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शादाँ

MORE BYसआदत हसन मंटो

    स्टोरीलाइन

    यह कहानी अमीर घरों के मर्दों द्वारा उनके यहाँ काम करने वाली ग़रीब, पीड़ित और कमसिन लड़कियों के यौन शोषण पर आधारित है। ख़ान बहादुर मोहम्मद अस्लम ख़ान बहुत संतुष्ट और ख़ुशहाल ज़िंदगी गुज़ार रहे थे। उनके तीन बच्चे थे, जो स्कूल के बाद सारा दिन घर में शोर-गु़ल मचाते रहते थे। उन्हीं दिनों एक ईसाई लड़की शादां उनके घर में काम करने आने लगी। वह भी बच्ची थी, पर अचानक ही उसमें जवानी के रंग-ढंग दिखने लगे। फिर एक रोज़ ख़ान साहब को शादां के बलात्कार के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया। शादां तो उसी रोज़ मर गई थी और ख़ान साहब भी सबूतों के अभाव में बरी हो गए थे।

    ख़ान बहादुर मोहम्मद असलम ख़ान के घर में ख़ुशियां खेलती थीं, और सही मा’नों में खेलती थीं। उनकी दो लड़कियां थीं, एक लड़का। अगर बड़ी लड़की की उम्र तेरह बरस की होगी तो छोटी की यही ग्यारह साढ़े ग्यारह और जो लड़का था गो सबसे छोटा मगर क़द काठ के लिहाज़ से वो अपनी बड़ी बहनों के बराबर मालूम होता था।

    तीनों की उम्र जैसा कि ज़ाहिर है उस दौर से गुज़र रही थी जब कि हर आस पास की चीज़ खिलौना मालूम होती है। हादसे भी यूं आते हैं, जैसे रबड़ के उड़ते हुए गुब्बारे। उनसे भी खेलने को जी चाहता है।

    ख़ान बहादुर मोहम्मद असलम का घर ख़ुशियों का घर था। उसमें सब से बड़ी तीन ख़ुशियां, उसकी औलाद थीं, फ़रीदा, सईदा और नजीब। ये तीनों स्कूल जाते थे, जैसे खेल के मैदान में जाते हैं। हंसी ख़ुशी जाते थे, हंसी ख़ुशी वापस आते थे और इम्तहान यूं पास करते थे जैसे खेल में कोई एक दूसरे से बाज़ी ले जाये। कभी फ़रीदा फ़र्स्ट आती थी, कभी नजीब और कभी सईदा।

    ख़ान बहादुर मोहम्मद असलम बच्चों से मुतमइन, रिटायर्ड ज़िंदगी बसर कर रहे थे। उन्होंने महकमा-ए-ज़राअत में बत्तीस बरस नौकरी की थी। मामूली ओ’हदा से बढ़ते बढ़ते वो बलंद-तरीन मक़ाम पर पहुंच गए। इस दौरान में उन्होंने बड़ी मेहनत की थी, दिन-रात दफ़्तरी काम किए थे, अब वो सुस्ता रहे थे। अपने कमरे में किताबें ले कर पड़े रहते और उनके मुताले में मसरूफ़ रहते। फ़रीदा, सईदा और नजीब कभी कभी माँ का कोई पैग़ाम ले कर आते तो वो उसका जवाब भिजवा देते।

    रिटायर होने के बाद उन्होंने अपना बिस्तर वहीं अपने कमरे में लगा लिया था। दिन की तरह उनकी रात भी यहीं गुज़रती थी। दुनिया के झगड़े टंटों से बिल्कुल अलग। कभी कभी उनकी बीवी जो अधेड़ उम्र की औरत थी उनके पास जाती और चाहती कि वो उससे दो घड़ी बातें करें, मगर वो जल्द ही उसे किसी बहाने से टाल देते।

    ये बहाना आम तौर पर फ़रीदा और सईदा के जहेज़ के मुतअ’ल्लिक़ होता, “जाओ, ये उम्र चोंचले बघारने की नहीं, घर में दो जवान बेटियां हैं, उनके दान दहेज की फ़िक्र करो... सोना दिन बदिन महंगा हो रहा है। दस-बीस तोले ख़रीद कर क्यों नहीं रख लेतीं। वक़्त आएगा तो फिर चीख़ोगी कि हाय अल्लाह, ख़ाली ज़ेवरों पर इतना रुपया उठ रहा है।”

