बाबा नूर
स्टोरीलाइन
‘इतिहास जंगे याद रखता है। उनमें शहीद होने वाले सैनिक। वह विजेताओं की गाथा गाता है और लाशों के ढ़ेर को भूला देता है।’ लाशों की उसी ढ़ेर में से एक बाबा नूर का बेटा है। बाबा नूर बिला नाग़ा पास के डाकख़ाने जाते हैं। इस पर छोटे बच्चे उनका मज़ाक उड़ाते हैं और बड़े उनका एहतराम करते हैं। बाबा नूर डाकख़ाने जा कर वहाँ मुंशी से पूछते हैं कि क्या उनके बेटे की कोई चिट्ठी आई है? मुंशी हर बार की तरह कहता है, नहीं। उसके जाने के बाद बैठे लोगों से मुंशी कहता है, मैंने उसे वह चिट्ठी पढ़कर सुनाई थी जिसमें ख़बर थी कि बाबा का बेटा बर्मा में बम के गोले का शिकार हो चुका है। जब से वो पागल सा हो गया है। मगर ख़ुदा की क़सम है दोस्तो, अगर आज के बाद वो फिर मेरे पास यही पूछने आया, तो मुझे भी पागल कर जाएगा।
“कहाँ चले बाबा नूर?” एक बच्चे ने पूछा।
“बस भई, यहीं ज़रा डाकख़ाने तक।” बाबा नूर बड़ी ज़िम्मेदाराना संजीदगी से जवाब दे कर आगे निकल गया और सब बच्चे खिलखिलाकर हंस पड़े।
सिर्फ़ मौलवी क़ुदरतुल्लाह चुप-चाप खड़ा बाबा नूर को देखता रहा। “फिर वो बोला हंसो नहीं बच्चो। ऐसी बातों पर हंसा नहीं करते। अल्लाह-तआ’ला की ज़ात बेपर्वा है।”
बच्चे ख़ामोश हो गए और जब मौलवी क़ुदरतुल्लाह चला गया, तो एक-बार फिर सब खिलखिला कर हंस पड़े। बाबा नूर ने मस्जिद की मेहराब के पास रुक कर जूता उतारा नंगे पाँव आगे बढ़ कर मेहराब पर दोनों हाथ रखे उसे होंटों से चूमा, फिर उसे बारी बारी दोनों आँखों से लगाया, उल्टे क़दमों वापस हो कर जूते पहने और जाने लगा।
बच्चे यूँ इधर उधर की गलियों में खिसकने लगे जैसे एक दूसरे से शर्मा रहे हों।
बाबा नूर का सारा लिबास धुले हुए सफ़ेद खद्दर का था। सर पर खद्दर की टोपी जो सर के बालों की सफ़ेदी से गर्दन तक चढ़ी हुई मालूम होती थी। इस की सफ़ेद डाढ़ी के बाल ताज़ा-ताज़ा कंघी की वजह से ख़ास तर्तीब से सीने पर फैले हुए थे। गोरे रंग में ज़र्दी नुमायाँ थी, छोटी छोटी आँखों की पुतलियाँ इतनी सियाह थीं कि बिलकुल मस्नूई’ मालूम होतीं। लिबास, बालों और जिल्द की इतनी बहुत सी सफ़ेदी में ये दो काले भौंरा नुक़्ते बहुत अजनबी से लगते। लेकिन यही अजनबियत बाबा नूर के चेहरे पर बचपने की सी कैफ़ियत तारी रखती थी। उस के कंधे पर सफ़ेद खद्दर का एक रूमाल था जो लोगों के हुजूम से ले कर मस्जिद की मेहराब तक तीन चार बार कंधा बदल चुका था।
“डाकख़ाने चले बाबा नूर?” दुकान के दरवाज़े पर खड़े एक नौजवान ने पूछा।
