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तीन में ना तेरह में

सआदत हसन मंटो

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सआदत हसन मंटो

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    स्टोरीलाइन

    यह कहानी पति-पत्नी के बीच होने वाली तकरार पर आधारित है। पत्नी अपने पति से नाराज़़ है और उसके साथ झगड़ा करते हुए वह मुहावरों का इस्तेमाल करती है। पति उसके हर मुहावरे का जवाब देता है और वे दोनों झगड़ते हुए औरत-मर्द के संबंध, शादी और घरेलू ज़रूरियात के बारे में बड़ी दिलचस्प गुफ़्तगू करते जाते हैं।

    “मैं तीन में हूँ तेरह में, सुतली की गिरह में।”

    “अब तुमने उर्दू के मुहावरे भी सीख लिये।”

    “आप मेरा मज़ाक़ क्यों उड़ाते हैं। उर्दू मेरी मादरी ज़बान है।”

    “पिदरी क्या थी? तुम्हारे वालिद बुज़ुर्गवार तो ठेठ पंजाबी थे। अल्लाह उन्हें जन्नत नसीब करे बड़े मरंजां मरंज बुज़ुर्ग थे। मुझसे बहुत प्यार करते थे। इतनी देर लखनऊ में रहे, वहां पच्चीस बरस उर्दू बोलते रहे, लेकिन मुझसे हमेशा उन्होंने पंजाबी ही में गुफ़्तुगू की। कहा करते थे, “उर्दू बोलते बोलते मेरे जबड़े थक गए हैं, अब इनमें कोई सकत बाक़ी नहीं रही।”

    “आप झूट बोलते हैं।”

    “मैं तो हमेशा झूट बोलता हूँ। कोई बात भी तुमसे कहूं, तुम यही समझोगी कि झूट है, हालाँकि झूट बोलना औरत की फ़ित्रत है।”

    “आप औरत ज़ात पर ऐसे रकीक हमले किया करें। मुझे बड़ी ही कोफ़्त होती है।”

    “बहुत बेहतर आइन्दा मुहतात रहने की कोशिश करूंगा।”

    “सिर्फ़ कोशिश करेंगे। ये क्यों नहीं कहते कि आप अपनी ज़बान ऐसे मुआम’लों में क़तई तौर पर बंद रखेंगे।”

    “ये वा’दा मैं नहीं कर सकता। बंदा बशर है, हो सकता है सहवन मेरे मुँह से कुछ निकल जाये जिसे तुम हमला क़रार दे दो।”

    “मैं ये सोचती हूँ आप... आप किस क़िस्म के शौहर हैं, बस हर बात को मज़ाक़ में उड़ा देते हैं। परसों मैंने आपसे कहा कि मँझली को टाईफ़ाईड हो गया है तो आपने मुस्कुरा कर कहा, फ़िक्र करो ठीक हो जाएगी। लड़का होता तो फ़िक्र-ओ-तरद्दुद की बात थी, लड़कियां नहीं मरा करतीं।”

    “मैं अब भी यही कहता हूँ। सबसे छोटी ऊपर की मंज़िल से नीचे गिरी और बच गई। दो मर्तबा उसे हैज़ा हुआ, चेचक निकली, निमोनिया हुआ मगर वो ज़िंदा है और अपनी बड़ी बहनों के मुक़ाबले में कहीं ज़्यादा तंदुरुस्त है।”

    “आपकी ये मंतिक़ मेरी समझ में नहीं आती”

    “ये कोई मंतिक़ नहीं मेरी जान... क़ुदरत को यही मंज़ूर है कि मर्द दुनिया में कम हो जाएं और औरतें ज़्यादा। तुम्हारा पहला बच्चा जो लड़का था, उसे मामूली सा ज़ुकाम हुआ और वो दूसरे दिन अल्लाह को प्यारा हो गया। तुम्हारी बड़ी लड़की को तो तीन बार टाईफ़ाईड हुआ लेकिन वो ज़िंदा है। मेरा ख़याल है वो वक़्त आने वाला है जब इस दुनिया में कोई मर्द नहीं रहेगा, सिर्फ़ औरतें ही औरतें होंगी। लेकिन मैं सोचता हूँ कि मर्दों के बग़ैर तुम औरतों का गुज़ारा कैसे होगा।”

    “या’नी जैसे आप लोगों के बग़ैर हमारा गुज़ारा हो ही नहीं सकता। हम बहुत ख़ुश रहेंगी। मर्दों का ख़ातमा हो गया तो ये समझिए कि हमारे तमाम दुख-दर्द का ख़ातमा हो गया... रहेगा बांस बजेगी बांसुरी।”

    “तुम आज मुहावरों को बहुत इस्तेमाल कर रही हो।”

    “आपको क्या ए’तराज़ है?”

