कोख जली
स्टोरीलाइन
यह एक ऐसी माँ की कहानी है जो फोड़े के ज़ख्मों ज़ख़्मों से परेशान बेटे से बे-पनाह मोहब्बत करती है। हालांकि बेटे के नासूर बन चुके ज़ख़्मों की वजह से सारी बस्ती उन से नफ़रत करती है। शुरू के दिनों में उसका बेटा शराब के नशे में उससे कहता है कि बहुत से लोग नशे में अपनी माँ को बीवी समझने लगते हैं मगर वह हमेशा ही उसकी माँ ही रही। हालांकि शराब पीकर आने के बाद वह बेटे के साथ भी वैसा ही बर्ताव करती है जैसा कि शौहर के पीकर आने के बाद उसके साथ किया करती थी।
घमंडी ने ज़ोर-ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाया।
घमंडी की माँ उस वक़्त सिर्फ अपने बेटे के इंतेज़ार में बैठी थी। वो ये बात अच्छी तरह जानती थी कि पहले पहर की नींद के चूक जाने से अब उसे सर्दियों की पहाड़ ऐसी रात जाग कर काटना पड़ेगी। छत के नीचे ला-तादाद सरकंडे गिनने के इलावा टिड्डियों की उदास और परेशान करने वाली आवाज़ों को सुनना होगा। दरवाज़े पर-ज़ोर ज़ोर की दस्तक के बावजूद वो कुछ देर खाट पर बैठी रही, इसलिए नहीं कि वो सर्दी में घमंडी को बाहर खड़ा कर के इस के घर में देर से आने की आदत के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना चाहती है, बल्कि इसलिए कि घमंडी अब आ ही तो गया है।
यूँ भी बूढ़ी होने की वजह से उस पर एक क़िस्म का ख़ुशगवार आलकस, एक मीठी सी बे-हिसी छाई रहती थी। वो सोने और जागने के दरमयान मुअल्लक़ रहती। कुछ देर बाद माँ ख़ामोशी से उठी। चारपाई पर फिर से औंधी लेट कर उसने अपने पाँव चारपाई से दूसरी तरफ़ लटकाए और घसीट कर खड़ी हो गई। शमादान के क़रीब पहुँच कर उसने बत्ती को ऊँचा किया। फिर वापिस आकर खाट के साँघे में छुपाई हुई हुलास की डिबिया निकाली और इतमीनान से दो चुटकियाँ अपने नथनों में रखकर दो गहरे साँस लिए और दरवाज़े की तरफ़ बढ़ने लगी। लेकिन तीसरी दस्तक पर यूँ मालूम हुआ जैसे किवाड़ टूट कर ज़मीन पर आ रहेंगे।
“अरे थम जा। उजड़ गए।” माँ ने बरहम हो कर कहा… “मुझे इंतेज़ार दिखाता है और आप एक पल भी तो नहीं ठहर सकता।”
किवाड़ के बाहर घमंडी के कानों पर लिपटे हुए मफ़लर को चीरते हुए माँ के ये अल्फ़ाज़ घमंडी के कानों में पहुंचे। ‘उजड़ गए’ माँ की ये गाली घमंडी को बहुत पसंद थी। माँ अपने बेटे के ब्याह का तज़किरा करती और बेटा ब-ज़ाहिर बे-एतिनाई का इज़हार करता, जब भी वो यही गाली देती थी। एक पल में घर को बसा देने और उजाड़ देने का माँ को ख़ास मलका था।
इस तौर पर उतावले होने का घमंडी को ख़ुद भी अफ़सोस हुआ। उसने मफ़लर से अपने कान अच्छी तरह ढाँप लिए, और जेब से चुराए हुए मैक्रो पोलो का टुकड़ा सुलगा कर खड़ा हो गया। शायद आग से क़रीब होने का एहसास उसे बेपनाह सर्दी से बचा ले। फिर वो मैक्रो पोलो को हवा में घुमा कर कुंडल बनाने लगा। ये घमंडी का महबूब मशग़ला था जिससे उसकी माँ उसे अवगुण बता कर मना किया करती थी। लेकिन इस वक़्त कुंडल से न सिर्फ तसकीन मल्हूज़-ए-ख़ातिर थी, बल्कि माँ के इन प्यारे अल्फ़ाज़ के खिलाफ़ एक छोटी सी ग़ैर महसूस बग़ावत भी।