“हाँ बेटा, जीते रहो।” बाबा नूर ने जवाब दिया।
पास ही एक बच्चा खड़ा था। तड़ाक से ताली बजा कर चिल्लाया, “आ हा हा, बाबा नूर डाकख़ाने चला।”
“भाग जा यहाँ से।” नौजवान ने बच्चे को घुड़का।
और बाबा नूर जो कुछ दूर गया था, पलट कर बोला, “डाँटते क्यों हो बच्चे को। ठीक ही तो कहता है। डाकख़ाने ही तो जा रहा हूँ।”
दूर दूर से दौड़ दौड़ कर आते हुए बच्चे बे-इख़्तियार हंसने लगे और बाबा नूर के पीछे एक जलूस मुरत्तब होने लगा, मगर आस-पास से नौजवान लपक कर आए और बच्चों को गलियों में बिखेर दिया।
बाबा नूर अब गाँव से निकल कर खेतों में पहुँच गया था। पगडंडी मेंड मेंड जाती हुई अचानक हरे-भरे खेतों में उतरती, तो बाबा नूर की रफ़्तार में बहुत कमी आ जाती। वो गंदुम के नाज़ुक पौदों से पाँव, हाथ और चोले का दामन बचाता हुआ चलता। अगर किसी मुसाफ़िर की बे-एहतियाती से कोई पौदा पगडंडी के आर-पार कटा हुआ मिलता, तो बाबा नूर उसे उठा कर दूसरे पौदों के सीने से लिपटा देता और जिस जगह से पौदे ने ख़ुम खाया था, उसे कुछ यूँ छूता जैसे ज़ख़्म सहला रहा है। फिर वो खेत की मेंड पर पहुँच कर तेज़ तेज़ चलने लगता।
चार किसान पगडंडी पर बैठे हुक़्क़े के कश लगा रहे थे। एक लड़की गंदुम के पौदों के दरमयान से कुछ इस सफ़ाई से दरांती से घास काटती फिर रही थी कि मजाल है जो किसी पौदे पर ख़राश आ जाए। बाबा नूर ज़रा सा रुक कर लड़की को देखने लगा। वो घास की दस्ती काट के हाथ पीछे ले जाती। घास पीठ पर लटकी गठड़ी में डाल फिर दरांती चलाने लगती।
“भई कमाल है।” बाबा नूर ने दूर ही से किसानों को मुख़ातिब किया, “ये लड़की तो बिलकुल मदारी है। इतनी लंबी दरांती चला रही है। चप्पे चप्पे पर गंदुम का पौदा उग रहा है। लेकिन दरांती घास काट लेती है और गंदुम को छूती तक नहीं। ये किस की बेटी है?”
“तू किस की बेटी है बेटा?” बाबा ने लड़की से पूछा। उसने पलट कर देखा, तो एक किसान की आवाज़ आई, “मेरी है बाबा।”
“तेरी है?” बाबा नूर किसानों की तरफ़ जाने लगा। “बड़ी सियानी है, बड़ी अच्छी किसान है। ख़ुदा हयात लंबी करे।”
“आज कहाँ चले बाबा?” लड़की के बाप ने पूछा।
“डाकख़ाने?” दूसरे ने पूछा।
“हाँ” बाबा नूर उनके पास ज़रा सा रुक कर बोला, “मैं ने कहा पूछ आऊँ शायद कोई चिट्ठी वट्ठी आई हो।”
चारों किसान ख़ामोश हो गए। उन्होंने एक तरफ़ हट कर पगडंडी छोड़ दी और बाबा नूर आगे बढ़ गया। अभी वो खेत के परले सिरे पर पहुँचा ही था कि लड़की की आवाज़ आई, “लस्सी पियोगे बाबा नूर?”
