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मातमी जलसा

सआदत हसन मंटो

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    स्टोरीलाइन

    तुर्क़ी के मुस्तफ़ा कमाल पाशा की मृत्यु के शोक में बंबई के मज़दूरों द्वारा बुलाई गई एक हड़ताल के गिर्द घूमती कहानी है। भारत में जब पाशा के मरने की ख़बर पहुँची तो मज़दूरों ने एक दूसरे के द्वारा सुनी-सुनाई बातों में आकर शहर में हड़ताल बुला ली। हड़ताल भी ऐसी कि देखते ही देखते पूरा शहर बंद हो गया। जब शाम को मज़दूरों की यह भीड़ सभा स्थल पर पहुँची तो वहाँ भाषण के दौरान मंच पर खड़े एक व्यक्ति ने कुछ ऐसा कह दिया कि उस हड़ताल ने दंगे का रूप ले लिया।

    रात रात में ये ख़बर शहर के इस कोने से उस कोने तक फैल गई कि अतातुर्क कमाल मर गया है। रेडियो की थरथराती हुई ज़बान से ये सनसनी फैलाने वाली ख़बर ईरानी होटलों में सट्टेबाज़ों ने सुनी जो चाय की प्यालियां सामने रखे आने वाले नंबर के बारे में क़ियास दौड़ा रहे थे और वो सब कुछ भूल कर कमाल अतातुर्क की बड़ाई में गुम हो गए।

    होटल में सफ़ेद पत्थर वाले मेज़ के पास बैठे हुए एक सटोरी ने अपने साथी से ये ख़बर सुन कर लर्ज़ां आवाज़ में कहा, “मुस्तफ़ा कमाल मर गया!”

    उसके साथी के हाथ से चाय की प्याली गिरते गिरते बची, “क्या कहा, मुस्तफ़ा कमाल मर गया!”

    इस के बाद दोनों में अतातुर्क कमाल के मुतअ’ल्लिक़ बात-चीत शुरू हो गई। एक ने दूसरे से कहा, “बड़े अफ़सोस की बात है, अब हिंदुस्तान का क्या होगा? मैंने सुना था ये मुस्तफ़ा कमाल यहां पर हमला करने वाला है... हम आज़ाद हो जाते, मुसलमान क़ौम आगे बढ़ जाती, अफ़सोस तक़दीर के साथ किसी की पेश नहीं चलती!”

    दूसरे ने जब ये बात सुनी तो उसके रोएं बदन पर च्यूंटियों के मानिंद सरकने लगे। इस पर एक अ’जीब-ओ-ग़रीब कैफ़ियत तारी हो गई। उसके दिल में जो पहला ख़याल आया, ये था, “मुझे कल जुमा से नमाज़ शुरू कर देनी चाहिए।”

    इस ख़याल को बाद में उसने मुस्तफ़ा कमाल पाशा की शानदार मुसलमानी और उसकी बड़ाई में तहलील कर दिया।

    बाज़ार की एक तंग गली में दो तीन कोकीन फ़रोश खाट पर बैठे बातें कर रहे थे। एक ने पान की पीक बड़ी सफ़ाई से बिजली के खंबे पर फेंकी और कहा, “मैं मानता हूँ, मुस्तफ़ा कमाल बहुत बड़ा आदमी था लेकिन मुहम्मद अली भी किसी से कम नहीं था। यहां बम्बई में तीन चार होटलों का नाम उसी पर रखा गया है!”

    दूसरे ने जो अपनी नंगी पिंडलियों पर से एक खुरदरे चाक़ू से मैल उतारने की कोशिश कर रहा था, अपने दोनों साथियों से कहा, “मोहम्मद अली की मौत पर तो बड़ी शानदार हड़ताल हुई थी...”

    “हाँ भई, तो कल हड़ताल हो रही है क्या?” तीसरे ने एक की पसलियों में कोहनी से टहोका दिया। उस ने जवाब दिया, “क्यों होगी, अरे इतना बड़ा मुसलमान मर जाये और हड़ताल हो।”

    ये बात एक राहगीर ने सुन ली, उसने दूसरे चौक में अपने दोस्तों से कही और एक घंटे में इन सब लोगों को जो दिन को सोने और रात को बाज़ारों में जागते रहने के आदी हैं, मालूम हो गया कि सुबह हड़ताल हो रही है।

    अब्बू क़साई रात को दो बजे अपनी खोली में आया। उसने आते ही ताक़ में से बहुत सी चीज़ों को इधर उधर उलट पलट करने के बाद एक पुड़िया निकाली और एक देगची में पानी भर कर उसको उस में डाल कर घोलना शुरू कर दिया।

    उस की बीवी जो दिन भर की थकी माँदी एक कोने में टाट पर सो रही थी, बर्तन की रगड़ सुन कर जाग पड़ी। उसने लेटे लेटे कहा, “आ गए हो?”

    “हाँ, गया हूँ।” ये कह कर अब्बू ने अपनी क़मीज़ उतार कर देगची में डाल दी और उसे पानी के अंदर मसलना शुरू कर दिया।

    उस की बीवी ने पूछा, “पर ये तुम क्या कर रहे हो?”