    या फिर वो कभी उस से ये कहते, “फ़र्ख़ंदा ख़ानम मेरी जान, हम बढ्ढे हो चुके हैं... तुम्हें अब मेरी फ़िक्र और मुझे तुम्हारी फ़िक्र एक बच्चे की तरह करनी चाहिए। मेरी सारी पगड़ियां लीर लीर हो चुकी हैं मगर तुम्हें इतनी तौफ़ीक़ नहीं होती कि मलमल के दो थान ही मंगवा लो, दो नहीं चार... तुम्हारे और बच्चियों के दुपट्टे भी बन जाऐंगे। मेरी समझ में नहीं आता कि तुम क्या चाहती हो? और हाँ वो मेरी मिस्वाकें ख़त्म हो गई हैं।”

    फ़र्ख़ंदा, ख़ान बहादुर के पलंग पर बैठ जाती और बड़े प्यार से कहती, “सारी दुनिया ब्रश इस्तेमाल करती है। आप अभी तक पुरानी लकीर के फ़क़ीर बने हैं।”

    ख़ान बहादुर के लहजे में नरमी जाती, “नहीं फ़र्ख़ंदा जान, ये ब्रश और टूथ पेस्ट सब वाहियात चीज़ें हैं।”

    फ़र्ख़ंदा के अधेड़ चेहरे पर लकीरों की कौड़ियां और मौलियां सी बिखर जातीं... मगर सिर्फ़ एक लहज़े के लिए। ख़ान बहादुर उसकी तरफ़ देखते और बाहर सहन में बच्चों की खेल कूद का शोर-ओ-गुल सुनते हुए कहते, “फ़र्ख़ंदा, तो कल मलमल के थान जाऐं... और लट्ठे के भी।” लेकिन फ़ौरन ही मालूम नहीं क्यों उनके बदन पर झुरझुरी सी दौड़ जाती और वो फ़र्ख़ंदा को मना कर देते, “नहीं नहीं, लट्ठा मंगवाने की अभी ज़रूरत नहीं!”

    बाहर सहन में बच्चे खेल कूद में मसरूफ़ होते। सहपहर को शादां उमूमन उनके साथ होती। ये गो नई नई आई थी, लेकिन उनमें फ़ौरन ही घुल मिल गई थी। सईदा और फ़रीदा तो उसके इंतिज़ार में रहती थीं कि वो कब आए और सब मिल कर ‘लकिन मीटी’ या ‘खद्दु’ खेलें।

    शादां के माँ बाप ईसाई थे, मगर जब से शादां ख़ान बहादुर के घर में दाख़िल हुई थी, फ़रीदा की माँ ने उसका असली नाम बदल कर शादां रख दिया था। इसलिए कि वो बड़ी हँसमुख लड़की थी और उसकी बच्चियां उससे प्यार करने लगी थीं।

    शादां सुबह सवेरे आती तो फ़रीदा, सईदा और नजीब स्कूल जाने की तैयारियों में मसरूफ़ होते। वो उससे बातें करना चाहते मगर माँ उनसे कहती, “बच्चो, जल्दी करो... स्कूल का वक़्त हो रहा है।”

    और बच्चे जल्दी जल्दी तैयारी से फ़ारिग़ हो कर शादां को सलाम कहते हुए स्कूल चले जाते।

    सहपहर के क़रीब शादां जल्दी जल्दी मोहल्ले के दूसरे कामों से फ़ारिग़ हो कर जाती और फ़रीदा, सईदा और नजीब खेल में मशग़ूल हो जाते और इतना शोर मचता कि बा’ज़ औक़ात ख़ान बहादुर को अपने कमरे से नौकर के ज़रिये से कहलवाना पड़ता कि शोर ज़रा कम किया जाये। ये हुक्म सुन कर शादां सहम कर अलग हो जाती, मगर सईदा और फ़रीदा उससे कहतीं, “कोई बात नहीं शादां, हम इस से भी ज़्यादा शोर मचाएं तो वो अब कुछ नहीं कहेंगे। एक से ज़्यादा बार वो कोई बात नहीं कहा करते।”

