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मेरा हमसफ़र

सआदत हसन मंटो

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    स्टोरीलाइन

    अलीगढ़ से अमृतसर लौटते एक छात्र की कहानी है। वह ट्रेन में सवार हुआ तो उसे अलविदा कहने आए उसके साथी ने उससे कोई ऐसी बात कही कि उसने उसे पागल कहकर झटक दिया। ट्रेन में उसके साथ सफ़र कर रहे नौजवान ने सोचा कि वह उसे पागल कह रहा है। बात करने पर पता चला कि वह नौजवान अपने घर से सिर्फ़ इसलिए निकल आया है क्योंकि उसका यहूदी बाप उसे पागल कहता है। इसी कारण उसकी बीवी भी उसे छोड़कर अपने मायके चली जाती है।

    प्लेटफार्म पर शहाब, सईद और अब्बास ने एक शोर मचा रखा था। ये सब दोस्त मुझे स्टेशन पर छोड़ने के लिए आए थे, गाड़ी प्लेटफार्म को छोड़ कर आहिस्ता आहिस्ता चल रही थी कि शहाब ने बढ़ कर पाएदान पर चढ़ते हुए मुझ से कहा, “अब्बास कहता है कि घर जा कर अपनी “उन” की ख़िदमत में सलाम ज़रूर कहना।”

    “वो तो पागल है... अच्छा ख़ुदा-हाफ़िज़।” मैंने उन अलीगी दोस्तों से पीछा छुड़ाते हुए ये अलफ़ाज़ जल्दी में अदा किए और शहाब से हाथ मिला कर दरवाज़ा बंद करने के बाद अपनी सीट पर बैठ गया।

    अलीगढ़ और उसकी हसीन इल्मी फ़िज़ा जिसमें मैं इससे कुछ अ’र्सा पहले सांस ले रहा था, अब मुझ से एक तवील अ’र्से के लिए दूर हो रही थी। मेरा दिल सख़्त मग़्मूम था। शहाब अगरचे कॉलिज में बहुत तंग करता था मगर उससे जुदा होने का मुझे अब एहसास हुआ, जब मैंने दफ़अ’तन ख़याल किया कि अमृतसर में मुझे उस ऐसा दिलचस्प दोस्त मयस्सर सकेगा।

    इसी ख़याल के ग़म अफ़ज़ा असर के तहत मैंने सर को जुंबिश देते हुए और इस अ’मल से गोया अपने ज़ेहन से इस तारीकी को झटकते हुए जेब में से सिगरेट की डिबिया निकाली और उसमें से एक सिगरेट निकाल कर उसको सुलगाया और इतमिनान से नशिस्त पर ठिकाने से बैठ कर अपने सामान का जायज़ा लिया और फिर अपने साथी की तरफ़ जो सीट के आख़िरी हिस्से पर बैठा था, पीठ कर के सिगरेट से धुंए के छल्ले बनाने की बेसूद कोशिश में मसरूफ़ हो गया।

    मैं बिल्कुल ख़ालीउज़्ज़ेहन था, मालूम नहीं क्यों? सिगरेट का धुआँ जिसको मैं अपने मुँह से छल्लों की सूरत में निकालने की कोशिश करता था। हवा के तुंद झोंकों की ताब ला कर खिड़की के रास्ते किसी थिरकती हुई रक़्क़ासा की तरह तड़प कर बाहर निकल रहा था। मैं बहुत अ’र्से तक सिगरेट के उस लर्ज़ां धुंए को बड़े ग़ौर से देखता रहा... ये रक़्स की एक तकमील थी।

    “रक़्स की तकमील।” ये अलफ़ाज़ दफ़अ’तन मेरे दिमाग़ में पैदा हुए और मैं अपने इस अछूते ख़याल पर बहुत मसरूर हुआ।

    “क्या मैं पागल हूँ?”

    गाड़ी प्लेटफार्म को छोड़ कर खुले मैदानों में दौड़ रही थी। आहनी पटरियों का बिछा हुआ जाल बहुत पीछे रह गया था। पथरीली रविश के आस पास उगे हुए दरख़्त एक दूसरे का तआ’क़ुब करते मालूम होते थे। मैं ‘रक़्स की तकमील’ और इन दरख़्तों की भाग दौड़ का मुशाहिदा कर रहा था कि इन हैरान-कुन अलफ़ाज़ ने मुझे चौंका दिया जो ग़ालिबन मेरे इस हमसफ़र ने अदा किए थे जो सीट के आख़िरी हिस्से पर कोने में बैठा था। उसने यक़ीनन ये अ’जीब सवाल मुझसे ही पूछा था।

    “क्या आप मुझसे दरयाफ़्त फ़रमा रहे हैं?”