सिगरेट का आवारा जुगनू हवा में घूमता रहा। घमंडी अब एक और दस्तक देना चाहता था लेकिन उसे ख़ुद ही अपनी अहमक़ाना हरकत पर हंसी आ गई। वो लोग भी कितने अहमक़ होते हैं, उसने कहा, जो हर मुनासिब और नामुनासिब जगह अपना वक़्त ज़ाए करते रहते हैं। लेकिन जब उन्हें किसी जगह पहुँचना होता है तो वक़्त की सारी कसर साईकल के तेज़ चलाने, या भाग-भाग कर जान हलकान करने में लगा देते हैं। और ये सोचते हुए घमंडी ने सिगरेट का एक कश लगाया और दरवाज़े के एक तरफ़ नाली के क़रीब दुबक गया।
धोबियों की कटड़ी मैं उगा हुआ गून्दनी का दरख़्त पछवा के सामने झुक गया था। झुकाव की तरफ़, टहनियों में चाँद की हल्की सी फांक उलझी हुई दिखाई दे रही थी। माँ ने ज़रूर आज गले में दुपट्टा डाल कर दुपट्टे की फ़ोएं एकम के चाँद की तरफ़ फेंके होंगे। इसके बाद एका-एकी साएँ-साएँ की भयानक सी आवाज़ बुलंद हुई। हवा, चाँद की फाँक और गूँदनी का दरख़्त मिल-जुल कर उसे डराने वाले ही थे, कि माँ ने दरवाज़ा खोल दिया।
“माँ... ही ही...” घमंडी ने कहा और ख़ुद दरवाज़ा से एक क़दम पीछे हट गया। इससे एक लम्हा पहले वो अपने दाँतों को भींच रहा था।
“आ जाओ।” माँ ने कुछ रुखाई से कहा। और फिर बोली। “आ जाओ अब डरते क्यों हो। तुम्हारा क्या ख़्याल था, मुझे पता नहीं चलेगा?”
घमंडी को एक मामूली बात का ख़्याल आया कि माँ के मुँह में एक भी दाँत नहीं है, लेकिन उसने अपने आपको सँभालते हुए कहा।
“किस बात का पता नहीं चलेगा?”
“हुँह...” माँ ने दिए की बे-बिज़ा’त रौशनी में सर हिलाते और चिढ़ाते हुए कहा। “किस का पता नहीं चलेगा...”
घमंडी को पता चल गया कि माँ से किसी बात का छुपाना अबस है। माँ जो चौबीस साल एक शराबी की बीवी रही है। घमंडी का बाप जब भी दरवाज़े पर दस्तक दिया करता, माँ फ़ौरन जान लेती कि आज उसके मर्द ने पी रखी है। बल्कि दस्तक से उसे पीने की मिक़दार का भी अंदाज़ा हो जाता था। फिर घमंडी का बाप भी इसी तरह दुबके हुए दाख़िल होता। इसी तरह पछवा के शोर को शर्मिंदा करते हुए। और यही कोशिश करता कि चुपके से सो जाये और उसकी औरत को पता ना चले। लेकिन शराब के मुताल्लिक़ घमंडी की माँ बाप में एक अन लिखा और उन कहा समझौता था। दोनों एक दूसरे को आँखों ही आँखों में समझ जाते थे। पीने के बाद घमंडी का बाप एक भी वाफ़र लफ़्ज़ मुँह से न निकालता और उसकी माँ अपने मर्द को पीने के मुताल्लिक़ कुछ भी न जताती। वो चुपके से खाना निकाल कर उसके सिरहाने रख देती और सोने से पहले मामूल के ख़िलाफ़ पानी का एक बड़ा कटोरा चारपाई के नीचे रखकर ढाँप देती। सुबह होते ही अपने पल्लू से एक-आध सिक्का खोल कर घमंडी की तरफ़ फेंक देती और कहती,
“ले… अध बिलोया ले आ!”