    और खेल फिर शुरू हो जाता। कभी लकिन मीटी, कभी खद्दु और कभी लूडो।

    लूडो, शादां को बहुत पसंद थी, इसलिए कि ये खेल उसके लिए नया था। चुनांचे जब से नजीब लूडो लाया था, शादां उसी खेल पर मुसिर होती। मगर फ़रीदा, सईदा और नजीब तीनों को ये पसंद नहीं था। इसलिए कि इसमें कोई हंगामा बरपा नहीं होता। बस वो जो ‘चट्टू’ सा होता है, उसमें पाँसा हिलाते और फेंकते रहो और अपनी गोटीं आगे पीछे करते रहो।

    शादां खुली खुली रंगत की दरमियाने क़द की लड़की थी। उसकी उम्र फ़रीदा जितनी होगी मगर उस में जवानी ज़्यादा नुमायां थी, जैसे ख़ुद जवानी ने अपनी शोख़ियों पर लाल पेंसिल के निशान लगा दिए हैं... महज़ शरारत के लिए। वर्ना फ़रीदा और सईदा में वो तमाम रंग, वो तमाम लकीरें, वो तमाम कौसें मौजूद थीं जो इस उम्र की लड़कियों में होती हैं। लेकिन फ़रीदा, सईदा और शादां जब पास खड़ी होतीं तो शादां की जवानी ज़ेर-ए-लब कुछ गुनगुनाती मालूम होती।

    खुली खुली रंगत, परेशान बाल और धड़कता हुआ दुपट्टा जो कस कर उसने अपने सीने और कमर के इर्द-गिर्द बांधा होता। ऐसी नाक, जिसके नथुने गोया हवा में अंजानी ख़ुशबू में ढ़ूढ़ने के लिए काँप रहे हैं। कान ऐसे जो ज़रा सी आहट पर चौंक कर सुनने के लिए तैयार हों।

    चेहरे के ख़द्द-ओ-ख़ाल में कोई ख़ूबी नहीं थी। अगर कोई ऐ’ब गिनने लगता तो बड़ी आसानी से गिन सकता था, सिर्फ़ उसी सूरत में अगर उसका चेहरा उसके जिस्म से अलग कर के रख दिया जाता, मगर ऐसा किया जाना नामुमकिन था, इसलिए कि उसके चेहरे और उसके बक़ाया जिस्म का चोली दामन का साथ था। जिस तरह चोली अ’लाहिदा करने पर जिस्म के आसार उसमें बाक़ी रह जाते हैं, उसी तरह उसके चेहरे पर भी रह जाते और उसको फिर उसकी सालमियत ही में देखना पड़ता।

    शादां बेहद फुर्तीली थी। सुबह आती और यूं मिंटा मिंटी में अपना काम ख़त्म कर के ये जा वो जा। सहपहर को आती, घंटा डेढ़ घंटा खेल कूद में मसरूफ़ रहती। जब ख़ान बहादुर की बीवी आख़िरी बार चिल्ला कर कहती, “शादां, अब ख़ुदा के लिए काम तो करो।” तो वो वहीं खेल बंद कर के अपने काम में मशग़ूल हो जाती। टोकरा उठाती और दो दो ज़ीने एक जस्त में तय करती कोठे पर पहुंच जाती। वहां से फ़ारिग़ हो कर धड़ धड़ धड़ नीचे उतरती और सहन में झाड़ू शुरू कर देती।

    उसके हाथ में फुर्ती और सफ़ाई दोनों चीज़ें थीं। ख़ान बहादुर और उसकी बीवी फ़र्ख़ंदा को सफ़ाई का बहुत ख़याल था, लेकिन मजाल है जो शादां ने कभी उनको शिकायत का मौक़ा दिया हो। यही वजह है कि वो उसके खेल कूद पर मो’तरिज़ नहीं होते थे। यूं भी वो उसको प्यार की नज़रों से देखते थे। रौशन ख़याल थे, इसलिए छूतछात उनके नज़दीक बिल्कुल फ़ुज़ूल थी।

    शुरू शुरू में तो ख़ान बहादुर की बीवी ने इतनी इजाज़त दी थी कि लकिन मीटी में अगर कोई शादां को छुए तो लकड़ी इस्तेमाल करे और अगर वो छुए तो भी लकड़ी का कोई टुकड़ा इस्तेमाल करे, लेकिन कुछ देर के बाद ये शर्त हटा दी गई और शादां से कहा गया कि वो आते ही साबुन से अपना हाथ मुँह धो लिया करे।