    “जी हाँ, क्या मैं पागल हूँ?” उसने एक बार फिर मुझसे दरयाफ़्त किया।

    ट्रेन की रवानगी पर जब मैंने शहाब से ये कहा था, “वो तो पागल है, अच्छा ख़ुदा हाफ़िज़।” तो शायद इस शरीफ़ आदमी ने ये ख़याल कर लिया था कि मैंने उसी को पागल कहा है... मैं खिलखिला कर हंस पड़ा और निहायत मोअद्दबाना लहजे में कहा, “आपको ग़लत फ़हमी हुई है हज़रत, गाड़ी चलते वक़्त शायद मैंने अपने किसी दोस्त को पागल के नाम से पुकारा था... वो तो है ही पागल। मैं माफ़ी चाहता हूँ कि आपको ख़्वाह-मख़्वाह तकलीफ़ हुई।”

    ये माक़ूल दलील सुन कर मेरा हमसफ़र जो ग़ालिबन कुछ और कहने के लिए ज़रा आगे सरक रहा था ख़ामोश हो गया। ये देख कर मुझे एक गो ना इतमिनान हुआ कि मुआ’मला नहीं बढ़ा।

    इत्तफ़ाक़ से मेरी तबीयत कुछ इस क़िस्म की वाक़े हुई है कि उ’मूमन निकम्मी से निकम्मी बातों पर तैश जाया करता है। चूँकि इससे क़ब्ल कई मर्तबा दौरान-ए-सफ़र में मेरा मुसाफ़िरों से झगड़ा हो चुका था। और मैं इसके तल्ख़ नताइज से अच्छी तरह वाक़िफ़ था, इसलिए लाज़िमी तौर पर मैं इस मुआ’मले को इतनी जल्दी बख़ैर-ओ-ख़ूबी अंजाम पाते देख कर बहुत ख़ुश हुआ। चुनांचे मैंने उस मुसाफ़िर से ख़ुशगवार तअ’ल्लुक़ात पैदा करने के लिए उससे ऐसे ही गुफ़्तगू शुरू की... रस्मी गुफ़्तगू जो आम तौर पर गाड़ियों में मुसाफ़िरों के साथ की जाती है।

    “आप कहाँ तशरीफ़ ले जा रहे हैं?” मैंने उससे दरयाफ़्त किया।

    “मैं...” ये कहते हुए वो कोने से सरकता हुआ उठ कर मेरे मुक़ाबिल वाली सीट पर बैठ गया, “मैं दिल्ली जा रहा हूँ, आप कहाँ उतरेंगे?”

    “मुझे काफ़ी तवील सफ़र करना है... अमृतसर जा रहा हूँ।”

    “अमृतसर...”

    “जी हाँ।”

    “मुझे ये शहर देखने का कई मर्तबा इत्तफ़ाक़ हुआ है। अच्छी बारौनक़ जगह है। कपड़े की तिजारत का मर्कज़ है। क्या आप वहां कॉलिज में पढ़ते हैं?”

    “जी हाँ।” मैंने झूट बोलते हुए कहा क्योंकि उसका सवाल मेरे नज़दीक बहुत ग़ैर दिलचस्प था, इसके इलावा मुझे अंदेशा था कि अगर मैंने अपने हमसफ़र से ये कहा होता कि मैं अलीगढ़ की यूनीवर्सिटी में पढ़ता हूँ तो वो कॉलिज की दिलचस्पियों, उसकी इमारत और उसके ख़ुदा मालूम किन किन हिस्सों और शो’बों के मुतअ’ल्लिक़ मुझ पर सवालात की बौछार शुरू कर देता। इससे क़ब्ल मेरे साथ इस क़िस्म का वाक़िया पेश चुका था। जब मेरे एक रफ़ीक़-ए-सफ़र ने सवाल पूछते पूछते रात की नींद मुझ पर हराम कर दी थी।

    “कौन से कॉलिज में... मेरे ख़याल में वहां कई कॉलिज हैं।” उसने मुझसे दरयाफ़्त किया।

