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फुंदने

MORE BYसआदत हसन मंटो

    स्टोरीलाइन

    कहानी का मौज़ू सेक्स और हिंसा है। कहानी में एक साथ इंसान और जानवर दोनों को पात्र के रूप में पेश किया गया है। जिन्सी अमल से पैदा होने वाले नतीजों को स्वीकार न कर पाने की स्थिति में बिल्ली के बच्चे, कुत्ते के बच्चे, ढलती उम्र की औरतें जिनमें जिन्सी कशिश बाक़ी नहीं, वे सब के सब मौत का शिकार होते नज़र आते हैं।

    कोठी से मुल्हक़ा वसीअ’-ओ-अ’रीज़ बाग़ में झाड़ियों के पीछे एक बिल्ली ने बच्चे दिए थे, जो बिल्ला खा गया था। फिर एक कुतिया ने बच्चे दिए थे जो बड़े बड़े हो गए थे और दिन-रात कोठी के अंदर बाहर भौंकते और गंदगी बिखेरते रहते थे। उनको ज़हर दे दिया गया... एक एक कर के सब मर गए थे। उनकी माँ भी... उनका बाप मालूम नहीं कहाँ था। वो होता तो उसकी मौत भी यक़ीनी थी।

    जाने कितने बरस गुज़र चुके थे। कोठी से मुल्हक़ा बाग़ की झाड़ियां सैंकड़ों हज़ारों मर्तबा कतरी-ब्योंती, काटी-छांटी जा चुकी थीं। कई बिल्लियों और कुत्तियों ने उनके पीछे बच्चे दिए थे जिनका नाम-ओ-निशान भी रहा था। उसकी अक्सर बद आदत मुर्ग़ियां वहाँ अंडे दे दिया करती थीं जिन को हर सुबह उठा कर वो अंदर ले जाती थी।

    उसी बाग़ में किसी आदमी ने उनकी नौजवान मुलाज़िमा को बड़ी बेदर्दी से क़त्ल कर दिया था। उसके गले में उसका फुंदनों वाला सुर्ख़ रेशमी इज़ार-बंद जो उसने दो रोज़ पहले फेरी वाले से आठ आने में ख़रीदा था, फंसा हुआ था। इस ज़ोर से क़ातिल ने पेच दिए थे कि उसकी आँखें बाहर निकल आई थीं।

    उसको देख कर उसको इतना तेज़ बुख़ार चढ़ा था कि बेहोश हो गई थी और शायद अभी तक बेहोश थी। लेकिन नहीं, ऐसा क्योंकर हो सकता था, इसलिए कि इस क़त्ल के देर बाद मुर्ग़ियों ने अंडे, ही बिल्लियों ने बच्चे दिए थे और एक शादी हुई थी... कुतिया थी जिसके गले में लाल दुपट्टा था। मुकेशी... झिलमिल झिलमिल करता। उसकी आँखें बाहर निकली हुई नहीं थीं, अंदर धंसी हुई थीं।

    बाग़ में बैंड बजा था। सुर्ख़ वर्दियों वाले सिपाही आए थे जो रंग बिरंगी मुश्कें बग़्लों में दबा कर मुँह से अ’जीब अ’जीब आवाज़ें निकालते थे। उनकी वर्दियों के साथ कई फुंदने लगे थे जिन्हें उठा उठा कर लोग अपने इज़ार बंदों में लगाते जाते थे... पर जब सुबह हुई थी तो उनका नाम-ओ-निशान तक नहीं था... सबको ज़हर दे दिया गया था।

    दुल्हन को जाने क्या सूझी, कमबख़्त ने झाड़ियों के पीछे नहीं, अपने बिस्तर पर सिर्फ़ एक बच्चा दिया जो बड़ा गुल गोथना, लाल फुंदना था। उसकी माँ मर गई, बाप भी। दोनों को बच्चे ने मारा... उसका बाप मालूम नहीं कहाँ था। वो होता तो उसकी मौत भी उन दोनों के साथ होती।

    सुर्ख़ वर्दियों वाले सिपाही बड़े बड़े फुंदने लटकाए जाने कहाँ ग़ायब हुए कि फिर आए। बाग़ में बिल्ले घूमते थे, जो उसे घूरते थे, उसको छिछड़ों की भरी हुई टोकरी समझते थे, हालाँकि टोकरी में नारंगियाँ थीं।

