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दो बहनें

प्रेमचंद

दो बहनें

प्रेमचंद

MORE BYप्रेमचंद

    दो बहनें दो साल बाद एक तीसरे अज़ीज़ के घर मिलीं और ख़ूब रो धोकर ख़ामोश हुईं तो बड़ी बहन रूप कुमारी ने देखा कि छोटी बहन राम दुलारी सर से पांव तक गहनों से लदी हुई है। कुछ उसका रंग खिल गया। मिज़ाज में कुछ तमकनत आगई है और बातचीत करने में कुछ ज़्यादा मुश्ताक़ हो गई है। बेशक़ीमत साड़ी और बेलदार उन्नाबी मख़मल के जंपर ने उसके हुस्न को और भी चमका दिया है। वही राम दुलारी जो लड़कपन में सर के बाल खोले फूहड़ सी इधर उधर खेला करती थी। आख़िरी बार रूप कुमारी ने उसे उसकी शादी में देखा था दो साल क़ब्ल तक भी उसकी शक्ल सूरत में कुछ ज़्यादा तग़य्युर हुआ था। लंबी तो हो गई थी मगर थी उतनी ही दुबली। उतनी ही ज़र्द रु उतनी ही बदतमीज़, ज़रा-ज़रा सी बात पर रूठने वाली। मगर आज तो कुछ हालत ही और थी। जैसे कली खिल गई हो। और हुस्न उसने कहाँ छिपा रखा था, नहीं नज़रों को धोका हो रहा है। ये हुस्न नहीं महज़ दीदा ज़ेबी है। रेशम मख़मल और सोने की बदौलत नक़्शा थोड़ा ही बदल जाएगा। फिर भी वो आँखों में समाई जाती है। पचासों औरतें जमा हैं। मगर ये सह्र, ये कशिश और किसी में नहीं। और उसके दिल में हसद का एक शोला सा दहक उठा।

    कहीं आईना मिलता तो वो ज़रा अपनी सूरत भी देखती। घर से चलते वक़्त उसने अपनी सूरत देखी थी। उसे चमकाने के लिए जितना सैक़ल कर सकती थी वो किया था लेकिन अब वो सूरत जैसे याददाश्त से मिट गई है। उसकी महज़ एक धुँदली सी परछाईं ज़ह्न में है उसे फिर से देखने के लिए वो बेक़रार हो रही है। यूं तो उसके साथ मेक-अप के लवाज़मात के साथ आईना भी है लेकिन मजमें में वो आईना देखने या बनाव सिंघार करने की आदी नहीं है। ये औरतें दिल में ख़ुदा जाने क्या समझें। यहां कोई आईना तो होगा ही।

    ड्राइंगरूम में तो ज़रूर होगा। वो उठकर ड्राइंगरूम में गई और क़द-ए-आदम शीशा में अपनी सूरत देखी, उसके ख़द्द-ओ-ख़ाल बे ऐब हैं। मगर वो ताज़गी वो शगुफ़्तगी वो नज़र फ़रेबी नहीं है। राम दुलारी आज खुली है और उसे खुले हुए ज़माना हो गया लेकिन इस ख़याल से उसे तस्कीन नहीं हुई। वो राम दुलारी से हेटी बन कर नहीं रह सकती। ये मर्द भी कितने अहमक़ होते हैं किसी में असली हुस्न की परख नहीं। उन्हें तो जवानी ,शोख़ी और नफ़ासत चाहिए। आँखें रखकर भी अंधे बनते हैं। मेरे कपड़ों में राम दुलारी को खड़ा कर दो। फिर देखो। ये सारा जादू कहाँ उड़गया है। चुड़ैल सी नज़र आए। इन अहमक़ों को कौन समझाए।

