती कार चला रही थी। मैं उसके पहलू में बैठी टॉफ़ी खा रही थी। बूढ़ा डाक्टर बुझा हुआ सिगार मुँह में दबाए ग़ुनूदगी के आ’लम में पिछली सीट पर पड़ा था। ग़ुनूदी से चौंकता तो मज़े में आकर उ’मर ख़य्याम की कोई शोख़ रुबाई अपनी मोटी ग़ैर-शाइ’राना आवाज़ में गा देता। ये उसकी मख़्सूस आ’दतों में से एक थी।

    दिल-फ़रेब चाँदनी थी और ख़्वाब-नाक समाँ। दफ़अ’तन जसवती ने कार खड़ी कर दी।

    “क्यों क्या हुआ?”, मैंने चौकलेट का एक टुकड़ा निगलते हुए पूछा।

    वो बोली, “कोई ख़राबी रूही!”, और फिर सीट से उतरकर इंजन खोल कर देखने लगी।।

    मैंने कहा, “ना-मुम्किन... अच्छा ठहरो मैं देखती हूँ।”

    ये कह कर मैंने अपना दस्ती बटवा डाक्टर गार की गोद में फेंक दिया और ख़ुद इंजन को देखने लगी। आधे घंटे की मुसलसल कोशिश के बा’द हमने मायूस हो कर एक दूसरे को तका।

    “अब क्या होगा रूही?”, जसवती ने ख़िसयाने लहजा में पूछा।

    उसी वक़्त ताड़ के देव-क़द दरख़्त पर तहज़ीब-ओ-तमद्दुन से ना-आश्ना सहराई उल्लू ने एक वहशियाना चीख़ मारी। भला जसवती के कान जो सितार की मौसीक़ी और मुहब्बत की शीरीं सरगोशियों के आ’दी थे उल्लू की इस ज़ियादा की ताब कब ला सकते थे। वो मारे ख़ौफ़ के मुझसे चिमट गई लेकिन मैं तो ग़ैर-हमवार ज़मीनों और महाज़री जैसे दुश्वार-गुज़ार पहाड़ियों की सियाहत की आ’दी हूँ। उसकी बुज़दिली पर उसको हिम्मत दिलाई। इतने में बूढ़ा डाक्टर गार हाफ़िज़ का एक इ’श्क़िया शे’र पढ़ता हुआ उठ बैठा और पूछने लगा, “क्या हम पहुँच गए?”

    कुछ देर बा’द परेशानी के आ’लम में हम तीनों कार से नीचे उतर आए और सरासीमगी से इधर-उधर देखने लगे। रात ज़ियादा गहरी होती चली जाती थी। चाँद की ज़र्द रौशनी में रात का कोई परिंद अपने बड़े-बड़े बाज़ू फैलाए किसी सिम्त उड़ता तो हम किसी राहगीर या गाड़ीबान के धोके में उसी सिम्त तकने लगते। बहुत देर बा’द दूर से बग़ैर छत के देहाती वज़्अ’ की एक मज़हका-अंगेज़ गाड़ी आती हुई नज़र आई। जसवती ने उसे देखकर ग़मगीं लहजे में कहा, “अगर हम देर में पहुँचे तो वो सो चुकी होंगी। इसलिए इस गाड़ी में चले चलो।”

    गाड़ी सड़क के किनारे बे-फ़िक्री से चहल-क़दमी करती हुई चली जा रही थी। डाक्टर गार ने दूर से आवाज़ दी, “बड़े मियाँ अ’य्यूब मुहल्ले में इ’शरत-ख़ाना नामी कोठी तक हमें पहुँचा दोगे?”