    एक दिन उसने अपनी दो नारंगियां निकाल कर आइने के सामने रख दीं। उसके पीछे होके उसने उन को देखा मगर नज़र आईँ। उसने सोचा इसकी वजह ये है कि छोटी हैं... मगर वो उसके सोचते सोचते ही बड़ी हो गईं और उसने रेशमी कपड़े में लपेट कर आतिशदान पर रख दीं।

    अब कुत्ते भौंकने लगे.... नारंगियाँ फ़र्श पर लुढ़कने लगीं। कोठी के फ़र्श पर उछलीं, हर कमरे में कूदीं और उछलती-कूदती बड़े बड़े बाग़ों में भागने दौड़ने लगीं... कुत्ते उनसे खेलते और आपस में लड़ते झगड़ते रहते।

    जाने क्या हुआ, उन कुत्तों में दो ज़हर खा के मर गए जो बाक़ी बचे वो उनकी अधेड़ उम्र की हट्टी कट्टी मुलाज़िमा खा गई। ये उस नौजवान मुलाज़िमा की जगह आई थी, जिसको किसी आदमी ने क़त्ल कर दिया था, गले में उसके फुंदनों वाले इज़ारबंद का फंदा डाल कर।

    उसकी माँ थी। अधेड़ उम्र की मुलाज़िमा से उम्र में छः-सात बरस बड़ी। उसकी तरह हट्टी-कट्टी नहीं थी। हर रोज़ सुब्ह-शाम मोटर में सैर को जाती थी और बद आदत मुर्ग़ियों की तरह दूर-दराज़ बाग़ों में झाड़ियों के पीछे अंडे देती थी। उनको वो ख़ुद उठा कर लाती थी ड्राईवर।

    आमलेट बनाती थी जिसके दाग़ कपड़ों पर पड़ जाते थे। सूख जाते तो उनको बाग़ में झाड़ियों के पीछे फेंक देती थी जहाँ से चीलें उठा कर ले जाती थीं।

    एक दिन उसकी सहेली आई।. पाकिस्तान मेल, मोटर नंबर 9612 पी एल बड़ी गर्मी थी। डैडी पहाड़ पर थे। मम्मी सैर करने गई हुई थीं... पसीने छूट रहे थे। उसने कमरे में दाख़िल होते ही अपना ब्लाउज़ उतारा और पंखे के नीचे खड़ी हो गई। उसके दूध उबले हुए थे जो आहिस्ता आहिस्ता ठंडे हो गए। उसके दूध ठंडे थे जो आहिस्ता-आहिस्ता उबलने लगे। आख़िर दोनों दूध हिल-हिल के गुनगुने हो गए और खट्टी लस्सी बन गए।

    उस सहेली का बैंड बज गया। मगर वो वर्दी वाले सिपाही फुंदने नचाते आए। उसकी जगह पीतल के बर्तन थे, छोटे और बड़े, जिनसे आवाज़ें निकलती थीं। गरजदार और धीमी... धीमी और गरजदार।

    ये सहेली जब फिर मिली तो उसने बताया कि वो बदल गई है। सचमुच बदल गई थी। उसके अब दो पेट थे। एक पुराना, दूसरा नया। एक के ऊपर दूसरा चढ़ा हुआ था। उसके दूध फटे हुए थे।

    फिर उसके भाई का बैंड बजा... अधेड़ उम्र की हट्टी-कट्टी मुलाज़िमा बहुत रोई। उसके भाई ने उसको बहुत दिलासा दिया। बेचारी को अपनी शादी याद गई थी।

    रात भर उसके भाई और उसकी दुल्हन की लड़ाई होती रही। वो रोती रही, वो हंसता रहा।सुबह हुई तो अधेड़ उम्र की हट्टी-कट्टी मुलाज़िमा उसके भाई को दिलासा देने के लिए अपने साथ ले गई। दुल्हन को नहलाया गया। उसकी शलवार में उसका लाल फुंदनों वाला इज़ारबंद पड़ा था। मालूम नहीं ये दुल्हन के गले में क्यों बांधा गया।

    उसकी आँखें बहुत मोटी थीं। अगर गला ज़ोर से घोंटा जाता तो वो ज़बह किए हुए बकरे की आँखों की तरह बाहर निकल आतीं और उसको बहुत तेज़ बुख़ार चढ़ता। मगर पहला तो अभी तक उतरा नहीं... हो सकता है उतर गया हो और ये नया बुख़ार हो जिसमें वो अभी तक बेहोश है।

