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सिर्फ़ एक आवाज़

प्रेमचंद

सिर्फ़ एक आवाज़

प्रेमचंद

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    सुब्ह का वक़्त था। ठाकुर दर्शन सिंह के घर में एक हंगामा बरपा था। आज रात को चन्द्र गरहन होने वाला था। ठाकुर साहब अपनी बूढ़ी ठकुराइन के साथ गंगा जी जाते थे। इसलिए सारा घर उनकी पुरशोर तैयारी में मसरूफ़ था। एक बहू उनका फटा हुआ कुरता टांक रही थी। दूसरी बहू उनकी पगड़ी लिए सोचती थी कि क्यूँकर इसकी मरम्मत करूँ। दोनों लड़कियां नाशता तैयार करने में मह्व थीं जो ज़्यादा दिलचस्प काम था, और बच्चों ने अपनी आदत के मुवाफ़िक़ एक कोहराम मच रखा था। क्यों कि हर एक आने-जाने के मौक़े पर उनका जोश गिरिया-ए-उमंग पर होता था, जाने के वक़्त साथ जाने के लिए रोते। आने के वक़्त इसलिए रोते कि शीरीनी की तक़्सीम ख़ातिर-ख़्वाह नहीं हुई। बूढ़ी ठकुराइन बच्चों को फुसलाती थीं और बीच बीच में अपनी बहुओं को समझाती थीं, देखो ख़बरदार जब तक आगरा हो जाएगी घर से बाहर निकलना। हंसिया, छुरी, कुल्हाड़ी हाथ से मत छूना, समझाए देती हूँ। मानना चाहे मानना। तुम्हें मेरी बात की कौन परवाह है, मुँह में पानी की बूँद पड़े। नारायण के घर बिपत पड़ी है जो साधू-भिकारी दरवाज़े पर आजाए, उसे फेरना मत। बहुओं ने सुना और नहीं सुना। वो मना रही थीं कि किसी तरह यहां से टलें। फागुन का महीना है। गाने को तरस गए, आज ख़ूब गाना बजाना होगा।

    ठाकुर साहब थे तो बूढ़े। लेकिन ज़ोफ़ का असर दिल तक नहीं पहुंचा था। उन्हें इस बात का घमंड था कि कोई गहन बग़ैर गंगा अश्नान के नहीं छूटा। उनकी इल्मी क़ाबिलिय्यत हैरत अंगेज़ थी। सिर्फ़ पत्रों को देखकर महीनों पहले सूरज गरहन और दूसरी तक़रीबों के दिन बता देते थे। इसलिए गांव वालों की निगाह में उनकी इज़्ज़त अगर पंडितों से ज़्यादा थी तो कम भी थी जवानी में कुछ दिनों फ़ौजी मुलाज़िमत भी की थी। उसकी गर्मी अब तक बाक़ी थी। मजाल थी कि कोई उनकी तरफ़ तीखी आँख से देख सके। एक मज़कूरी चपरासी को ऐसी इल्मी तंबीह की थी जिसकी नज़ीर क़ुर्ब-ओ-जवार के दस पाँच गांव में भी नहीं मिल सकती। हिम्मत और हौसले के कामों में अब भी पेशक़दमी कर जाते थे, किसी काम को मुश्किल बना देना, उनकी हिम्मत को तहरीक देता था। जहां सबकी ज़बानें बंद हो जाएं वहां वो शेरों की तरह गरजते थे। जब खूबी गांव में दारोगा जी तशरीफ़ लाते तो ठाकुर साहब ही का दिल गुर्दा था कि उनसे आँखें मिला कर दू-ब-दू बात कर सकें। आलिमाना मुबाहिसे के मैदान में भी उनके कारनामे कुछ कम थे। झगड़ालू पण्डित हमेशा उनसे मुँह छुपाया करते थे। ग़रज़ ठाकुर साहब की जिबिल्ली रऊनत और एतिमाद-ओ-नफ़्स उन्हें हर बात में दूल्हा बनने पर मजबूर कर देती थी। हाँ कमज़ोरी इतनी थी कि अपनी आल्हा भी आप ही गा लेते और मज़े ले-ले कर क्योंकि तस्नीफ़ को मुसन्निफ़ ही ख़ूब बयान करता है।