    “मुझे कोई ए’तराज़ नहीं। ए’तराज़ हो भी क्या सकता है। मुहावरे मेरी इमलाक नहीं। मैंने तो ऐसे ही कह दिया था कि तुम आज मुहावरे ज़्यादा इस्तेमाल कररही हो।”

    “दो ही तो किए हैं, ये ज़्यादा हैं क्या?”

    “ज़्यादा तो नहीं, लेकिन अंदेशा है कि तुम दस-पंद्रह और मुझ पर ज़रूर लुढ़का दोगी।”

    “थोथा चना बाजे घना, आप इतना गरज क्यों रहे हैं। आपको मालूम नहीं कि जो गरजते हैं बरसते नहीं।”

    “दो मुहावरे और गए। ख़ुदा के लिए इनको छोड़ो। मुझे ये बताओ कि आज नाराज़ी की वजह क्या है?”

    “नाराज़ी का बाइ’स आपका वजूद है। मुझे आपकी हर हरकत बुरी मालूम होती है।”

    “मैं अगर तुमसे प्यार मुहब्बत की बातें करता हूँ तो वो भी तुम्हें बुरी लगती हैं।”

    “मुझे आपकी प्यार मुहब्बत की बातें नहीं चाहिऐं।”

    “तो और क्या चाहिए?”

    “ये तो आपको मालूम होना चाहिए... मैं क्या जानूं? शौहर को अपनी बीवी को समझना चाहिए, वो क्या चाहती है, क्या नहीं चाहती। उसको इसका इल्म पूरी तरह होना चाहिए... आप तो बिलकुल ग़ाफ़िल हैं।”

    “मैं कोई क़ियाफ़ा गीर, रम्ज़ शनास और नफ़सियात का माहिर नहीं कि तुम्हें पूरी तरह समझ सकूं। और तुम्हारे दिमाग़ के तलव्वुन की हर सलवट के मा’नी निकाल सकूं, मैं इस मुआ’मले में गधा हूँ।”

    “आप ऊंट हैं ऊंट।”

    “किस लिहाज़ से?”

    “इसलिए कि आपकी कोई कल सीधी नहीं।”

    “अच्छा भला हूँ। मेरी हर कल सीधी है। अभी तुमने मुझ से परसों कहा था कि आप चालीस बरस के होने के बावजूद माशा अल्लाह जवान दिखाई देते हैं। तुमने मेरे बदन की भी बहुत तारीफ़ की थी।”

    “वो तो मैंने मज़ाक़ किया था। वर्ना आप तो ऐसा झड़ोस हो चुके हैं।”

    “देखो ऐसी बदज़बानी मुझे पसंद नहीं, तुम बा’ज़ औक़ात ऐसी बकवास शुरू कर देती हो, जो कोई शरीफ़ औरत नहीं कर सकती।”

    “तो गोया मैं शरीफ़ नहीं, फ़ाहिशा हूँ, बाज़ारी औरत हूँ। मैंने आपको क्या गाली दी जिस पर आपको इतना तैश गया कि आपने मुझ को बदज़बान कह दिया।”

    “भई, मैं अब झड़ोस हो चुका हूँ। मुझसे बात करो।”

    “मैं आपसे बात करूंगी तो और किससे करूंगी?”

    “मैं इसके मुतअ’ल्लिक़ क्या कह सकता हूँ? तुम अपने भंगी से गुफ़्तुगू कर सकती हो। उससे ये भी कह सकती हो कि मैं झड़ोस हो गया हूँ।”

    “आपको शर्म नहीं आती। आपने ये कैसी बात कही है?”

    “भंगी और मुझ में क्या फ़र्क़ है! जिस तरह तुम उस ग़रीब से पेश आती हो, उसी तरह का सुलूक मुझ से करती हो।”

    “बड़े बेचारे ग़रीब बने फिरते हैं और अब मुझसे कहते हैं कि में भंगी के साथ बात किया करूं। ग़ैरत का माद्दा तो आप में रहा ही नहीं।”

    “मैं नर हूँ, मादा तुम हो।”

    “इससे क्या हुआ? मेरी समझ में नहीं आता कि मर्द औरतों को इतना हक़ीर क्यों समझते हैं। हम में क्या बुराई है। क्या ऐ’ब है। यही कि हमारे वालिदैन ने ग़लती से आपके साथ मेरी शादी कर दी।”

    “शादी तो आख़िर किसी जगह होनी ही थी। तुम क्या करतीं अगर होती?”

    “मैं बहुत ख़ुश रहती। शादी में आख़िर पड़ा ही क्या है?”

    “क्या पड़ा है?”