और घमंडी अपने बाप के लिए शक्र डलवा कर अध बिलोया दही ले आता, जिसे पी कर वो ख़ुश होता, रोता, तौबा करता और फिर ‘हाथ से जन्नत न गई’ को झुटलाता। घमंडी ने माँ के मुँह से ये बात सुनी और ख़िफ़्फ़त की हंसी हंसकर बोला।
“माँ! माँ! तू कितनी अच्छी है...” फिर घमंडी को एक चक्कर आया। शराब पछवा के झोंकों से और भी पुर-असर हो गई थी। सिगरेट का जुगनू जो अपनी फास्फोरस खो चुका था, दूर फेंक दिया गया और माँ का दामन पकड़ते हुए घमंडी बोला “और लोगों की माँ उनकी बीवी होती है, लेकिन तू मेरी माँ ही माँ है।”
और दोनों मिलकर इस अहमक़ाना फ़िक़रे पर हँसने लगे। दरअस्ल इस छोकरे के ज़ह्न में बीवी का नक़्शा मुख़्तलिफ़ था। घमंडी समझता था, बीवी वो औरत होती है जो शराब पी कर घर आए हुए ख़ावंद की जूतों से तवाज़ो करती है। कम अज़ कम रोलिंग मिल्ज़ के मिस्त्री की बीवी, जिसके तहत घमंडी शागिर्द था, अपने शराबी शौहर से ऐसा ही सुलूक क्या करती थी और इस क़िस्म के जूति पैज़ार के क़िस्से आए दिन सुनने में आते हैं। फिर कोई माँ भी अपने बेटे को इस क़िस्म की हरकत करते देखकर अच्छा सुलूक नहीं करती थी। ब-ख़िलाफ़ उनके घमंडी की माँ, माँ थी। एक वसीअ-ओ-अरीज़ दल की मुतरादिफ़, जिसके दिल की पहनाइयों में सब गुनाह छिप जाते थे और अगर घमंडी के इस ब-ज़ाहिर अहमक़ाना फ़िक़रे की अंदरूनी सेहत को तस्लीम कर लिया जाये तो इसकी मतनाक़स शक्ल में घमंडी की माँ अपने शौहर की भी माँ थी।
बिस्तर पर धम से बैठते हुए घमंडी ने अपने रबड़ के जूते उतारे। ये जूते सर्दियों में बर्फ़ और गर्मियों में अंगारा हो जाते थे। लेकिन इन जूतों को पहने हुए कौन कह सकता था कि घमंडी नंगे पाँव घूम रहा है। घमंडी ने हमेशा की तरह जूते उतार कर गर्म करने के लिए चूल्हे पर रख दिए। माँ फिर चिल्लाई,
“है, मरे तेरी माँ भगवान करे से। है, गोर भोग ले तो को।”
लेकिन हिंदू धर्म भ्रष्ट होता रहता। माँ जूते उतार कर दूर कोने में फेंक देती। फिर बकती झुकती अपने दामन में एक चवन्नी बाँध घमंडी के सिरहाने पानी का एक बड़ा सा कटोरा रख, मुतअफ़्फ़िन बिस्तर की आँतों में जा दुबकती।
हद हो गई... माँ ने दो तीन मर्तबा सोचा। घमंडी ने बनवारी और रसीद की संगत छोड़ दी है। उसने घमंडी को शराब पीने से मना भी नहीं किया और न अपने ओबाश संगी सुंगाती के साथ घूमने से। माँ ने सोचा शायद ये नरमी के बरताव का असर है। लेकिन वो डर गई और जल्द-जल्द हुलास की चुटकियाँ अपने नथनों में रखने लगी। अपने आपको मारने का उसके पास एक ही ज़रिया था। हुलास से अपने फेफड़ों को छलनी कर देना लेकिन अब हुलास का कोई भी असर नहीं होता था। इसी नरमी से माँ ने अपने शौहर का मुँह भी बंद कर दिया था। उसकी शख़्सियत को कुचल दिया था और वो बेचारा कभी अपनी औरत की तरफ़ आँख भी नहीं उठा सकता था। इसी तरह घमंडी भी अपनी माँ के साथ हम कलाम होने से घबराता था। माँ ने इस बात को महसूस किया और फिर वही... ‘तेरी माँ मरे भगवान करे से’ लेकिन इस बात का उसे कोई हल न सूझ सका।
आज फिर छः बजे शाम घमंडी कारख़ाने से लौट आया, हालाँकि वो नथुआ चौकीदार की आवाज़ के साथ महल्ले में दाख़िल होता था। इससे पहले वो कोई पुरानी तस्वीर देखने चला जाता। वादिया की मिस नादिया के गीत गाता और एक दो साल से उसके पुरासरार तरीक़े से ग़ायब हो जाने के मुताल्लिक़ सोचता। आज फिर इतनी जल्दी लौट आने से माँ के दिल में वस्वसे पैदा हुए। उसने बेकार एक काम पैदा करते हुए कहा।
“ले तो बेटा, ज़ीरा ले आ थोड़ा।”
“ज़ीरा? घमंडी ने पूछा दही के लिए माँ?”