    “मुस्तफ़ा कमाल मर गया है, कल हड़ताल हो रही है!”

    उस की बीवी ये सुन कर घबराहट के मारे उठ खड़ी हुई, “क्या मारा मारी होगी? मैं तो इन हर रोज़ के फसादों से बड़ी तंग गई हूँ। वो सर पकड़ कर बैठ गई। मैंने तुझ से हज़ार मर्तबा कहा है कि तू हिंदुओं के इस महल्ले से अपना मकान बदल डाल पर जाने तू कब सुनेगा!”

    अब्बू जवाब में हँसने लगा, “अरी पगली, ये हिंदू मुसलमानों का फ़साद नहीं। मुस्तफ़ा कमाल मर गया है... वही जो बहुत बड़ा आदमी था। कल उस के सोग में हड़ताल होगी!”

    “जाने मेरी बला, यह बड़ा आदमी कौन है... पर ये तू क्या कर रहा है?” बीवी ने पूछा, “सोता क्यों नहीं है!”

    “क़मीज़ को काला रंग दे रहा हूँ... सुबह हमें हड़ताल कराने जाना है।” ये कह कर उसने क़मीज़ निचोड़ कर दो कीलों के साथ लटका दी जो दीवार में गड़ी हुई थीं।

    दूसरे रोज़ सुबह को स्याह पोश मुसलमानों की टोलियां काले झंडे लिए बाज़ारों में चक्कर लगा रही थीं। ये स्याह पोश मुसलमान दुकानदारों की दुकानें बंद करा रहे थे और ये नारे लगा रहे थे, “इन्क़लाब ज़िंदाबाद, इन्क़लाब ज़िंदाबाद!”

    एक हिंदू ने जो अपनी दुकान खोलने के लिए जा रहा था, ये नारे सुने और नारे लगाने वालों को देखा तो चुपचाप ट्राम में बैठ कर वहां से खिसक गया। दूसरे हिंदू और पारसी दुकानदारों ने जब मुसलमान के एक गिरोह को चीख़ते चिल्लाते और नारे मारते देखा तो उन्हों ने झटपट अपनी दुकानें बंद कर लीं।

    दस पंद्रह स्याह पोश गप्पें हांकते एक बाज़ार से गुज़र रहे थे। एक ने अपने साथी से कहा, “दोस्त हड़ताल हुई तो ख़ूब है पर वैसी नहीं हुई जैसी मोहम्मद अली के टैम पर हुई थी... ट्रामें तो उसी तरह चल रही हैं।”

    उस टोली में जो सबसे ज़्यादा जोशीला था और जिसके हाथ में स्याह झंडा था, तिनक कर बोला, “आज भी नहीं चलेंगी!” ये कह कर वो उस ट्राम की तरफ़ बढ़ा जो लकड़ी के एक शेड के नीचे मुसाफ़िरों को उतार रही थी। टोली के बाक़ी आदमियों ने उसका साथ दिया और एक लम्हे के अंदर सब के सब ट्राम की सुर्ख़ गाड़ी के इर्द गिर्द थे। सब मुसाफ़िर ज़बरदस्ती उतार दिए गए।

    शाम को एक वसीअ’ मैदान में मातमी जलसा हुआ। शहर के सब हंगामा पसंद जमा थे। ख़वांचा-फ़रोश और पान-बीड़ी वाले चल फिर कर अपना सौदा बेच रहे थे। जलसागाह के बाहर आ’रज़ी दुकानों के पास एक मेला लगा हुआ था, चाट के चनों और उबले हुए आलूओं की ख़ूब बिक्री हो रही थी।

    जलसागाह के अंदर और बाहर बहुत भीड़ थी, खोवे से खोवा छिलता था। इस हुजूम में कई आदमी ऐसे भी चल फिर रहे थे जो ये मालूम करने की कोशिश में मसरूफ़ थे कि इतने आदमी क्यों जमा हो रहे हैं। एक साहब गले में दूरबीन लटकाए इधर उधर चक्कर काट रहे थे।

    दूर से इतनी भीड़ देख कर और ये समझ कर कि पहलवानों का दंगल हो रहा है वो अभी अभी अपने घर से नई दूरबीन ले कर दौड़े दौड़े रहे थे और उसका इम्तहान लेने के लिए बेताब हो रहे थे, मैदान के आहनी जंगले के पास दो आदमी खड़े आपस में बातचीत कर रहे थे। एक ने अपने साथी से कहा, “भई, ये मुस्तफ़ा कमाल तो वाक़ई कोई बहुत बड़ा आदमी मालूम होता है... मैं जो साबुन बनाने वाला हूँ उसका नाम ‘कमाल सोप’ रखूंगा... क्यों कैसा रहेगा?”

    दूसरे ने जवाब दिया, “वो भी बुरा नहीं था जो तुमने पहले सोचा था, ‘जिन्ना सोप’... ये जिन्ना मुस्लिम लीग का बहुत बड़ा लीडर है!”