    जब दोपहर होते होते ठाकुर और ठकुराइन गांव से चले तो सैंकड़ों आदमी उनके साथ थे और पुख़्ता सड़क पर पहुंचे तो जात्रियों का ऐसा ताँता लगा हुआ था गोया कोई बाज़ार है। ऐसे ऐसे बूढ़े लाठियां टेकते या डोलियों पर सवार चले जाते थे। जिन्हें तकलीफ़ देने की मल्कु-उल-मौत ने भी कोई ज़रूरत समझी थी। अंधे दूसरों की लकड़ी के सहारे क़दम बढ़ाए आते थे। बाज़ आदमियों ने अपनी बूढ़ी माताओं को पीठ पर लाद लिया था। किसी के सर पर कपड़ों का बुक़चा, किसी के कंधे पर लोटा, डोर किसी के पर, और कितने ही आदमियों ने पैरों पर चीथड़े लपेट लिए थे। जूते कहाँ से लाएंगे। मगर मज़हबी जोश की ये बरकत थी कि मन किसी का मैला था। सब के चेहरे शगुफ़्ता, हंसते बातें करते सरगर्म रफ़्तार से कुछ औरतें गा रही थीं।

    चांद सूरज दोनों के मालिक एक दिना उन्हों पर बनती

    हम जानी हम ही पर बनती

    ऐसा मालूम होता था ये आदमियों की एक नदी थी जो सैंकड़ों छोटे-छोटे नालों और धारों को लेती हुई समुंदर से मिलने के लिए जा रही थी।

    जब ये लोग गंगा के किनारे पर पहुंचे तो सह पहर का वक़्त था। लेकिन मीलों तक कहीं तिल रखने की जगह थी। इस शानदार नज़ारे से दिलों पर अक़ीदत और एहतिराम का ऐसा रोब होता था कि बे-इख़्तियार 'गंगा माताजी की जय' की सदाएँ बुलंद हो जाती थीं। लोगों के एतक़ाद इस नदी की तरह उमडे हुए थे और वो नदी वो लहराता हो तेल ज़ार, वो तिश्ना कामों की प्यास बुझाने वाली वो नामुरादों की आस वो बरकतों की देवी, वो पाकीज़गी का सर चशमा वो मुश्त-ए-ख़ाक को पनाह देने वाली गंगा हँसती थी, मुस्कुराती थी, और उछलती थी। क्या इसलिए कि आज वो अपनी आम इज़्ज़त पर फूली समाती थी। या इसलिए कि वो उछल उछल कर अपने प्रेमियों से गले मिलना चाहती थी। जो उस के दर्शनों के लिए मंज़िलें तय करके आए थे और उसके लिबास की तारीफ़ किस ज़बान से हो जिस पर आफ़ताब ने दरख़्शां तारे टाँके थे और जिसके किनारों को उसकी किरनों ने रंग ब-रंग ख़ुशनुमा और मुतहर्रिक फूलों से सजाया था।

    अभी गहन लगने में घंटों की देर थी। लोग इधर उधर टहल रहे थे, कहीं मदारियों के शोबदे थे। कहीं चूरन वालों की शेवा बयानियों के मोजिज़े, कुछ लोग मेंढों की क्षति देखने के लिए जमा थे। ठाकुर साहब भी अपने चंद मोतक़िदों के साथ सैर को निकले। उनकी ओलू हिम्मती ने गवारा किया कि इन आलिमाना दिलचस्पियों में शरीक हों। यकायक उन्हें एक वसीअ शामियाना तना हुआ नज़र आया। जहां ज़्यादा-तर तालीम याफ़्ता आदमियों का मजमा था। ठाकुर साहब ने अपने साथियों को एक किनारे खड़ा कर दिया और ख़ुद एक मग़रूराना अंदाज़ से ताकते हुए फ़र्श पर जा बैठे। क्योंकि उन्हें यक़ीन था यहां उन पर दहक़ानियों की निगाह-ए-रश्क पड़ेगी और मुम्किन है ऐसे नुक़्ते भी मालूम हो जाएं जो मोतक़िदीन को हमादानी का यक़ीन दिलाने में काम दे सकें।