    उसकी माँ मोटर ड्राइवरी सीख रही है। बाप होटल में रहता है, कभी कभी आता है और अपने लड़के से मिल कर चला जाता है। लड़का कभी कभी अपनी बीवी को घर बुला लेता है। अधेड़ उम्र की हट्टी कट्टी मुलाज़िमा को दो-तीन रोज़ के बाद कोई याद सताती है तो रोना शुरू कर देती है। वो उसे दिलासा देता है, वो उसे पुचकारती है और दुल्हन चली जाती है।

    अब वो और दुल्हन भाभी, दोनों सैर को जाती हैं। सहेली भी, पाकिस्तान मेल, मोटर नंबर 9612 पी एल, सैर करते करते अजंता जा निकलती हैं, जहां तस्वीरें बनाने का काम सिखाया जाता है। तस्वीरें देख कर तीनों तस्वीर बन जाते हैं। रंग ही रंग, लाल, पीले, हरे, नीले... सबके सब चीख़ने वाले हैं। उन को रंगों का ख़ालिक़ चुप कराता है। उसके लंबे लंबे बाल हैं।

    सर्दियों और गर्मियों में ओवर कोट पहनता है। अच्छी शक्ल-ओ-सूरत का है। अंदर बाहर हमेशा खड़ाऊं इस्तेमाल करता है... अपने रंगों को चुप कराने के बाद ख़ुद चीख़ना शुरू कर देता है। उसको ये तीनों चुप कराती हैं और बाद में ख़ुद चिल्लाने लगती हैं।

    तीनों अजंता में मुजर्रिद आर्ट के सैंकड़ों नमूने बनाती रहीं। एक की हर तस्वीर में औरत के दो पेट होते हैं। मुख़्तलिफ़ रंगों के। दूसरी की तस्वीरों में औरत अधेड़ उम्र की होती है, हट्टी-कट्टी। तीसरी की तस्वीरों में फुंदने, इज़ारबंदों का गुच्छा।

    मुजर्रिद तस्वीरें बनती रहीं। मगर तीनों के दूध सूखते रहे। बड़ी गर्मी थी, इतनी कि तीनों पसीने में शराबोर थीं। ख़स लगे कमरे के अंदर दाख़िल होते ही उन्होंने अपने ब्लाउज़ उतारे और पंखे के नीचे खड़ी हो गईं। पंखा चलता रहा। दूधों में ठंडक पैदा हुई गर्मी।

    उसकी मम्मी दूसरे कमरे में थी। ड्राइवर उसके बदन से मोबिल ऑयल पोंछ रहा था।

    डैडी होटल में था जहाँ उसकी लेडी स्टेनोग्राफर उसके माथे पर यू-डी क्लोन मल रही थी।

    एक दिन उसका भी बैंड बज गया। उजाड़ बाग़ फिर बारौनक़ हो गया। गमलों और दरवाज़ों की आराइश अजंता स्टूडियो के मालिक ने की थी। बड़ी बड़ी गहरी लिपस्टिकें उसके बिखरे हुए रंग देख कर उड़ गईं। एक जो ज़्यादा सियाही माइल थी, इतनी उड़ी कि वहीं गिर कर उसकी शागिर्द हो गई।

    उसके उरूसी लिबास का डिज़ाइन भी उसने तैयार किया था। उसने उसकी हज़ारों सम्तें पैदा कर दी थीं। ऐ’न सामने से देखो तो वो मुख़्तलिफ़ रंग के इज़ारबंदों का बंडल मालूम होती थी। ज़रा उधर हट जाओ तो फलों की टोकरी थी। एक तरफ़ हो जाओ तो खिड़की पर पड़ा हुआ फुलकारी का पर्दा। अ’क़ब में चले जाओ तो कुचले हुए तरबूज़ों का ढेर। ज़रा ज़ाविया बदल कर देखो टमाटो-सॉस से भरा हुआ मर्तबान... ऊपर से देखो तो यगाना आर्ट, नीचे से देखो तो मीरा जी की मुब्हम शायरी।