    “ख़ाक! मैं तो कुंवारी रहती तो अच्छा था। इस बक बक में तो पड़ती।”

    “किस बक बक में?”

    “यही जो आए दिन होती रहती है।”

    “तुम्हें मालूम होना चाहिए कि रोज़ रोज़ की चख़ सिर्फ़ तुम्हारी वजह से होती है वर्ना मैंने इन पंद्रह बरसों में कोई कसर उठा नहीं रखी कि तुम्हारी ख़िदमत करूं।”

    “ख़िदमत?”

    ख़िदमत कहो, मैं अपना फ़र्ज़ अदा करता रहा हूँ। ख़ाविंद को यही करना चाहिए। तुम्हें मुझसे किस बात का गिला है?”

    “हज़ार गिले हैं, एक हो तो बताऊं।”

    “उन हज़ार गिलों में से एक गिला तो मुझे बता दो ताकि मैं अपनी इस्लाह कर सकूं।”

    “आपकी इस्लाह अब हो चुकी। आप तो अज़ल से बिगड़े हुए हैं।”

    “ये इत्तिला तुम्हें कहाँ से मिली थी? मैं तो इससे बिल्कुल बेख़बर हूँ।”

    “आपकी बेख़बरी का तो ये आलम है कि आपको ख़ुद अपनी ख़बर नहीं होती।”

    “ग़ालिब का एक शेर है:

    “हम वहां हैं जहां से हम को भी, ख़ुद अपनी ख़बर नहीं आती!”

    “ग़ालिब जाये जहन्नम में... इस वक़्त तो आप मुझ पर ग़ालिब हैं।”

    “ला हौल वला, मैं तो झड़ोस हो चुका हूँ। अज़ल से बिगड़ा हुआ हूँ।”

    “आप मेरी हर बात का मज़ाक़ उड़ाते हैं।”

    “मैं ये जुर्रत कैसे कर सकता हूँ? मुझमें इतनी ताक़त है मजाल, लेकिन मैं क्या पूछ सकता हूँ कि आज आपकी नाराज़ी का बाइ’स क्या है?”

    “मेरी नाराज़गी का बाइ’स क्या हो सकता है, यही कि आप...”

    “क्या?”

    “आप ख़ुद सोचिए, बड़े समझदार हैं। क्या आपको मालूम नहीं?”

    “मैंने तुमसे वा’दा किया था कि तुम्हारे कानों के लिए ‘टोप्स’ लेकर आऊँगा। मगर मैं जिस दूकान में गया वहां मुझे दिल पसंद टोप्स मिले। तुमने मुझसे कहा था कि लट्ठे का एक थान लेकर आओ। मैंने शहर भर में हर जगह कोशिश की मगर नाकाम रहा। तुम्हारे रेशमी कपड़े जो लांड्री में धुलने के लिए गए थे। मैं उनको वसूल करने गया। मगर लांड्री वाले ने कहा कि उसके धोबी बीमार हैं, इसलिए दो दिन इंतिज़ार कीजिए। तुम्हारी घड़ी जो ख़राब हो गई थी, उसके मुतअ’ल्लिक़ भी मैंने पूछा। घड़ी-साज़ ने कहा कि उसका एक पुर्ज़ा बनाना पड़ेगा जो वो बना रहा है।”

    “आप बहाने बनाना ख़ूब जानते हैं।”

    “ख़ुदा की क़सम सच कह रहा हूँ... तुम्हारी क़मीज़ें कल दर्ज़ी से जाएंगी, उसको मैंने बहुत डाँटा कि तुमने इतनी देर क्यों कर दी। उसने कहा, हुज़ूर कल ले जाईएगा।”

    “क़मीसें जाएं भाड़ में।”

    “वो क्यों?”

    “आपको तो कुछ होश ही नहीं।”

    “मैं क्या बेहोश रहता हूँ? तुम्हें जो कहना है कह डालो। इतनी लंबी चौड़ी तमहीद की क्या ज़रूरत थी?”

    “ज़रूरत इसलिए थी कि आप पर कुछ असर होता, अगर मैंने एक जुमले में अपना मुद्दआ बयान किया होता।”

    “तो अज़-राह-ए-करम अब तुम एक जुमले में अपना मुद्दआ बयान कर दो ताकि मेरी ख़लासी हो।”

    “मेरी दाढ़ इतनी तकलीफ़ दे रही है, कई मर्तबा से आपसे कह चकी हूँ, किसी डाक्टर के पास ले चलिए मुझे ,मगर...”

    “अभी चलो! दाढ़ क्या, तुम चाहो तो मैं सब दाँत निकलवा दूंगा।”

    स्रोत:

    رتی،ماشہ،تولہ

      • प्रकाशन वर्ष: 1956

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