“और तो का तुम्हारे सर पे डालूँगी।” माँ ने लाड से कहा और ज़रूरत से वाफ़र पैसे देती हुई बोली। “लो ये पैसे, ठीटर देखना।”
“मैं सिनेमा नहीं जाऊँगा माँ।” घमंडी ने सर हिलाते हुए कहा।
“यही सैर तमाशा तो हम लोगों को ख़राब करता है।“
माँ हैरान हो कर अपने बेटे का मुँह तकने लगी।
“अभी ख़ैर से हाथ पाँव भी नहीं खुले। इतनी दानिस की बातें करने से नजर लग जाएगी रे…” और दरअस्ल वो अपने बेटे को एक शराबी देखना चाहती थी। नहीं शराबी नहीं, शराबी से कुछ कम, जिससे तबाह-हाल न हो जाये कोई। लेकिन ये भल मानसत भी माँ को रास ना आती थी। उसने कई अक़्लमंद बच्चे देखे थे जो अपनी उम्र के लिहाज़ से ज़्यादा अक़्लमंदी की बातें करते थे, और उन्हें इश्वर ने अपने पास बुला लिया था।
घमंडी ज़ीरा लाने के लिए उठ खड़ा हुआ। पैसे लेकर दरवाज़े तक पहुँचा। मशकूक निगाहों से उसने दरवाज़े के बाहर झाँका। एक क़दम बाहर रखा, फिर पीछे की जानिब खींच लिया और बोला “बाहर चची खड़ी है और मंसी भी है।”
“तो फिर का?” माँ ने त्यूरियों का त्रिशूल बनाते हुए कहा।
“फिर कुछ है…” घमंडी बोला “मैं उनके सामने बाहर नहीं जाऊँगा।“
माँ ने समझाते हुए कहा “तू ने मंसी का कंठा उतार लिया है, जो बाहर नहीं जाता?”
लेकिन घमंडी बाहर न गया। माँ मुँह में दुपट्टा डाल कर खड़ी हो गई। माँ मुँह में दुपट्टा उस वक़्त डाला करती थी जब कि वो निहायत परेशान या हैरान होती थी। और अपने कलेजे में मुक्का उस वक़्त मारा करती थी जब कि बहुत ग़मगीं होती। इससे पहले तो घमंडी किसी से शरमाया नहीं था। वो तो मुहल्ले की लौंडियों में डंड पेला करता था। औरतों के कूल्हों पर से बच्चे छीन लेता और उन्हें खिलाता फिरता। और इसी असना में औरतें घर का धंदा कर लेतीं और घमंडी को दुआएं देतीं और आज वो मंसी और चची से भी झेंपने लगा था।
घमंडी ने वापिस आते हुए अपने बाप के ज़माने का ख़रीदा हुआ एक फटा पुराना मोमजामा नीचे बिछाया, और एक टूटा हुआ शीशा और राल सामने रखकर टांगें फैला दें। टाँगों पर चंद सख़्त से फोड़ों पर उसने राल लगाई और फिर शीशे की मदद से मुँह पर रिसने वाले फोड़े से पानी पोंछने लगा और फिर उस पर भी मरहम लगा दी। माँ ने अपनी धुंदली आँखों से मुँह वाले फोड़े का जायज़ा लेते हुए कहा... “हाय, कितना ख़ून-ख़राब हो गया है तुम्हारा।” और फिर करंजवा और नीम के नुस्खे़ गिनाने लगी।
इस वक़्त तक रात हो गई थी। राल लगाने के बाद घमंडी मोम जामे पर ही दराज़ हो गया और लेटते ही उसने आँखें बंद कर लीं। आज माँ को भी जल्दी सो जाने का मौक़ा था, लेकिन वो ऊँचे मूँढे पर जूँ की तूँ बैठी रही। वो जानती थी कि बिस्तर में जा दुबकने पर वो निसबतन बेहतर रहेगी, लेकिन एक ख़ुशगवार तसाहुल ने उसे मूँढे के साथ जकड़े रखा और वहीं सिकुड़ती गई। उसका बुढ़ापा उस मीठी नींद के मानिंद था जिसमें पड़े हुए आदमी को सर्दी लगती हो और वो अपनी टांगें समेट कर कलेजे से लगाता चला जाये लेकिन पाँव में पड़े हुए लिहाफ़ को उठाने के लिए हिल न सके।
एका-एकी माँ चौंकि। उसे अपने बेटे की ख़ामोशी का पता चल गया था। इस नियम-ख़्वाबी में बड़े बड़े राज़ खुल जाते हैं। माँ ने कलेजे में मारने के लिए मुक्का हवा में उठाया, लेकिन वो वहीं का वहीं रुक गया और वो फिर एक हसीन ग़शी में खो गई। लेकिन उसे घमंडी और उसके साथ उसका बाप याद आता रहा और उसकी ख़ुश्क आँखों में दास्तानें छलकने लगीं। हवा के एक झोंके से दरवाज़े के पट खुल गए और एक सर्द बगूले के साथ बाहर से गोइन्दी और बेल के पत्ते, गली में बिखरे हुए काग़ज़ों के साथ उड़ कर अंदर चले आए। एक सूख