    फ़न शनास निगाहें अ’श अ’श कर उठीं। दूल्हा इस क़दर मुतअस्सिर हुआ था कि शादी के दूसरे रोज़ ही उसने तहय्या कर लिया कि वो भी मुजर्रिद आर्टिस्ट बन जाएगा। चुनांचे अपनी बीवी के साथ वो अजंता गया।

    जहाँ उन्हें मालूम हुआ कि उसकी शादी हो रही है और वो चंद रोज़ से अपनी होने वाली दुल्हन ही के पास रहता है।

    उसकी होने वाली दुल्हन वही गहरे रंग की लिपस्टिक थी जो दूसरी लिपस्टिकों के मुक़ाबले में ज़्यादा सियाही माइल थी। शुरू शुरू में चंद महीने तक उसके शौहर को उससे और मुजर्रिद आर्ट से दिलचस्पी रही, लेकिन जब अजंता स्टूडियो बंद हो गया और उसके मालिक की कहीं से भी सुन-गुन मिली तो उसने नमक का कारोबार शुरू कर दिया जो बहुत नफ़ा बख़्श था।

    इस कारोबार के दौरान में उसकी मुलाक़ात एक लड़की से हुई जिसके दूध सूखे हुए नहीं थे। ये उस को पसंद गई। बैंड बजा लेकिन शादी हो गई। पहली अपने ब्रश उठा कर ले गई और अलग रहने लगी।

    ये नाचाक़ी पहले तो दोनों के लिए तल्ख़ी का मुजिब हुई लेकिन बाद में एक अ’जीब-ओ-ग़रीब मिठास में तबदील हो गई। उसकी सहेली ने जो दूसरा शौहर तबदील करने के बाद सारे यूरोप का चक्कर लगा कर आई थी और अब दिक़ की मरीज़ थी, उस मिठास को क्यूबिक आर्ट में पेंट किया। साफ़ शफ़्फ़ाफ़ चीनी के बेशुमार क्यूब थे जो थूहर के पौदों के दरमियान इस अंदाज़ से ऊपर तले रखे थे कि उनसे दो शक्लें बन गईं थी। उस पर शहद की मक्खियाँ बैठी रस चूस रही थीं।

    उसकी दूसरी सहेली ने ज़हर खा कर ख़ुदकुशी कर ली। जब उसको ये अल्मनाक ख़बर मिली तो वो बेहोश हो गई। मालूम नहीं बेहोशी नई थी या वही पुरानी जो बड़े तेज़ बुख़ार के बाद ज़हूर में आई थी।

    उसका बाप यू-डी क्लोन में था। जहाँ उसका होटल उसकी लेडी स्टेनोग्राफर का सर सहलाता था। उस की मम्मी ने घर का सारा हिसाब-किताब अधेड़ उम्र की हट्टी-कट्टी मुलाज़िमा के हवाले कर दिया था। अब उसको ड्राइविंग गई थी मगर बहुत बीमार हो गई थी। मगर फिर भी उसको ड्राइवर के बिन माँ के पिल्ले का बहुत ख़याल था। वो उसको अपना मोबिल ऑयल पिलाती थी।

    उसकी भाभी और उसके भाई की ज़िंदगी बहुत अधेड़ और हट्टी-कट्टी हो गई थी। दोनों आपस में बड़े प्यार से मिलते थे कि अचानक एक रात जब कि मुलाज़िमा और उसका भाई घर का हिसाब किताब कर रहे थे, उसकी भाभी नुमूदार हुई, वो मुजर्रिद थी... उसके हाथ में क़लम था ब्रश लेकिन उसने दोनों का हिसाब साफ़ कर दिया।

    सुबह कमरे में से जमे हुए लहू के दो बड़े बड़े फुंदने निकले जो उसकी भाभी के गले में लगा दिए गए।

    अब वो क़दरे होश में आई। ख़ाविंद से नाचाक़ी के बाइ’स उसकी ज़िंदगी तल्ख़ हो कर बाद में अ’जीब-ओ-ग़रीब मिठास में तबदील हो गई थी। उसने उसको थोड़ा सा तल्ख़ बनाने की कोशिश की और शराब पीना शुरू की, मगर नाकाम रही। इसलिए कि मिक़दार कम थी।

    उसने मिक़दार बढ़ा दी हत्ता कि वो उसमें डुबकियाँ लेने लगी। लोग समझते थे कि अब ग़र्क़ हुई मगर वो सतह पर उभर आती थी। मुँह से शराब पोंछती हुई और क़हक़हे लगाती हुई।