    मैंने झट से जवाब दिया, “ख़ालसा कॉलिज में।”

    “अच्छा, वही जो एंडरसन ने ता’मीर कराया है।”

    “एंडरसन ने, मगर वो सिखों का कॉलिज है हज़रत।” मैंने हैरान होते हुए कहा।

    “मुझे मालूम है मिस्टर, ये एंडरसन सिख हो गया था ना... आपने ग़ालिबन सिख हिस्ट्री का मुताला’ नहीं किया।”

    “शायद।”

    ये कह मैंने गुफ़्तगू को दिलचस्प पाते हुए मुँह मोड़ लिया और खिड़की से बाहर की तरफ़ देखना शुरू कर दिया। गाड़ी अब यू पी के वसीअ’ मैदानों में दनदनाती हुई चली जा रही थी। लोहे के पहियों की वज़नी झनकार और चोबी शहतीरों की खट खट फ़िज़ा में एक अ’जीब यक-आहंग शोर बरपा कर रही थी। उस शोर की सदा-ए-बाज़गश्त ने आस पास के दौड़ते हुए खंबों और दरख़्तों से टकरा कर शाम की ख़ुनक हवा में एक इर्तआ’श पैदा कर दिया था।

    मैंने ऐसे ही खिड़की में से अपना बाज़ू बाहर निकाला। मुँह ज़ोर गाड़ी की तेज़ रफ़्तार की वजह से हवा के ज़बरदस्त धक्के ने मेरे बाज़ू को रेला दे कर पीछे दबा दिया। मैंने ठंडी हवा के उस दबाओ को बहुत प्यारा महसूस किया। चुनांचे मैं खेल में मसरूफ़ हो गया और अपने हमसफ़र और उसकी गुफ़्तगू को बिल्कुल भूल गया। हवा के दबाओ की दिल नवाज़ी बहुत मसरूरकुन थी।

    थोड़ी देर के बाद मैं अपने इस खेल से उकता गया। दर अस्ल बार बार हवा को चीरने से मेरा बाज़ू दुख गया था। अब मैंने मुड़ कर मैदानों की वुसअ’त का नज़ारा करना शुरू कर दिया। डूबते हुए सूरज की सुर्ख़... आतिशीं सुर्ख़ किरनें मैदान के गढ़ों में बारिश के जमा शुदा पानियों पर ज़रनिगारी का काम कर रही थीं। ऐसा मालूम होता था कि ख़ाकस्तरी ज़मीन के सीने पर किसी ने बड़े बड़े आईने आवेज़ां कर दिए हैं। बिजली के तारों और खंबों पर नीलकंठ और अबाबीलें फुदक रही थीं। ये मंज़र बहुत सुहाना था।

    “क्या मैं पागल हूँ?”

    इन अलफ़ाज़ ने एक बार फ़िर उन रंगों को मुंतशिर कर दिया जो मेरे दिल-ओ-दिमाग़ पर एक निहायत ही प्यारी तस्वीर खींच रहे थे। मैं चौंक पड़ा, मेरे उसी हमसफ़र ने मुझसे ये सवाल दरयाफ़्त किया था। मैं मुड़ा, वो मेरी तरफ़ मुस्तफ़्सिराना निगाहों से देख रहा था। ये ख़याल करते हुए कि शायद मेरे कानों को धोका हुआ है मैंने उससे कहा, “क्या इरशाद फ़रमाया आपने?”

    वो एक लम्हा ख़ामोश रहा और फिर अपने सर को झकटते हुए कहा, “कुछ भी नहीं, शायद आप बता सकेंगे!”

    अब मैंने ग़ौर से उसकी तरफ़ देखा। उसकी उम्र ग़ालिबन बीस-बाईस बरस के क़रीब होगी। दाढ़ी कमाल सफ़ाई से मूंडी हुई थी। उसके गाल गोश्त से भरे हुए थे, उनकी मोटाई में बहुत ख़फ़ीफ़ सा फ़र्क़ था, जो सिर्फ़ मुझ ऐसा बारीक-बीं ही देख सकता है। बाल जिनमें से किसी अच्छे और बढ़िया तेल की ख़ुशबू रही थी, पीछे की तरफ़ कंघी किए गए थे जिससे उसकी पेशानी बहुत कुशादा हो गई थी। वो मा’मूली क़िस्म के कश्मीरे का कोट पहने हुए था। कलफ़ शुदा कालर क़मीज़ के साथ लगा हुआ था मगर टाई मौजूद थी... ये मुझे अच्छी तरह याद है।