    जब शादां की माँ कमाने के लिए आती थी तो ख़ान बहादुर अपने कमरे की किसी चीज़ से उसको छूने नहीं देते थे, मगर शादां को इजाज़त थी कि वो सफ़ाई के वक़्त चीज़ों की झाड़ पोंछ भी कर सकती है।

    सुबह सब से पहले शादां, ख़ान बहादुर के कमरे की सफ़ाई करती थी। वो अख़बार पढ़ने में मशग़ूल होते। शादां हाथ में ब्रश लिए आती तो उनसे कहती, “ख़ान बहादुर साहब, ज़रा बरामदे में चले जाईए!”

    ख़ान बहादुर अख़बार से नज़रें हटा कर उसकी तरफ़ देखते, शादां फ़ौरन उनके पलंग के नीचे से उन के स्लीपर उठा कर उनको पहना देती और वो बरामदे में चले जाते।

    जब कमरे की सफ़ाई और झाड़ पोंछ हो जाती तो शादां दरवाज़े की दहलीज़ के पास ही से कमर में ज़रा सा झांकने का ख़म पैदा करके ख़ान बहादुर को पुकारती, “आ जाईए, ख़ान बहादुर साहब।”

    ख़ान बहादुर साहब अख़बार और स्लीपर खड़खड़ाते अंदर जाते... और शादां दूसरे कामों में मशग़ूल हो जाती।

    शादां को काम पर लगे, दो महीने हो गए थे। ये गुज़रे तो ख़ान बहादुर की बीवी ने एक दिन यूं महसूस किया कि शादां में कुछ तबदीली गई है। उसने सरसरी ग़ौर किया तो यही बात ज़ेहन में आई कि महल्ले के किसी नौजवान से आँख लड़ गई होगी।

    अब वो ज़्यादा बन ठन के रहती थी। अगर वो पहले कोरी मलमल थी, तो अब ऐसा लगता था कि उसे कलफ़ लगा हुआ है, मगर ये कलफ़ भी कुछ ऐसा था जो मलमल के साथ उंगलियों में चुना नहीं गया था।

    शादाँ दिन-ब-दिन तबदील हो रही थी। पहले वो उतरन पहनती थी, पर अब उसके बदन पर नए जोड़े नज़र आते थे, बड़े अच्छे फ़ैशन के, बड़े उम्दा सिले हुए। एक दिन जब वो सफ़ेद लट्ठे की शलवार और फूलों वाली जॉर्जट की क़मीज़ पहन कर आई तो फ़रीदा को बारीक कपड़े के नीचे सफ़ेद सफ़ेद गोल चीज़ें नज़र आईं।

    लकिन मीटी हो रही थी। शादां ने दीवार के साथ मुँह लगा कर ज़ोर से अपनी आँखें मीची हुई थीं।

    फ़रीदा ने उसकी क़मीज़ के नीचे सफ़ेद सफ़ेद गोल चीज़ें देखी थीं, वो बौखलाई हुई थी। जब शादां ने पुकारा, “छुप गए?” तो फ़रीदा ने सईदा को बाज़ू से पकड़ा और घसीट कर एक कमरे में ले गई और धड़कते हुए दिल से उसके कान में कहा, “सईदा...तुमने देखा, उसने क्या पहना हुआ था?”

    सईदा ने पूछा, “किस ने?”

    फ़रीदा ने उसके कान ही में कहा, “शादां ने?”

    “क्या पहना हुआ था?”

    फ़रीदा की जवाबी सरगोशी सईदा के कान में ग़ड़ाप से ग़ोता लगा गई। जब उभरी तो सईदा ने अपने सीने पे हाथ रखा और एक भिंची भिंची हैरत की “मैं” उसके लबों से ख़ुद को घसीटती हुई बाहर निकली।

    दोनों बहनें कुछ देर खुसर फुसर करती रहीं, इतने में धमाका सा हुआ और शादां ने उनको ढूंढ लिया, इस पर सईदा और फ़रीदा की तरफ़ से क़ाइदे के मुताबिक़ चिख़म दहाड़ होना चाहिए थी मगर वो चुप रहीं। शादां की ख़ुशी की मज़ीद चीख़ें उसके हलक़ में रुक गईं।

    फ़रीदा और सईदा कमरे के अंधेरे कोने में कुछ सहमी सहमी खड़ी थीं, शादां भी क़दरे ख़ौफ़ज़दा हो गई। माहौल के मुताबिक़ उसने अपनी आवाज़ दबा कर उनसे पूछा, “क्या बात है?”