    गाड़ीबान ने बग़ैर हमारी तरफ़ देखे देहातियों के से अक्खड़ लहजे में जवाब दिया, “नहीं बारह बज गए हैं। देर हो गई है।”

    ये बद-तहज़ीब और टका सा जवाब सुनकर बहुत ही ग़ुस्सा आया। ज़ब्त कर के मैं और जसवती उसके पास गईं। वो हमारे बेश-क़ीमत ज़र्रीं-लिबास और बा-वक़ार चेहरे को देखकर गाड़ी से नीचे उतर आया। “ये लो…”, मैंने जाते ही चांदी का एक चमकदार सिक्का उसके हाथ में रख दिया और बोली, “अब हमें जल्दी से इ’शरत-ख़ाना तक पहुँचा दो।”

    वो मरऊ’ब हो गया और मुअद्दब लहजे में बोला, “सवार हो जाइए हुज़ूर! दो घंटों में पहुँचा दूँगा।”

    गाड़ी के पाएदान पर क़दम रखा तो ऐसा मा’लूम हुआ कि गाड़ी सर पर रहेगी। इसलिए फ़ौरन मैंने उसकी छत थाम ली। जसवती ने उसके पहिए को मज़बूती से पकड़ कर गाड़ी पर क़दम रखा। ग़रज़ हम तीनों चढ़ कर बैठ गए। अब गाड़ी चली जा रही थी। आहिस्ता-आहिस्ता जैसे किसी जाँ-ब-लब मरीज़ का साँस चल रहा हो। चाँद ज़र्द पड़ गया था। हवाओं में ख़ौफ़-नाक सरसराहाट पैदा हो गई थी।

    बूढ़ा डाक्टर गार गाड़ी के हचकोलों से ना-ख़ुश और चिड़ा हुआ मा’लूम होता था। हम दोनों गर्मी से निढाल हाथों में ख़स की ज़रीं पंखियाँ लिए, जिनकी डंडियाँ ख़ुश्बूदार संदल की लकड़ी की थीं, बार-बार बे-कली से पहलू बदल रही थीं। आह अल्लाह वो गर्म और वीरान चाँदनी-रात। साँस आग के शो’लों की तरह नाक से निकलता था। ज़बान सूखे पत्तों की तरह ख़ुश्क थी। जसवती रह-रह कर अपनी परी की वज़्अ’ की छोटी सी नुक़रई सुराही से पानी उंडेल-उंडेल कर पी रही थी। मशरिक़ी ममालिक की ये वही गर्म रात थी जिसके मुतअ’ल्लिक़ हमारे इन एशियाई ममालिक में मशहूर है कि सब्ज़ चश्म परियाँ भी अपनी आबी दुनिया से बाहर निकल आती हैं।

    दूर से एक सफ़ेद शानदार इमारत नज़र आने लगी। फिर यक-लख़्त बूढ़ा डाक्टर गार गाड़ीबान पर और मैं जसवती पर जा पड़ी और इस तरह हमारी मज़हका-ख़ेज़ गाड़ी एक झटके साथ इ’शरत-ख़ाना के शानदार फाटक में मुड़ गई। मैंने रोने के लहजे में कहा, “ऐसी भद्दी गाड़ी में अपने मेज़बान के सामने जाते हुए मैं तो ज़मीन में गड़ जाऊँगी।”

    इस पर बूढ़े डाक्टर गार ने कहा, “मगर रूही इसमें शर्म की क्या बात है? वो क्या समझ जाएँगी कि मजबूरी को इस गाड़ी में सवार होना पड़ा होगा।”

    जसवती ने कहा, “न-न! जितनी जल्दी हो सके इसको वापिस कर दो।”

    चाँदनी की सफ़ेद धारियाँ ख़ुश-क़ते’ और तंग रविशों पर पड़ी हुई थीं। हमारी गाड़ी सद्र दरवाज़े पर जाकर लग गई। हमने फ़ौरन उसे वापिस कर दिया। मैंने इधर-उधर देखकर कहा, “यहाँ की दुनिया तो ख़्वाब में मलफ़ूफ़ नज़र आती है। चौकीदार का भी पता नहीं।”

    जसवती ने कहा, “कि कौन जाने मादाम हुमरा यहाँ हैं या नहीं।”

    डाक्टर कहने लगा, “होंगी क्यों नहीं? उन्होंने मेरे ख़त का जवाब दिया था कि मैं दिली-इश्तियाक़ से आप सबकी आमद की मुंतज़िर रहूँगी।”