    ये अख़लाक़ी जलसा था दो ढाई हज़ार आदमी बैठे हुए एक शीरीं बयाँ मुक़र्रिर की तक़रीर सुन रहे थे। फैशनेबल लोग ज़्यादा-तर अगली सफ़ों में जल्वा-अफ़रोज़ थे। जिन्हें सरगोशियों का इससे बेहतर मौक़ा नहीं मिल सकता था। कितने ही ख़ुशपोश हज़रात इसलिए मुकद्दर नज़र आते थे कि उनकी बग़ल में कमतर दर्जे के लोग बैठे हुए थे। तक़रीर बज़ाहिर दिलचस्प थी। वज़न ज़्यादा था और चटख़ारे कम। इसलिए तालियाँ नहीं बजती थीं।

    हज़रत ने वाइज़ के दौरान तक़रीर में फ़रमाया,

    मेरे प्यारे दोस्तो! ये हमारा और आपका फ़र्ज़ है, इस से ज़्यादा अहम, ज़्यादा नतीजा-ख़ेज़ और क़ौम के लिए ज़्यादा मुबारक कोई फ़र्ज़ नहीं है। हम मानते हैं कि उनके आदात अख़लाक़ की हालत निहायत अफ़सोसनाक है मगर यक़ीन मानिए ये सब हमारी करनी है। उनकी इस शर्मनाक तमद्दुनी हालत का ज़िम्मेदार हमारे सिवा और कौन हो सकता है? अब इसके सिवा इसका और कोई इलाज नहीं है कि हम इन नफ़रत और हिक़ारत को जो उनकी तरफ़ से हमारे दिलों में बैठी हुई है, धोएँ और ख़ूब मिलकर धोएँ। ये आसान काम नहीं है। जो स्याही कई हज़ार बरसों से जमी हुई है। वो आसानी से नहीं मिट सकती जिन लोगों के साये से हम परहेज़ करते आए हैं, जिन्हें हमने हैवानों से भी ज़लील समझ रखा है। उनसे गले मिलने में हमको ईसार, हिम्मत और बे नफ़सी से काम लेना पड़ेगा। उस ईसार से जो कृष्ण में था। उस हिम्मत से जो राम में थी। उस बे-नफ़्सी से जो चेत और गोविंद में थी। मैं ये नहीं कहता कि आप आज ही उनसे शादी के रिश्ते जोड़ें या उनके निवाला-ओ-पियाला शरीक हों मगर क्या ये भी मुम्किन नहीं है कि आप उनके साथ आम हमदर्दी, आम इन्सानियत, आम अख़्लाक़ से पेश आएं? क्या ये वाक़ई ग़ैर मुम्किन अमर है। आपने कभी ईसाई मिशनरियों को देखा है? आह! जब मैं एक आला दर्जा की हसीन, नाज़ुक इंदाम सीम-तन लेडी को अपनी गोद में एक स्याह फ़ाम बच्चा लिए हुए देखता हूँ जिसके बदन पर फोड़े हैं, ख़ून है और ग़लाज़त है। वो नाज़नीन उस बच्चे को चूमती है, प्यार करती है, छाती से लगाती है तो मेरा जी चाहता है कि उस देवी के क़दमों पर सर रख दूं। अपना नीचापन, अपनी फ़र्द माइगी, अपनी झूटी बड़ाई अपनी तंगज़र्फ़ी मुझे कभी इतनी सफ़ाई से नज़र नहीं आती। उन देवियों के लिए ज़िंदगी में क्या-क्या नेअमतें नहीं थीं। ख़ुशियां आग़ोश खोले हुए उनकी मुंतज़िर खड़ी थीं। उनके लिए दौलत की तन आसानियां थीं। मुहब्बत की पुर-लुत्फ़ दिल आवेज़ियाँ थीं। अपने यगानों और अज़ीज़ों की हमदर्दियां थीं और अपने प्यारे वतन की कशिश थी। लेकिन उन देवियों ने उन तमाम नेअमतों, उन तमाम दीनवी बरकतों को सच्ची बेग़र्ज़ ख़िदमत पर क़ुर्बान कर दिया है। वो ऐसी मलकूती क़ुर्बानियां कर सकती हैं, क्या हम इतना भी नहीं कर सकते कि अपने अछूत भाइयों से हमदर्दी का सुलूक कर सकें? क्या हम वाक़ई ऐसे पस्त हिम्मत, ऐसे बोदे, ऐसे बेरहम हैं? उसे ख़ूब समझ लीजिए कि आप उनके साथ कोई रिआयत, कोई मेहरबानी नहीं कर रहे हैं, ये उन पर कोई एहसान नहीं है। ये आप ही के लिए ज़िंदगी और मौत का सवाल है, इसलिए मेरे भाइयो और दोस्तो! आइए इस मौक़े पर शाम के वक़्त पवित्र गंगा नदी के किनारे, काशी के पवित्र स्थान में हम मज़बूत दिल से अह्द करें कि आज से हम अछूतों के साथ बिरादराना सुलूक करेंगे, उनकी तक़रीबों में शरीक होंगे और अपनी तक़रीबों में उन्हें बुलाएँगे। उनके गले मिलेंगे और उन्हें अपने गले लगाएँगे, उनकी ख़ुशियों में ख़ुश और उनके दर्दों में दर्दमंद होंगे। और चाहे कुछ ही क्यों हो जाये। चाहे ताना-ओ-तज़हीक और तहक़ीर का सामना ही क्यों करना पड़े, हम इस अह्द पर क़ायम रहेंगे, आप में सद-हा पुर जोश नौजवान हैं जो बात के धनी और इरादे के मज़बूत हैं। कौन ये अह्द करता है, कौन अपनी अख़लाक़ी दिलेरी का सबूत देता है? वो अपनी जगह पर खड़ा हो जाए और ललकार कर कहे कि 'मैं ये प्रतिज्ञा करता हूँ और मरते दम तक इस पर क़ायम और साबित-क़दम रहूँगा।'