    मैं अभी कुछ कहने ही वाला था कि वो फिर बोला, “मैं आपसे कुछ दरयाफ़्त करना चाहता हूँ।”

    मैं उसके राज़दाराना लहजे से बहुत मुतहैयर हुआ। आख़िर वो मुझसे क्या दरयाफ़्त करना चाहता है? ये ख़याल करते हुए मैंने झुक कर गोया उसके सवाल का जवाब देने के लिए तैयार हो कर कहा, “बसद शौक़... फ़रमाईए।”

    “क्या मैं पागल हूँ?”

    मेरी हैरत और भी बढ़ गई। मैं समझ सका कि जवाब क्या दूं। आप ही फ़रमाईए मैं उस शख़्स को क्या जवाब दे सकता था जो बज़ाहिर निहायत ही होशमंद इंसान मालूम होता था... बिल्कुल मेरी और आपकी तरह।

    “आप... आप? मैंने तुतलाते हुए कहा।

    “हाँ, हाँ मैं। आप फ़रमाईए ना?” उसने बड़ी संजीदगी से मुझसे दरयाफ़्त किया।

    “मगर क्यों? आप बड़े होशमंद इंसान हैं!”

    “आप अपनी राय मुरत्तब करने में जल्दी से काम लीजिए, फिर ग़ौर फ़रमा कर जवाब दीजिए, क्या मैं वाक़ई पागल हूँ?”

    इसमें ग़ौर करने की बात ही कोई थी। लेकिन फिर भी मैंने अपने हमसफ़र के चेहरे की तरफ़ ग़ौर से देखना शुरू किया। दर अस्ल मैं दो चीज़ें मालूम करना चाहता था। अव्वलन ये कि कहीं वो मुझ से मज़ाक़ तो नहीं कर रहा। सानियन ये कि शायद उसके चेहरे का उतार चढ़ाओ ज़ाहिर कर दे कि वो सचमुच पागल ही है।

    मैंने अपने एक दोस्त से सुना था कि आम तौर पर पागलों की आँखों में सुर्ख़ डोरे उभरे होते हैं। मगर वो आँखें जो मेरी तरफ़ देख रही थीं, ग़ैर मा’मूली तौर पर सफ़ेद थीं। ऐसा मालूम होता था कि वो सफ़ेद चीनी की बनी हुई हैं। मैं कुछ मालूम कर सका।

    “आपको किसी ने बहुत ग़लत तौर पर शक में डाल दिया है।” ये कहते हुए मैंने ख़याल किया कि शायद किसी डाक्टर ने उसको वहम में डाल दिया है, क्योंकि मुझे अच्छी तरह मालूम था कि आजकल के सस्ते और जाहिल डाक्टर बग़ैर सोचे समझे नब्ज़ पर हाथ रख कर किसी को दीवाना किसी को मदक़ूक़ और किसी को ज़ो’फ़-ए-आ’साब का मरीज़ ठहरा देते हैं।

    “मेरा भी यही ख़याल है... मगर आपको क़तई तौर पर यक़ीन है कि मैं वाक़ई पागल नहीं हूँ।” उस ने कहा।

    क़तई तौर पर... जिस शख़्स ने आपको इस वहम में मुब्तला किया है। मेरे ख़याल में वो ख़ुद पागल है।”

    “ख़ैर वो तो पागल नहीं, अच्छा भला है।”

    “वो कौन बुज़ुर्ग हैं?”

    “मेरा अपना बाप।”

    “आपका बाप।”

    “जी हाँ, वो कहता है कि मैं पागल हूँ, हालाँकि मैं ख़ुद इस क़िस्म की कोई अ’लामत नहीं पाता। आज से एक साल क़ब्ल उसकी नज़रों में मैं पागल था। लेकिन जूंही मेरी शादी हुई मेरे बाप ने ये कहना शुरू कर दिया कि मोहन दीवाना है। चुनांचे उसका ये नतीजा हुआ कि ससुराल वालों ने डर के मारे अपनी लड़की को घर बुलवा लिया। अब वो उसको मेरे हवाले नहीं करते। ये किस क़दर रंज-अफ़ज़ा बात है कि मुझे अपनी बीवी के साथ दस-पंद्रह दिन भी बसर करने मयस्सर नहीं हुए।”