    हमने दरवाज़ा खटखटाया। पहले एहतियात से आहिस्ता-आहिस्ता फिर कुछ देर बा’द ज़ोर-ज़ोर से। मकान का तवाफ़ किया। नौकरों को पुकारा। चौकीदार को आवाज़ें दीं। ग़रज़ जितनी कोशिशें हो सकती थीं कर लीं मगर ज़र्द चाँदनी में सफ़ेद मर्मरीं मेहराबों वाला आ’लीशान महल साकित खड़ा रहा। वसीअ’ बरामदों में लंबे-लंबे सुतूनों का अ’क्स चाँदनी में तिर्छा पड़ रहा था। चम्बेली की बेल में झींगुर अपना नग़मा-ए-तन्हाई अलाप रहा था।

    जब मायूस हो कर हम लोग ज़ीने से उतरने लगे तो अचानक अंदर किसी कमरे से एक ऐसी आवाज़ आई जैसे किसी ने दिया-सलाई जलाई हो। डाक्टर गार ने चौंक कर कहा, “ठहरो। मेरा ख़याल है कि कोई जाग उठा।”

    हम तीनों फिर ज़ीने तय कर के दरवाज़े के पास इस उम्मीद में जा खड़े हुए कि अब खुलता है और अब खुलता है। अंदर से कभी-कभी कोई ख़फ़ीफ़ सी आवाज़ जाती थी। पाँच मिनट उसी हालत में गुज़र गए। हम बंद दरवाज़े पर नज़रें गाड़े रहे।

    आख़िर डाक्टर ने हैरान हो कर कहा, “ये क्या बात है?”

    मैंने शीशों में से अंदर झाँकने की कोशिश की। वहाँ सिवाए तारीकी के कुछ था। डाक्टर बेज़ार हो कर चिल्लाया, “अरे भई यहाँ कोई है भी?”

    उसके चिल्लाने का असर ये हुआ कि अंदर फिर कुछ गड़बड़ी सी होने लगी। दो लम्हे बा’द दरवाज़ा यकायक इस ज़ोर से खुला कि हमारी तो आँखें बंद हो गईं। उसका खुलना था कि तेज़-ओ-तुंद हवा का एक सर्द झोंका अचानक हमारे गर्म चेहरों से यूँ आकर लगा जैसे किसी ने थप्पड़ मारा हो। मेरी तो आँखें बंद हो गईं और साथ ही हम तीनों खड़े-खड़े काँप से गए लेकिन दरवाज़े के सामने जो मौजूद कोई था। डाक्टर गार हैरान और परेशान हो कर बोला, “ये दरवाज़ा खोला किसने?”

    अंदर की वीरान तारीकी में दाख़िल होने की हिम्मत होती थी। डाक्टर ने एक क़दम अंदर रखा था कि जसवती ने उसे रोक दिया। बेज़ार हो कर हमने फिर बाग़ की तरफ़ जाने का इरादा किया। यक-लख़्त फिर अंदर के किसी दरवाज़े के पट से खुलने की आवाज़ आई और साथ ही सर्द और तुंद हवा का झोंका एक-बार फिर हम तक पहुँचा। देखते ही देखते तारीकी में एक हल्की सी रौशनी नज़र आने लगी जो ब-तदरीज मोम-बत्ती में तब्दील हो गई। हमने निगाह मोमबत्ती से ज़रा ऊपर उठाई तो अट्ठाईस-उनत्तीस साला एक हुसैन और दिलफ़रेब ख़ातून नज़र आई जिसने निहायत सादा और सफ़ेद लंबे-लंबे लर्ज़ां दामनों का लिबास पहन रखा था। मोम-बत्ती उसके हाथ में थी। डाक्टर गार को देखकर वो मुस्कुराई और सर झुकाया।

    “मिज़ाज-ए-शरीफ़ मादाम हुमरा... ये दोनों लड़कियाँ मेरी हैं। इन्हीं का ज़िक्र मैंने ख़त में किया था।”

    ख़ातून हुमरा ने निहायत दिलकश अंदाज़ में हमारी तरफ़ देखकर ख़ैर-मक़्दम के तौर पर सर झुकाया।

    फिर एक लम्हे बा’द बग़ैर कोई बात किए उन्होंने इशारे से हमें अपने पीछे बुलाया और रौशनी दिखाते हुए ख़ुद सामने चलने लगीं। एक बल खाए हुए नाग के फन पर मोम-बत्ती जल रही थी। हवा से उनके लंबे-लंबे