    “नहीं, नहीं, कमाल सोप अच्छा रहेगा। भाई मुस्तफ़ा कमाल उससे बड़ा आदमी है।” ये कह कर उसने अपने साथी के कांधे पर हाथ रखा, “आओ चलें, जलसा शुरू होने वाला है।” वो दोनों जलसागाह की तरफ़ चल दिए।

    जलसा शुरू हुआ।

    आग़ाज़ में नज़्में गाई गईं जिनमें मुस्तफ़ा कमाल की बड़ाई का ज़िक्र था, फिर एक साहब तक़रीर करने के लिए उठे। आपने कमाल अतातुर्क की अ’ज़मत बड़ी बलंद बाँग लफ़्ज़ों में बयान करना शुरू की। हाज़िरीन-ए-जलसा इस तक़रीर को ख़ामोशी से सुनते रहे। जब कभी मुक़र्रिर के ये अलफ़ाज़ गूंजते, “मुस्तफ़ा कमाल ने दर्रा-ए-दानयाल से अंग्रेज़ों को लात मार के बाहर निकाल दिया।” या “कमाल ने यूनानी भेड़ों को इस्लामी ख़ंजर से ज़बह कर डाला।” तो “इस्लाम ज़िंदाबाद” के नारों से मैदान काँप काँप उठता।

    ये नारे मुक़र्रिर की क़ुव्वत-ए-गोयाई को और तेज़ कर देते और वो ज़्यादा जोश से अतातुर्क कमाल की अ’ज़ीमुश्शान शख़्सियत पर रोशनी डालना शुरू कर देता।

    मुक़र्रिर का एक एक लफ़्ज़ हाज़िरीन-ए-जलसा के दिलों में एक जोश-ओ-ख़रोश पैदा कर रहा था।

    “जब तक तारीख़ में गीली पोली का वाक़िया मौजूद है, बर्तानिया की गर्दन टर्की के सामने ख़म रहेगी। सिर्फ़ टर्की ही एक ऐसा मुल्क है जिसने बर्तानवी हुकूमत का कामयाब मुक़ाबला किया और सिर्फ़ मुस्तफ़ा कमाल ही ऐसा मुसलमान है जिसने ग़ाज़ी सलाहुद्दीन अय्यूबी की सिपाहियाना अ’ज़मत की याद ताज़ा की। उसने ब-नोक-ए-शमशीर यूरोपी ममालिक से अपनी ताक़त का लोहा मनवाया। टर्की को यूरोप का मर्द-ए-बीमार कहा जाता था। मगर कमाल ने उसे सेहत और क़ुव्वत बख़्श कर मर्द-ए-आहन बना दिया।”

    जब ये अलफ़ाज़ जलसागाह में बलंद हुए तो “इन्क़लाब ज़िंदाबाद, इन्क़लाब ज़िंदाबाद” के नारे पाँच मिनट तक मुतवातिर बलंद होते रहे।

    इससे मुक़र्रिर का जोश बहुत बढ़ गया। उसने अपनी आवाज़ को और बलंद करके कहना शुरू किया, “कमाल की अ’ज़मत मुख़्तसर अलफ़ाज़ में बयान नहीं हो सकती। उसने अपने मुल्क के लिए वो ख़िदमात सर-अंजाम दी हैं जिसको बयान करने के लिए काफ़ी वक़्त चाहिए। उसने टर्की में जहालत का दीवालिया निकाल दिया। ता’लीम आम कर दी। नई रोशनी की शुआ’ओं को फैलाया। ये सब कुछ उसने तलवार के ज़ोर से किया। उसने दीन को जब इ’ल्म से अ’लाहिदा किया तो बहुत से क़दामत-पसंदों ने उसकी मुख़ालिफ़त की मगर वो सर-ए-बाज़ार फांसी पर लटका दिए गए।

    उसने जब ये फ़रमान जारी किया कि कोई तुर्क रूमी टोपी पहने तो बहुत से जाहिल लोगों ने उस के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना चाही, मगर ये आवाज़ उनके गले ही में दबा दी गई। उसने जब ये हुक्म दिया कि अज़ान तुर्की ज़बान में हो तो बहुत से मुल्लाओं ने उदूल-ए-हुक्मी की मगर वो क़त्ल कर दिए गए...”

    “ये कुफ़्र बकता है।” जलसागाह में एक शख़्स की आवाज़ बलंद हुई और फ़ौरन ही सब लोग मुज़्तरिब हो गए।

    “ये काफ़िर है झूट बोलता है।” के नारों में मुक़र्रिर की आवाज़ ग़ुम हो गई। पेशतर इसके कि वो अपना माफी-अल-ज़मीर बयान करता उसके माथे पर एक पत्थर लगा और वो चकरा कर स्टेज पर गिर पड़ा। जलसे में एक भगदड़ मच गई।

    स्टेज पर मुक़र्रिर का एक दोस्त उसके माथे पर से ख़ून पोंछ रहा था और जलसागाह इन नारों से गूंज रही थी, “मुस्तफ़ा कमाल ज़िंदाबाद, मुस्तफ़ा कमाल ज़िंदाबाद।”

    स्रोत:

    دھواں

      • प्रकाशन वर्ष: 1941

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