    राम दुलारी के घर वाले तो इतने ख़ुशहाल थे। शादी में जो जोड़े और ज़ेवर आए थे वो बहुत ही दिल-शिकन थे। इमारत का कोई दूसरा सामान ही था। उसके सुसर एक रियासत के मुख़्तार-ए-आम थे और शौहर कॉलेज में पढ़ता था। इस दो साल में कैसे हुन बरस गया। कौन जाने ज़ेवर किसी से मांग कर लाई हो। कपड़े भी दो-चार दिन के लिए मांग लिए हों। उसे ये स्वाँग मुबारक रहे। मैं जैसी हूँ वैसी ही अच्छी हूँ। अपनी हैसियत को बढ़ा कर दिखाने का मर्ज़ कितना बढ़ता जाता है। घर में रोटियों का ठिकाना नहीं है। लेकिन इस तरह बन-ठन कर निकलेंगी गोया कहीं कि राजकुमारी हैं। बिसातियों के दर्ज़ियों के और बज़्ज़ाज़ के तक़ाज़े सहेंगी शौहर की घुड़कियां खाएँगी, रोएँगी, रूठेंगी। मगर नुमाइश के जुनून को नहीं रोक सकीं। घर वाले भी सोचते होंगे कितनी छिछोरी तबीयत है इसकी मगर यहां तो बे-हयाई पर कमर बांध ली। कोई कितना ही हँसे बे-हया की बला दूर। बस यही धुन सवार है कि जिधर से निकल जाएं उधर उसकी ख़ूब तारीफ़ें की जाएं। राम दुलारी ने ज़रूर किसी से ज़ेवर और कपड़े मांग लिए हैं। बेशर्म जो है। उसके चेहरे पर ग़ुरूर की सुर्ख़ी झलक पड़ी। ना सही उस के पास ज़ेवर और कपड़े किसी के सामने शर्मिंदा तो नहीं होना पड़ता। एक एक लाख के तो उसके दो लड़के हैं। भगवान उन्हें ज़िंदा सलामत रखे। वो इसी में ख़ुश है। ख़ुद अच्छा पहन लेने और अच्छा खा लेने ही से तो ज़िंदगी का मक़सद पूरा नहीं हो जाता। उसके घर वाले ग़रीब हैं पर इज़्ज़त तो है किसी का गला तो नहीं दबाते। किसी की बद-दुआ तो नहीं लेते।

    इस तरह अपना दिल मज़बूत करके वो फिर बरामदे में आई तो राम दुलारी ने जैसे रहम की आँखों से देखकर कहा,

    जीजा जी की कुछ तरक़्क़ी वरक़्क़ी हुई कि नहीं बहन, या अभी तक वही पछत्तर पर क़लम घिस रहे हैं।

    रूप कुमारी के बदन में आग सी लग गई। ओफ़्फ़ोह रे दिमाग़। गोया उसका शौहर लाट ही तो है। अकड़कर बोली, तरक़्क़ी क्यों नहीं हुई। अब सौ के ग्रेड में हैं। आजकल ये भी ग़नीमत है। मैं तो अच्छे अच्छे एम.ए. पासों को देखती हूँ कि कोई टके को नहीं पूछता। तेरा शौहर अब बी.ए. में होगा।

    उन्होंने तो पढ़ना छोड़ दिया है। बहन! पढ़ कर औक़ात ख़राब करना था और क्या एक कंपनी के एजेंट हो गए हैं। अब ढाई सौ रुपया माहवार कमाते हैं। कमीशन ऊपर से। पाँच सौ रुपया रोज़ सफ़र ख़र्च के भी मिलते हैं। ये समझ लो पाँच सौ का औसत पड़ जाता है। डेढ़ सौ रुपया माहवार तो उनका ज़ाती ख़र्च है। बहन! ऊंचे ओहदे पर हैं तो अच्छी हैसियत भी बनाए रखनी लाज़िम है। साढे़ तीन सौ रुपया बेदाग़ घर दे देते हैं। उसमें सौ रुपये मुझे मिलते हैं। ढाई सौ में घर का ख़र्च ख़ुशफ़ेली से चल जाता है। एम.ए. पास करके क्या करते।