    आफ़ताब गंगा की गोद में जा बैठा था और माँ मुहब्बत और ग़ुरूर से मतवाली जोश से उमड़ी हुई रंग में केसर को शरमाती और चमक में सोने को लजाती थी। चारों तरफ़ एक रोब अफ़्ज़ा ख़ामोशी छाई थी। उस सन्नाटे में संन्यासी की गर्मी और हरारत से भरी बातें गंगा की लहरों और आसमान से सर टकराने वाले मंदिरों में समा गयीं। गंगा एक मतीन और मादराना मायूसी के साथ हंसी और देवताओं ने अफ़सोस से सर झुका लिया। मगर मुँह से कुछ बोले।

    सन्यासी की सदाए बुलंद फ़िज़ा में जाकर ग़ायब हो गई। मगर मजमें में किसी शख़्स के दिल तक पहुंची। वहां क़ौमी फ़िदाइयों की कमी थी स्टेजों, तमाशे खेलने वाले कॉलिजों के होनहार नौजवान क़ौम के नाम पर मिटने वाले अख़बार नवीस, क़ौमी जमातों के मेंबर, सेक्रेटरी और प्रेसिडेंट, राम और कृष्ण के सामने सर झुकाने वाले सेठ और साहूकार, क़ौमी कॉलिजों के आली हौसला प्रोफ़ेसर और अख़बारों में क़ौमी तरक़्क़ियों की ख़बरें पढ़ कर ख़ुश होने वाले दफ़्तरों के कारकुन हज़ारों की तादाद में मौजूद थे। आँखों पर सुनहरी ऐनकें लगाए फ़र्बह अंदाज और ख़ुश वज़ा वकीलों की एक फ़ौज आरास्ता थी। मगर सन्यासी की इस आतिशीं तक़रीर पर एक दल भी पिघला क्यों कि वो पत्थर के दिल थे जिनमें दर्द-ओ-गुदाज़ था, जिनमें ख़्वाहिश थी मगर अमल था जिनमें बच्चों की सी ख़्वाहिश थी मगर मर्दों का इरादा था।