बाबा नूर ने मुड़कर देखा और गाँव से निकलने के बाद पहली बार मुस्कुराया। “पी लूँगा बेटा।” फिर ज़रा सा रुक कर बोला। “पर देख ज़रा जल्दी से लादे। डाक का मुंशी हवा के घोड़े पर सवार रहता है, चला ना जाए।”
लड़की ने घास की गठड़ी कंधे से उतार वहीं खेत में रखी। फिर वो दौड़ कर मेंड पर उगी एक बैरी के पास आई। तने की ओट में पड़े बर्तन को ख़ूब छलकाया, एलोमोनियम का कटोरा भरा और लपक कर बाबा नूर के पास जा पहुंची।
बाबा ने एक ही सांस में सारा कटोरा पी कर रूमाल से होंट साफ़ किए, बोला, “तेरा नसीबा इस लस्सी की तरह साफ़सुथरा हो बेटा।” और आगे बढ़ गया।
मदरसे के बरामदे में डाक का मुंशी बहुत से लोगों के दरमयान बैठा रोज़ाना के फ़ार्म भी पुर कर रहा था। वो देहातियों को मा’लूमात से भी मुस्तफ़ीद करता रहता, “मेरा साला वहाँ कराची में चपरासी का काम करता था। जब वो मरा, तो मुझे फ़ातिहा पढ़ने कराची जाना पड़ा। बात ये है दोस्तो कि एक-बार कराची ज़रूर देख लो चाहे वहाँ गधा गाड़ी में जुतना पड़े। इतनी मोटर कारें हैं कि हमारे गाँव में तो उतनी चिड़ियाँ भी नहीं होंगी। एक एक मोटर पर वो वो औरत ज़ात बैठी है कि अल्लाह दे और अल्लाह ही ले। बंदा न लेने में है न देने में। बंदों को परियों से क्या लेना देना, अल्लाह की क़ुदरत याद आ जाती है, नमाज़ पढ़ने को जी चाहने लगता है। एक सेठ कह रहा था कि बस एक और बड़ी लाम लग जाए, तो कराची विलायत बन जाएगा। कहते हैं कितनी बार लाम लगने लगी पर लगते लगते रह गई। कोई न कोई बीच में टांग अड़ा देता है। कहते हैं लाम में लोग मरेंगे। कोई पूछे लाम न लगी, तो जब भी तो लोग मरेंगे। लाम में गोले से मरेंगे, वैसे भूक से मर जाऐंगे। ठीक है न।”
“ठीक ही तो है।” एक देहाती बोला, “पर मुंशी जी पहले ये बताओ कि लिफ़ाफ़ा इकन्नी का कब करोगे?” मुंशी ने उसे कुछ समझाने के लिए सामने देखा, तो उस की नज़र एक नुक़्ते पर जैसे जम कर रह गई। उस का रंग फ़क़ हो गया और वो बुझी हुई आवाज़ में बोला, “बाबा नूर आ रहा है।” सब लोगों ने पलट कर देखा और फिर सब के चेहरे कुमला गए।
बच्चे मदरसे के दरवाज़ों और खिड़कियों में जमा हो कर, “बाबा नूर। बाबा नूर।” की सरगोशियाँ करने लगे। मुंशी ने उन्हें डाँट कर अपनी अपनी जगह पर बिठा दिया। सफ़ेद बुर्राक़ बाबा नूर सीधा मदरसे के बरामदे की तरफ़ आ रहा था और लोग जैसे सहमे जा रहे थे।
बरामदे में पहुँच कर उसने कहा, “डाक आ गई मुंशी जी।?”
“आ गई बाबा।” मुंशी ने जवाब दिया।
“मेरे बेटे की चिट्ठी तो नहीं आई?” बाबा ने पूछा।
“नहीं बाबा।” मुंशी बोला।
बाबा नूर चुप-चाप वापस चला गया। दूर तक पगडंडी पर एक सफ़ेद धब्बा रेंगता हुआ नज़र आता रहा और लोग दम-ब-ख़ुद बैठे उसे देखते रहे।
फिर मुंशी बोला दस साल से बाबा नूर इसी तरह आ रहा है। यही सवाल पूछता और यही जवाब ले कर चला जाता है। बेचारे को ये याद ही नहीं रहा कि सरकार की वो चिट्ठी भी तो मैंने ही उसे पढ़ कर सुनाई थी। उस में ख़बर थी कि बाबा का बेटा बर्मा में बम के गोले का शिकार हो चुका। जब से वो पागल सा हो गया है। मगर ख़ुदा की क़सम है दोस्तो, अगर आज के बाद वो फिर भी मेरे पास यही पूछने आया, तो मुझे भी पागल कर जाएगा।
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