    फ़रीदा ने सईदा के कान में कुछ कहा, सईदा ने फ़रीदा के कान में।

    दोनों ने एक दूसरी को कोहनियों से टहोके दिए। आख़िर फ़रीदा ने काँपते हुए लहजे में शादां से कहा, “ये तुमने... ये तुमने क़मीज़ के नीचे क्या पहन रखा है!”

    शादां के हलक़ से हंसी के गोल गोल टुकड़े निकले।

    सईदा ने पूछा, “कहाँ से ली तू ने ये?”

    शादां ने जवाब दिया, “बाज़ार से?”

    फ़रीदा ने बड़े इश्तियाक़ से पूछा, “कितने में?”

    “दस रुपय में!”

    दोनों बहनें एक दम चिल्लाते चिल्लाते रुक गईं, “इतनी महंगी!”

    शादां ने सिर्फ़ इतना कहा, “क्या हम ग़रीब दिल को अच्छी लगने वाली चीज़ें नहीं ख़रीद सकते?”

    इस बात ने फ़ौरन ही सारी बात ख़त्म कर दी, थोड़ी देर ख़ामोशी रही इसके बाद फिर खेल शुरू हो गया।

    खेल जारी था, मगर कहाँ जारी था। ये ख़ान बहादुर की बीवी की समझ में नहीं आता था, अब तो शादां बढ़िया क़िस्म का तेल बालों में लगाती थी। पहले नंगे पांव होती थी, पर अब उसके पैरों में उस ने सैंडल देखे।

    खेल यक़ीनन जारी था... मगर ख़ान बहादुर की बीवी की समझ में ये बात नहीं आती थी कि अगर खेल जारी है तो उसकी आवाज़ शादां के जिस्म से क्यों नहीं आती। ऐसे खेल बे-आवाज़ और बे-निशान तो नहीं हुआ करते। ये कैसा खेल है जो सिर्फ़ कपड़े का ग़ज़ बना हुआ है।

    उसने कुछ देर इस मुआ’मले के बारे में सोचा, लेकिन फिर सोचा कि वो क्यों बेकार मग़्ज़-पाशी करे। ऐसी लड़कियां ख़राब हुआ ही करती हैं और कितनी दास्तानें हैं जो उनकी ख़राबियों से वाबस्ता हैं और शहर के गली कूचों में इन ही की तरह रुलती फिरती हैं।

    दिन गुज़रते रहे और खेल जारी रहा।

    फ़रीदा की एक सहेली की शादी थी। उसकी माँ ख़ान बहादुर की बीवी की मुँह बोली बहन थी। इस लिए सबकी शिरकत लाज़िमी थी। घर में सिर्फ़ ख़ान बहादुर थे, सर्दी का मौसम था। रात को ख़ान बहादुर की बीवी को मअ’न ख़याल आया कि अपनी गर्म शाल मंगवा ले। पहले तो उसने सोचा कि नौकर भेज दे मगर वो ऐसे संदूक़ में पड़ी थी जिसमें ज़ेवरात भी थे, इसलिए उसने नजीब को साथ लिया और अपने घर आई। रात के दस बजे चुके थे। उसका ख़याल था कि दरवाज़ा बंद होगा, चुनांचे उसने दस्तक दी। जब किसी ने खोला तो नजीब ने दरवाज़े को ज़रा सा धक्का दिया, वो खुल गया।

    अंदर दाख़िल हो कर उसने संदूक़ से शाल निकाली और नजीब से कहा, “जाओ, देखो तुम्हारे अब्बा क्या कर रहे हैं। उनसे कह देना कि तुम तो अभी थोड़ी देर के बाद लौट आओगे, लेकिन हम सब कल सुबह आयेंगे... जाओ बेटा!”