    सारी मजलिस पर सुकूत का आलम तारी था। हर शख़्स सर झुकाए फ़िक्र में डूबा हुआ नज़र आता था। नदामत किसी को सर उठा ने देती थी, और आँखें ख़िफ़्फ़त से ज़मीन में गड़ी हुई थीं। ये वही सर हैं जो क़ौमी चर्चों पर उछल पड़ते थे। ये वही आँखें हैं जो किसी वक़्त क़ौमी ग़ुरूर की सुर्ख़ी से लबरेज़ हो जाती थीं। मगर क़ौल और फ़ेअल में आग़ाज़ और अंजाम का फ़र्क़ है। एक फ़र्द को भी खड़े होने की जुर्रत हुई। मिक़राज़ की तरह चलने वाली ज़बानें भी ऐसी अज़ीमुश्शान ज़िम्मेदारी के ख़ौफ़ से बंद हो गईं।

    ठाकुर दर्शन सिंह अपनी जगह पर बैठे हुए इस नज़ारे को बहुत ग़ौर और दिलचस्पी से देख रहे थे। वो अपने मज़हबी अक़ाइद में चाहे रासिख़ हों या हूँ लेकिन तमद्दुनी मुआमलात में वो कभी पेशक़दमी के ख़तावार नहीं हुए थे। इस पेचीदा और वहशतनाक रास्ते में उन्हें अपनी अक़्ल-ओ-तमीज़ और इदराक पर भी भरोसा नहीं होता था। यहां मंतिक़ और इस्तिदलाल को भी उनसे हार माननी पड़ती थी। इस मैदान में वो अपने घर की मस्तूरात के हुक्म की तामील करना ही अपना फ़र्ज़ समझते थे और चाहे उन्हें ब-ज़ाते किसी मुआमले में कोई एतिराज़ भी हो, लेकिन ये निस्वानी मुआमला था और इसमें वो मदाख़िलत नहीं कर सकते थे क्यों कि इससे ख़ानदानी निज़ाम में शोरिश और तलातुम पैदा हो जाने का ज़बरदस्त एहतिमाल रहता था। अगर उस वक़्त उनके बा'ज़ सर-गर्म नौजवान दोस्त इस कमज़ोरी पर उन्हें आड़े हाथों लेते तो वो बहुत दानिशमंदी से कहा करते थे, भई ये औरतों के मुआमले हैं। उनका जैसा दिल चाहता है करती हैं। मैं बोलने वाला कौन हूँ। ग़रज़ यहां उनकी फ़ौजी गर्म मिज़ाजी उनका साथ छोड़ देती थी। ये उनके लिए वादिये तिलिस्म थी जहां होशो-हवास मस्ख़ हो जाते थे और कोराना तक़लीद का पैर तस्मा पा गर्दन पर सवार हो जाता था।

    लेकिन ये ललकार सुनकर वो अपने तईं क़ाबू में रख सके। यही वो मौक़ा था जब उनकी हिम्मतें आसमान पर जा पहुँचती थीं। जिस बेड़े को कोई उठाए उसे उठाना उनका काम था। इम्तिना से उन्हें रुहानी मुनासिबत थी। ऐसे मौक़े पर वो नतीजा और मस्लिहत से बग़ावत कर जाते थे और उनके इस हौसले में हिर्स-ए-शोहरत को इतना दख़ल नहीं था जितना अपनी फ़ित्री मैलान को, वर्ना ये ग़ैर मुम्किन था कि ऐसे जलसे में जहां इल्म-ओ-तहज़ीब की नुमूद थी और जहां तिलाई ऐनकों से रौशनी और गूना-गूं लिबासों से फ़िक्र ताबां की शुआएं निकल रही थीं जहां वज़ा की नफ़ासत से रोब और फ़र्बही दबाज़त से वक़ार की झलक आती थी। वहां एक दहक़ानी किसान को ज़बान खोलने का हौसला होता, ठाकुर ने इस नज़्ज़ारे को ग़ौर और दिलचस्पी से देखा, उसके पहलू में गुदगुदी सी हुई ज़िंदा-दिली का जोश रगों में दौड़ा, वो अपनी जगह से उठा और मर्दाना लहजा में ललकार कर बोला, मैं ये प्रतिज्ञा करता हूँ और मरते दम तक इस पर क़ायम रहूँगा।