    सुबह को जब उठती तो उसे महसूस होता कि रात भर उसके जिस्म का ज़र्रा-ज़र्रा धाड़ें मार-मार कर रोता रहा है। उसके वो सब बच्चे जो पैदा हो सकते थे, उन क़ब्रों में जो उनके लिए बन सकती थीं, उस दूध के लिए जो उनका हो सकता था, बिलक-बिलक कर रो रहे हैं। मगर उसके दूध कहाँ थे... वो तो जंगली बिल्ले पी चुके थे।

    वो ज़्यादा पीती कि अथाह समुंदर में डूब जाये मगर उसकी ख़्वाहिश पूरी नहीं हुई। ज़हीन थी, पढ़ी- लिखी थी। जिन्सी मौज़ूआ’त पर बगै़र किसी तसन्नो के बेतकल्लुफ़ गुफ़्तुगू करती थी। मर्दों के साथ जिस्मानी रिश्ता क़ाएम करने में कोई मुज़ाएक़ा नहीं समझती थी, मगर फिर भी कभी-कभी रात की तन्हाई में उसका जी चाहता था कि अपनी किसी बदआदत मुर्ग़ी की तरह झाड़ियों के पीछे जाये और एक अंडा दे आए।

    बिल्कुल खोखली हो गई। सिर्फ़ हड्डियों का ढांचा बाक़ी रह गया तो उससे लोग दूर रहने लगे। वो समझ गई, चुनांचे वो उनके पीछे भागी और अकेली घर में रहने लगी। सिगरेट पर सिगरेट फूंकती, शराब पीती और जाने क्या सोचती रहती। रात को बहुत कम सोती थी। कोठी के इर्द-गिर्द घूमती रहती थी।

    सामने क्वार्टर में ड्राइवर का बिन माँ का बच्चा मोबिल ऑयल के लिए रोता रहता था मगर उसकी माँ के पास ख़त्म हो गया था। ड्राइवर ने ऐक्सीडेंट कर दिया था।

    मोटर गैराज में और उसकी माँ हस्पताल में पड़ी थी। जहां उसकी एक टांग काटी जा चुकी थी, दूसरी काटी जाने वाली थी।

    वो कभी कभी क्वार्टर के अंदर झांक कर देखती तो उसको महसूस होता कि उसके दूधों की तलछट में हल्की सी लरज़िश पैदा हुई है, मगर इस बद ज़ाएक़ा से तो उसके बच्चे के होंट भी तर होते।

    उसके भाई ने कुछ अ’र्से से बाहर रहना शुरू कर दिया था। आख़िर एक दिन उसका ख़त स्वीटज़रलैंड से आया कि वो वहाँ अपना इलाज करा रहा है, नर्स बहुत अच्छी है। हस्पताल से निकलते ही वो उस से शादी करने वाला है।

    अधेड़ उम्र की हट्टी-कट्टी मुलाज़िमा ने थोड़ा ज़ेवर, कुछ नक़्दी और बहुत से कपड़े जो उसकी मम्मी के थे, चुराए और चंद रोज़ के बाद ग़ायब हो गई। इसके बाद उसकी माँ ऑप्रेशन नाकाम होने के बाइ’स हस्पताल में मर गई।

    उसका बाप जनाज़े में शामिल हुआ। इसके बाद उसने उसकी सूरत देखी।

    अब वो बिल्कुल तन्हा थी। जितने नौकर थे, उसने अलाहिदा कर दिए, ड्राइवर समेत। उसके बच्चे के लिए उसने एक आया रख दी... कोई बोझ सिवाए उसके ख़यालों के बाक़ी रहा था। कभी-कभार अगर कोई उससे मिलने आता तो वो अंदर से चिल्ला उठती थी, “चले जाओ... जो कोई भी तुम हो, चले जाओ, मैं किसी से मिलना नहीं चाहती।”

    सेफ में उसको अपनी माँ के बेशुमार क़ीमती जे़वरात मिले थे। उसके अपने भी थे जिनसे उनको कोई रग़्बत थी। मगर अब वो रात को घंटों आइने के सामने नंगी बैठ कर ये तमाम ज़ेवर अपने बदन पर सजाती और शराब पी कर कनसुरी आवाज़ में फ़हश गाने गाती थी। आसपास और कोई कोठी नहीं थी इसलिए उसे मुकम्मल आज़ादी थी।