    संदूक़ में चीज़ें करीने से रख कर वो ताला लगा रही थी कि नजीब वापस आया और कहने लगा, “अब्बा जी तो अपने कमरे में नहीं हैं।”

    “अपने कमरे में नहीं हैं?... अपने कमरे में नहीं हैं तो कहाँ हैं?”

    ख़ान बहादुर की बीवी ने ताला बंद किया और चाबी अपने बैग में डाली, “तुम यहां खड़े रहो, मैं अभी आती हूँ!”

    ये कह कर वो अपने शौहर के कमरे में गई जो कि ख़ाली था मगर बत्ती जल रही थी। बिस्तर पर से चादर ग़ायब थी। फ़र्श धुला हुआ था... एक अ’जीब क़िस्म की बू कमरे में बसी हुई थी। ख़ान बहादुर की बीवी चकरा गई कि ये क्या मुआ’मला है? पलंग के नीचे झुक कर देखा, मगर वहां कोई भी नहीं था, लेकिन एक चीज़ थी। उसने रेंग कर उसे पकड़ा और बाहर निकल कर देखा, ख़ान बहादुर की मोटी मिस्वाक थी।

    इतने में आहट हुई। ख़ान बहादुर की बीवी ने मिस्वाक छुपा ली,. ख़ान बहादुर अंदर दाख़िल हुए और उनके साथ ही मिट्टी के तेल की बू। उनका रंग ज़र्द था, जैसे सारा लहू निचुड़ चुका है।

    काँपती हुई आवाज़ में ख़ान बहादुर ने अपनी बीवी से पूछा, “तुम यहां क्या कर रही हो?”

    “कुछ नहीं... शाल लेने आई थी। मैंने सोचा, आपको देखती चलूं।”

    “जाओ!”

    ख़ान बहादुर की बीवी चली गई... चंद क़दम सहन में चली होगी कि उसे दरवाज़ा बंद करने की आवाज़ आई। वो बहुत देर तक अपने कमरे में बैठी रही फिर नजीब को ले कर चली गई।

    दूसरे रोज़ फ़रीदा की सहेली के घर ख़ान बहादुर की बीवी को ये ख़बर मिली कि ख़ान बहादुर गिरफ़्तार हो गए हैं। जब उन्होंने पता लिया तो मालूम हुआ कि जुर्म बहुत संगीन है। शादां जब घर पहुंची तो लहूलुहान थी। वहां पहुंचते ही वो बेहोश हो गई। उसके माँ बाप उसे हस्पताल ले गए। पुलिस साथ थी। शादां को वहां एक लहज़े के लिए होश आया और उसने सिर्फ़ ‘ख़ान बहादुर’ कहा। इसके बाद वो ऐसी बेहोश हुई कि हमेशा हमेशा के लिए सो गई।

    जुर्म बहुत संगीन था। तफ़तीश हुई, मुक़द्दमा चला। इस्तग़ासे के पास कोई ऐसी शहादत मौजूद नहीं थी। एक सिर्फ़ शादां के लहू में लिथड़े हुए कपड़े थे और वो दो लफ़्ज़ जो उसने मरने से पहले अपने मुँह से अदा किए थे, लेकिन इसके बावजूद इस्तग़ासे को पुख़्ता यक़ीन था कि मुजरिम ख़ान बहादुर है, क्योंकि एक गवाह ऐसा था जिसने शादां को शाम के वक़्त ख़ान बहादुर के घर की तरफ़ जाते देखा था।

    सफ़ाई के गवाह सिर्फ़ दो थे, ख़ान बहादुर की बीवी और एक डाक्टर।

    डाक्टर ने कहा कि ख़ान बहादुर इस क़ाबिल ही नहीं कि वो किसी औरत से ऐसा रिश्ता क़ायम कर सके। शादां का तो सवाल ही पैदा नहीं होता कि वो नाबालिग़ थी। उसकी बीवी ने उसकी तसदीक़ की।

    ख़ान बहादुर मोहम्मद असलम ख़ान बरी हो गए, मुक़द्दमे में उन्हें बहुत कोफ़्त उठानी पड़ी। बरी हो कर जब घर आए तो उनकी ज़िंदगी के मा’मूल में कोई फ़र्क़ आया। एक सिर्फ़ उन्होंने मिस्वाक का इस्तेमाल छोड़ दिया।

    स्रोत:

    سڑک کے کنارے

      • प्रकाशन वर्ष: 1953

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