    ये कहते हुए उसके चेहरे से मालूम होता था कि वाक़ेअ’तन वो बहुत मग़्मूम है। मैं भी बहुत मुतास्सिर हुआ लेकिन मुझे ये मालूम हो सका कि उसके बाप ने उसे ख़्वाह-मख़्वाह पागल बना कर उसकी ज़िंदगी क्यों तल्ख़ कर दी है।

    “मगर आपके वालिद साहब ने ये हरकत क्यों की?” मैंने उसकी दास्तान में गहरी दिलचस्पी लेते हुए कहा।

    “मिस्टर, वो यहूदी है... पक्का यहूदी। उसको सिर्फ़ अपने तलाई सिक्कों से ग़रज़ है और बस। मैं उस के ख़ून का एक हिस्सा हूँ मगर ये चीज़ उसके दिल पर असर नहीं कर सकती है। अगर उसने मुझे पागल बनाया है तो इसमें भी कोई बड़ा राज़ मुज़मिर है। वो इस क़दर नफ़्सपरस्त है कि मरने के बाद भी वो ये नहीं चाहता कि उसकी जायदाद उसके अपने लड़के के हाथों में चली जाये। देखिए, मैंने तीन साल हुए बी.ए पास किया है, ये अ’लाहिदा बात है कि मैं कोई नौकरी हासिल नहीं कर सका हूँ मगर मेरे बाप को ये तो चाहिए कि वो मुझे अच्छा ख़र्च दे।”

    “यक़ीनन।” मैंने पुरज़ोर ताईद की।

    “लेकिन वो मुझे सिर्फ़ पाँच रुपये माहवार देता है। हक़ीक़त तो ये है कि उसने मेरे शबाब की तमाम रंगीनियों पर अपनी हवस परस्तियों की स्याही उलट दी है। मैं आगरा में पड़ा हूँ, मेरी बीवी दिल्ली में है। मेरे उस यहूदी बाप ने मेरे और उसके दरमियान एक ख़लीज हाइल कर दी है। मैं उससे बेहद मोहब्बत करता हूँ। वो ख़ूबसूरत और पढ़ी लिखी है, मगर वो मजबूर है, हो सकता है कि वो भी मुझे पागल समझती हो। अब मैं उसका फ़ैसला कर देना चाहता हूँ, मैंने अपनी तीन पतलूनें और तीन कोट बेच दिए हैं। अब मैं दिल्ली जा रहा हूँ, देखा जाएगा जो होगा।”

    “आप अपनी बीवी के पास जा रहे हैं।” मैंने उससे दरयाफ़्त किया।

    “जी हाँ, मैं घर में बग़ैर इजाज़त लिए दाख़िल हो जाऊंगा और वहां से अपनी बीवी को लिए बग़ैर हर्गिज़ हर्गिज़ टलूंगा। अगर मैं पागल हूँ, तो हूँ... मगर मुझे यक़ीन है कि सुशीला (ये कहते हुए ज़रा सा झेंप गया) मेरे साथ चलने को तैयार होगी। मैंने उसके लिए नुमाइश में से एक ऊनी स्वेटर ख़रीदा है। वो उसको यक़ीनन पसंद करेगी। क्या आप इसे देखना पसंद फ़रमाएंगे?”

    “अगर आपको ट्रंक वग़ैरा खोलने की ज़हमत उठाना पड़े।” मैंने जवाब दिया।

    “नहीं साहब, ये तो मैंने क़मीज़ के अंदर ख़ुद पहन रखा है।” ये कह कर वो उठा और कोट उतार दिया। फिर क़मीज़ को पतलून की गिरफ़्त से आज़ाद करके उसने उसे भी उतार दिया... वो वाक़ई एक रंग बिरंगी फ़ीतों वाला ज़नाना स्वेटर पहने हुए था।

    “क्या आपको पसंद है? ये मैंने इसलिए पहन रखा है कि अगर सुशीला ने इसको लेने से इनकार कर दिया तो मैं उसे पहने ही रहूँगा।”

    उस ज़नाना स्वेटर में वो किस क़दर अ’जीब मालूम होता था।

    स्रोत:

    دھواں

      • प्रकाशन वर्ष: 1941

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