    अपने जिस्म को तो वो कई तरीक़ों से नंगा कर चुकी थी। अब वो चाहती थी कि अपनी रूह को भी नंगा कर दे। मगर उसमें वो ज़बरदस्त हिजाब महसूस करती थी। उस हिजाब को दबाने के लिए सिर्फ़ एक ही तरीक़ा उसकी समझ में आया था कि पिए और ख़ूब पिए और इस हालत में अपने नंगे बदन से मदद ले, मगर ये एक बहुत बड़ा अल्मिया था कि वो आख़िरी हद तक नंगा हो कर सतर-पोश हो गया था।

    तस्वीरें बना बना कर वो दिखा चुकी थी। एक अ’र्से से उसका पेंटिंग का सामान संदूक़चे में बंद पड़ा था लेकिन एक दिन उसने सब रंग निकाले और बड़े बड़े प्यालों में घोले। तमाम ब्रश धो-धा कर एक तरफ़ रखे और आइने के सामने नंगी खड़ी हो गई और अपने जिस्म पर नए नए ख़द-ओ-ख़ाल बनाने शुरू किए। उसकी ये कोशिश अपने वजूद को मुकम्मल तौर पर उर्यां करने की थी।

    वो अपना सामने का हिस्सा ही पेंट कर सकती थी। दिन भर वो इसमें मसरूफ़ रही। बिन खाए पिए, आइने के सामने खड़ी अपने बदन पर मुख़्तलिफ़ रंग जमाती और टेढ़े बंगे ख़ुतूत बनाती रही। उसके ब्रश में ए’तिमाद था।

    आधी रात के क़रीब उसने दूर हट कर अपना बग़ौर जाइज़ा लेकर इत्मिनान का सांस लिया। इसके बाद उसने तमाम ज़ेवरात एक एक करके अपने रंगों से लिथड़े हुए जिस्म पर सजाए और आइने में एक बार फिर ग़ौर से देखा कि एक दम आहट हुई।

    उसने पलट कर देखा। एक आदमी छुरा हाथ में लिए, मुँह पर ढाटा बांधे खड़ा था जैसे हमला करना चाहता है। मगर जब वो मुड़ी तो हमला आवर के हलक़ से चीख़ बुलंद हुई। छुरा उसके हाथ से गिर पड़ा। अफ़रा-तफ़री के आलम में कभी इधर का रुख़ किया कभी उधर का। आख़िर जो रस्ता मिला, उसमें से भाग निकला।

    वो उसके पीछे भागी। चीख़ती, पुकारती, “ठहरो... ठहरो... मैं तुम से कुछ नहीं कहूँगी... ठहरो!”

    मगर चोर ने उसकी एक सुनी और दीवार फांद कर ग़ायब हो गया। मायूस हो कर वापस आई। दरवाज़े की दहलीज़ के पास चोर का ख़ंजर पड़ा था। उसने उठा लिया और अन्दर चली गई।

    अचानक उसकी नज़रें आईने से दो चार हुईं, जहाँ उसका दिल था, वहाँ उसने मियान नुमा चमड़े के रंग का खोल सा बनाया हुआ था। उसने उस पर ख़ंजर रख कर देखा। खोल बहुत छोटा था। उसने ख़ंजर फेंक दिया और बोतल में से शराब के चार पाँच बड़े बड़े घूँट पी कर उधर टहलने लगी।वो कई बोतलें ख़ाली कर चुकी थी। खाया कुछ भी नहीं था।

    देर तक टहलने के बाद वो फिर आईने के सामने आई। उसके गले में इज़ारबंद नुमा गुलूबंद था जिस के बड़े बड़े फुंदने थे। ये उसने ब्रश से बनाया था।

    दफ़अ’तन उसको ऐसा महसूस हुआ कि ये गुलूबंद तंग होने लगा है। आहिस्ता-आहिस्ता वो उसके गले के अंदर धंसता जा रहा है। वो ख़ामोश खड़ी आईने में आँखें गाड़े रही जो उसी रफ़्तार से बाहर निकल रही थीं। थोड़ी देर के बाद उसके चेहरे की तमाम रगें फूलने लगीं। फिर एक दम से उसने चीख़ मारी और औंधे मुँह फ़र्श पर गिर पड़ी।

    स्रोत:

    پھند نے

      • प्रकाशन वर्ष: 1954

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