    रूप कुमारी उसे शैख़ चिल्ली की दास्तान से ज़्यादा वक़त नहीं देना चाहती थी। मगर राम दुलारी के लहजे में इतनी सदाक़त है कि तहतुश-शुऊर में उससे मुतास्सिर हो रही है और उसके चेहरे पर ख़िफ़्फ़त शिकस्त की बदमज़गी साफ़ झलक रही है। मगर उसे अपने होशो-हवास को क़ायम रखना है। तो इस असर को दिल से मिटा देना पड़ेगा। उसे जिरहों से अपने दिल को यक़ीन करा देना पड़ेगा कि इसमें एक चौथाई से ज़्यादा हक़ीक़त नहीं है। वहां तक वो बर्दाश्त करेगी। इससे ज़्यादा कैसे बर्दाश्त कर सकती है। इसके साथ ही उसके दिल में धड़कन भी है कि अगर ये रूदाद सच निकली तो वो कैसे राम दुलारी को मुँह दिखा सकेगी। उसे अंदेशा है कि कहीं उसकी आँखों से आँसू निकल पड़ें। कहाँ पछत्तर और कहाँ पाँच सौ, इतनी रक़म ज़मीर का ख़ून करके भी क्यों मिले। फिर भी रूप कुमारी उसकी मुतहम्मिल नहीं हो सकती। ज़मीर की क़ीमत ज़्यादा से ज़्यादा सौ रुपये हो सकती है पाँच सौ किसी हालत में नहीं।

    उसने तम्सख़्ख़ुर के अंदाज़ से पूछा, जब एजेंटी में इतनी तनख़्वाह और भत्ते मिलते हैं तो कॉलेज बंद क्यों नहीं हो जाते? हज़ारों लड़के क्यों अपनी ज़िंदगी ख़राब करते हैं।

    राम दुलारी बहन की ख़िफ़्फ़त का मज़ा उठाती हुई बोली, बहन तुम यहां ग़लती कर रही हो, एम.ए. तो सब ही पास हो सकते हैं। मगर एजेंटी करनी किसको आती है। ये ख़ुदादाद मलिका है। कोई ज़िंदगी भर पढ़ता रहे, मगर ज़रूरी नहीं कि वो अच्छा एजेंट हो जाए, रुपया पैदा करना दूसरी चीज़ है इल्मी फ़ज़ीलत हासिल करना दूसरी चीज़ है, अपने माल की ख़ूबी का यक़ीन पैदा कर देना या ज़ेह्न नशीन करा देना कि इससे अरज़ाँ और देरपा चीज़ बाज़ार में मिल ही नहीं सकती, आसान काम नहीं है। एक से एक ग्राहकों से उनका साबिक़ा पड़ता है। बड़े बड़े राजाओं और रईसों की तालीफ़ क़ल्ब करनी पड़ती है औरों की तो उन राजाओं और नवाबों के सामने जाने की हिम्मत भी पड़े और किसी तरह पहुंच जाएं तो ज़बान निकले। शुरू शुरू में उन्हें भी झिझक हुई थी। मगर अब तो इस दरिया के मगर हैं। अगले साल तरक़्क़ी होने वाली है।

    रूप कुमारी की रगों में जैसे ख़ून की हरकत बंद हुई जा रही है। ज़ालिम आसमान क्यों नहीं गिर पड़ता। बेरहम ज़मीन क्यों नहीं फट जाती। ये कहाँ का इन्साफ़ है कि रूप कुमारी जो हसीन है तमीज़दार है किफ़ायत शिआर है अपने शौहर पर जान देती है, बच्चों को ये जान से अज़ीज़ समझती है उसकी ख़स्ता-हाली में बसर हो और ये बदतमीज़, तनपरवर चंचल छोकरी रानी बन जाये। मगर अब भी कुछ उम्मीद बाक़ी थी। शायद उसकी तस्कीन-ए-क़ल्ब का कोई रास्ता निकल आए।

    उसी तम्सख़ुर के अंदाज़ से बोली, तब तो शायद एक हज़ार मिलने लगें।

    एक हज़ार तो नहीं मगर छः सौ में शुब्हा नहीं।

    कोई आँख का अंधा