    दामन उनके पीछे दूर-दूर तक लहरा रहे थे। चाल ऐसी थी जैसे कोई परी हवा में तैर रही हो। सियाह बाल सफ़ेद रेशमी चादर के नीचे हवा की शोख़ियों से लहरा रहे थे। चेहरे पर हूरों की सी मुस्कुराहट थी।

    उसी वक़्त जसवती ने सरगोशी की, “रूही यहाँ कैसी ख़ुनुक हवा चल रही है। बाहर तो सड़कों पर लू की तकलीफ़-दह लपटों से हमारे चेहरे गर्म हो रहे थे।”

    जसवती का फ़िक़रा ख़त्म हुआ ही था कि हम एक आ’लीशान महल में पहुँचे जहाँ एक सियाह लंबी आ’ला पालिश-शुदा चमकदार मेज़ पर अन्वा’-अक़्साम के फल बर्ग-नुमा नुक़रई तश्तों में सजे हुए थे। दिल की शक्ल

    की नन्ही कटोरियों में शर्बत रखा हुआ था। मेज़ के ऊपर छत में कँवल के फूलों की वज़्अ’ के फ़ानूस आवेज़ाँ थे। दरवाज़ों पर अर्ग़वानी रंग के ज़रीं पर्दे लगे हुए थे। दीवारों पर किसी क़दीम जंग-ए-चीन के मनाज़िर लटक रहे थे।

    मादाम हुमरा ने अपनी साँप की शक्ल का शम्अ’-दान मेज़ पर रख दिया और ख़ुद सिरे वाली मेज़ पर बैठ गईं।

    “लेकिन!”, डाक्टर गार ने कहा, “मेरी प्यारी मादाम... रात के दो बजे ऐसी लज़ीज़ मेज़ से कोई किस तरह लुत्फ़ अंदोज़ हो सकता है? इस वक़्त तो एक नर्म आराम-देह बिस्तर इ’नायत हो जाए तो बड़ी मेहरबानी होगी।”

    ये सुनते ही मादाम हुमरा बग़ैर किसी क़िस्म का कोई लफ़्ज़ मुँह से निकाले उठ खड़ी हुईं। खाने के लिए मुतलक़ इसरार किया। अपना वही नाग की वज़्अ’ का शम्अ’-दान उठा लिया और मुस्कराकर गर्दन के इशारे से हमें अपने पीछे पीछे आने को कहा। एक पुर-तकल्लुफ़ ख़्वाब-गाह में, जहाँ मद्धम रौशनियों के नीचे नफ़ीस और रंगीन रेशमी बिस्तर बिछे हुए थे, ले गईं। यहाँ पहुँच कर सर के इशारे से हमें शब-ब-ख़ैर कहा और चुप-चाप आहिस्ता-आहिस्ता क़दम उठाती हुई उसी तरह बाहर चली गईं।

    मैं एक कमज़ोर दिल की वहमी औ’रत हूँ। अपनी मेज़बान की इन हरकात ने मेरा ख़ून ख़ुश्क कर दिया था। चुनाँचे उनके कमरे से बाहर जाते ही मैंने डाक्टर गार का हाथ थाम लिया और बोली, “ये बात क्यों नहीं करतीं?”

    गार बोला, “मैं ख़ुद हैरान हूँ! जाने क्या मुआ’मला है?”

    “यहाँ से भाग चलो डाक्टर।”, मैंने बेज़ार लहजे में कहा।

    जसवती बोली, “उनकी कैसी मीठी शक्ल है। पर कहीं गूँगी तो नहीं?”