    इतना सुनना था कि दो हज़ार आँखें अंदाज़-ए-तहय्युर से उसकी तरफ़ ताकने लगीं, सुब्हान-अल्लाह क्या वज़ा थी। गाड़े की ढीली मिरज़ाई। घुटनों तक चढ़ी हुई धोती, सर पर एक गिरांबार उलझा हुआ साफा, कंधे पर चुनौटी और तंबाकू का वज़नी बटवा। मगर बुशरे से मतानत और इस्तिक़लाल नुमायां था। ग़ुरूर आँखों के तंग ज़र्फ़ से बाहर निकला पड़ता था। उसके दिल में अब इस शानदार मजमें की इज़्ज़त बाक़ी रही थी। वो अपने पुराने वक़्तों का आदमी था। जो अगर पत्थर को पूजता था तो उसी पत्थर से डरता भी था। जिसके लिए एकादशी बरत महज़ हिफ़्ज़ सेहत की एक तदबीर और गंगा महज़ सेहत बख़्श पानी का ज़ख़ीरा थी। उसके अक़ीदे में बेदार मग़्ज़ी हो लेकिन शकूक नहीं थे। ग़रज़ उसका अख़्लाक़ पाबंद अमल था और उसकी बुनियाद कुछ तक़्लीद और मुआवज़े पर थी। मगर ज़्यादा-तर ख़ौफ़ पर जो नूर इरफ़ाँ के बाद तहज़ीब-ए-नफ़्स की सबसे बड़ी ताक़त है, गेरुवे बाने की इज्जत-ओ-एहतराम करना उसके मज़हब और ईमान का एक जुज़्व था। सन्यास में उसकी रूह को अपना फ़रमान गुज़ार बनाने की एक ज़िंदा ताक़त छिपी हुई थी और उस ताक़त ने अपना असर दिखाया। लेकिन मजमें की इस हैरत ने बहुत जल्द तम्सख़र की सूरत इख़्तियार की। पुर मअनी निगाहें आपस में कहने लगीं, आख़िर गंवार ही तो ठहरा। दहक़ानी है कभी ऐसी तक़रीरें काहे को सुनी होंगी। बस उबल पड़ा और उथले गड्डे में इतना पानी भी समा सका। कौन नहीं जानता कि ऐसी तक़रीरों का मंशा तफ़रीह होता है। दस आदमी आए, इकट्ठे बैठे कुछ सुना, कुछ गपशप मारी और अपने अपने घर लौटे, ये कि क़ौल-ओ-क़रार करने बैठें। अमल करने के लिए कसमें खाएँ।

    मगर मायूस और दिल-ए-गिरफ़्ता सन्यासी सोच रहा था, अफ़सोस! जिस मुल्क की रौशनी में इतना अंधेरा है, वहां कभी रौशनी का ज़ुहूर होना मुश्किल नज़र आता है। इस रौशनी पर, इस अँधेरी, मुर्दा और बे-जान रौशनी पर मैं जिहालत को तर्जीह देता हूँ। जिहालत में सफ़ाई है, हिम्मत है उसके दिल और ज़बान में पर्दा नहीं होता। क़ौल और फ़ेल में इख़्तिलाफ़, क्या ये अफ़सोस की बात नहीं है कि इल्म-ए-जिहालत के सामने सर झुकाए इस सारे मजमें में सिर्फ़ एक शख़्स है जिसके पहलू में मर्दों का दिल है और गोवा से बे-दार-मग़्ज़ी का दावा नहीं। लेकिन मैं उसकी जिहालत पर ऐसी हज़ारों बेदार मग़्ज़ियों को क़ुर्बान कर सकता हूँ तब वो प्लेटफार्म से नीचे उतरे और दर्शन सिंह को गले से लगा कर कहा, ईश्वर तुम्हें प्रतिज्ञा पर क़ायम रखे।

    स्रोत:

    Prem Chand Ke Sau Afsane (Pg. 139)

    • लेखक: प्रेमचंद
      • प्रकाशक: मॉडर्न पब्लिशिंग हाउस, दरियागंज, नई दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 2008

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