    डाक्टर गार ने कहा, “नहीं बेटी नहीं! वो बेहद बातूनी हैं।”

    मैं सोचते हुए बोली, “बा-वजूद उनके हुस्न के उन्हें देखकर मुझे दहशत सी महसूस होती है।”

    डाक्टर गार अपने कमरे में चला गया। जसवती और मैं इस राज़ को सुलझाने की कोशिश करती हुई कोई तीन बजे के क़रीब अपनी अपनी चारपाइयों पर लेट गईं। सुब्ह की इ’बादत के वक़्त आ’दतन मेरी आँख खुल गई। प्रोग्राम के मुताबिक़ आठ बजे हमें समरद के खंडरों की तरफ़ रवाना हो जाना था इसलिए मैंने जसवती को भी जगा दिया। हम दोनों ने नमाज़ पढ़ी। सुब्ह गर्म और ख़ुश-गवार थी। नमाज़ के बा’द सामने चम्बेली की बेलों में बैठ कर बहुत देर तक चाय का इंतिज़ार किया।

    मगर जब मायूसी हुई तो मैं डाक्टर गार के कमरे में गई और बोली, “डाक्टर अभी तक सो रहे हो?”

    वो बोले, “चाय के इंतिज़ार में पड़ा हूँ रूही। चाय जाए तो उठूँ। ज़रा वो नस्वार की डिबिया पकड़ा देना। शुक्रिया।”

    नौ बज गए और किसी ने ख़बर की तो मैंने कहा, “चलिए डाक्टर ज़रा बाहर निकल कर देखें। चाय या कोई ख़ादिमा क्यों नहीं आती?”

    डाक्टर गार ने जल्दी-जल्दी कपड़े पहन लिए। हम तीनों वसीअ’ बरामदे से गुज़र कर बड़े हाल में आए। तमाम दरवाज़े बंद थे। हर तरफ़ सन्नाटा और वीरानी थी। बेश-क़ीमत फ़र्नीचर पर गर्द थी। ऐसा महसूस होता था कि कोठी कई रोज़ से बंद पड़ी है। हमने डरते डरते खंखार कर आहट कर के एक-एक कमरे को खोला लेकिन हर कमरा ख़ाली था। हर कमरे के सामान की ये हालत थी जैसे बरता नहीं जाता। संगो कर रख दिया गया है। सारी कोठी देख डाली। उसमें कहीं कोई मुतनफ़्फ़िस था। हमारे दिलों पर दहशत एक बोझ की तरह बैठने लगी। परेशान हो कर बाहर बाग़ में निकल आए। समझ में आता था कि ये रातों रात क्या हो गया... नौकर किधर हैं? मादाम हुमरा कहाँ ग़ाइब हो गईं।

    दस बजने गए। हम परेशानी के आ’लम में इस वीरान घर के ज़ीने पर खड़े सोच रहे थे कि क्या करें? इतने में देखा कि बूढ़ा मुलाज़िम बाग़ से हो कर अंदर आया और चुप-चाप एक कमरे में दाख़िल हो गया फिर उसने फ़र्नीचर निकाल कर बाहर रखना शुरू’ कर दिया। साथ ही साथ वो ज़ोर-ज़ोर से रोता भी जा रहा था। हम लोग तेज़ी से उसकी तरफ़ गए। वो हमें देखकर ठिटक सा गया और फिर हैरान हो कर हमारा मुँह तकने लगा। डाक्टर गार ने पूछा, “मादाम हुमरा कहाँ हैं?”

    बूढ़ा मुतअ’ज्जिब हो कर दीवानों की तरह डाक्टर का मुँह तकने लगा। डाक्टर गार ने फिर कहा “हम उनके मेहमान हैं। मादाम हुमरा कहाँ गईं?”

    बूढ़े ने हैरान हो कर कहा, “मादाम हुमरा...? आह हुज़ूर बेगम साहिबा को तो साँप ने डस लिया। उनके इंतिक़ाल को आज पूरे दस दिन हो गए। आज घर का सामान नीलाम होने वाला है।”

    ये सुनते ही मैंने जिस्म में एक फुरैरी सी महसूस की। रात का वो पुर-असरार सर्द हवा का झोंका फिर एक दफ़ा’ मुझे क़रीब महसूस होने लगा और मैं बेद-ए-मजनूँ की तरह काँपने लगी। इसके बा’द मुझे मुतलक़ याद नहीं कि क्या हुआ था।

    स्रोत:

    Gulistan Aur Bhi Hain (Pg. 319)

    • लेखक: हिजाब इम्तियाज़ अली
      • प्रकाशक: मुजीब अहमद ख़ाँ
      • प्रकाशन वर्ष: 2008

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