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MORE BYसआदत हसन मंटो

    स्टोरीलाइन

    यौन इच्छा एक पशुप्रवृत्ति है और इसके लिए किसी स्कीम और योजना की ज़रूरत नहीं होती। इसी मूल बिंदु पर बुनी गई इस कहानी में एक ऐसे नौजवान का वाक़िया बयान किया गया है जो एक पहाड़ी लड़की को आकर्षित करने के लिए हफ़्तों योजना बनाता रहता है फिर भी कामयाब नहीं होता। इसके विपरीत एक लारी ड्राईवर कुछ मिनटों में ही उस लड़की को राम करके अपनी इच्छा पूरी करने में सफल हो जाता है।

    लड़कों और लड़कियों के मआशिक़ों का ज़िक्र हो रहा था। प्रकाश जो बहुत देर से ख़ामोश बैठा अंदर ही अंदर बहुत शिद्दत से सोच रहा था, एक दम फट पड़ा, सब बकवास है, सौ में से निन्नानवे मआशिक़े निहायत ही भोंडे और लच्चर और बेहूदा तरीक़ों से अमल में आते हैं। एक बाक़ी रह जाता है, उसमें आप अपनी शायरी रख लीजिए या अपनी ज़ेहानत और ज़कावत भर दीजिए... मुझे हैरत है... तुम सब तजुर्बेकार हो। औसत आदमी के मुक़ाबले में ज़्यादा समझदार हो। जो हक़ीक़त है, तुम्हारी आँखों से ओझल भी नहीं।

    फिर ये क्या हिमाक़त है कि तुम बराबर इस बात पर ज़ोर दिए जा रहे हो कि औरत को राग़िब करने के लिए नर्म-ओ-नाज़ुक शायरी, हसीन-ओ-जमील शक्ल और ख़ुशवज़ा लिबास, इत्र, लैवेंडर और जाने किस किस ख़ुराफ़ात की ज़रूरत है और मेरी समझ से ये चीज़ तो बिल्कुल बालातर है कि औरत से इश्क़ लड़ाने से पहले तमाम पहलू सोच कर एक स्कीम बनाने की क्या ज़रूरत है।”

    चौधरी ने जवाब दिया, “हर काम करने से पहले आदमी को सोचना पड़ता है।”

    प्रकाश ने फ़ौरन ही कहा, “मानता हूँ। लेकिन ये इश्क़ लड़ाना मेरे नज़दीक बिल्कुल काम नहीं... ये एक... भई तुम क्यों ग़ौर नहीं करते। कहानी लिखना एक काम है। इसे शुरू करने से पहले सोचना ज़रूरी है लेकिन इश्क़ को आप काम कैसे कह सकते हैं... ये एक... ये एक... ये एक... मेरा मतलब है। इश्क़ मकान बनाना नहीं जो आपको पहले नक़्शा बनवाना पड़े... एक लड़की या औरत अचानक आपके सामने आती है। आपके दिल में कुछ गड़बड़ सी होती है। फिर ये ख़्वाहिश पैदा होती है कि वो साथ लेटी हो।

    इसे आप काम कहते हैं... ये एक... ये एक हैवानी तलब है जिसे पूरा करने के लिए हैवानी तरीक़े ही इस्तेमाल करने चाहिऐं। जब एक कुत्ता कुतिया से इश्क़ लड़ाना चाहता है तो वो बैठ कर स्कीम तैयार नहीं करता।

    इसी तरह सांड जब बू सूंघ कर गाय के पास जाता है तो उसे बदन पर इत्र लगाना नहीं पड़ता... बुनियादी तौर पर हम सब हैवान हैं। इसलिए इशक़-ओ-मोहब्बत में जो दुनिया की सब से पुरानी तलब है, इंसानियत का ज़्यादा दख़ल नहीं होना चाहिए।”

    मैंने कहा, “तो इसका ये मतलब हुआ कि शेर-ओ-शायरी, मुसव्विरी, सनम तराशी ये सब फुनूने लतीफ़ा महज़ बेकार हैं?”

    प्रकाश ने सिगरेट सुलगाया और अपना जोश बक़दर-ए-किफ़ायत इस्तेमाल करते हुए कहा, “महज़ बेकार नहीं... मैं समझ गया तुम क्या कहना चाहते हो, तुम्हारा मतलब ये था कि फुनूने लतीफ़ा के वजूद का बाइस औरत है, फिर ये बेकार कैसे हुए। असल बात ये है कि उन के वजूद का बाइस ख़ुद औरत नहीं है, बल्कि मर्द की औरत के मुतअल्लिक़ हद से बढ़ी हुई ख़ुशफ़हमी है। मर्द जब औरत के मुतअल्लिक़ सोचता है तो और सब कुछ भूल जाता है। वो चाहता है कि औरत को औरत समझे... औरत को महज़ औरत समझने से उसके जज़्बात को ठेस पहुंचती है! चुनांचे वो चाहता है उसे ख़ूबसूरत से ख़ूबसूरत रूप में देखे। योरोपी ममालिक में जहां औरतें फ़ैशन की दिलदादा हैं, उनसे जा कर पूछो कि उनके बालों, उनके कपड़ों, उनके जूतों के नित नए फ़ैशन कौन ईजाद करता है।”

    चौधरी ने अपने मख़सूस बेतकल्लुफ़ाना अंदाज़ में प्रकाश के कांधे पर हौले से तमांचा मारा।

    “तुम बहक हो गए हो यार... जूतों के डिज़ाइन कौन बनाता है, सांड गाय के पास जाता है तो उसे लैवेंडर लगाना नहीं पड़ता। यहां बातें होरही थीं कि लड़कों और लड़कियों के वही रुमान कामयाब होते हैं जो शरीफ़ाना ख़ुतूत पर शुरू हों।”

    प्रकाश के होंटों के कोने तंज़ से सिकुड़ गए, “चौधरी साहब क़िबला! आप बिल्कुल बकवास करते हैं। शराफ़त को रखिए आप अपने सिगरेट के डिब्बे में, और ईमान से कहिए वो लौंडिया जिसके लिए आप पूरा एक बरस रूमालों को बेहतरीन लैवेंडर लगा कर स्कीमें बनाते रहे, क्या आपको मिल गई थी?”

    चौधरी साहब ने किसी क़दर खिसयाना हो कर जवाब दिया, “नहीं।”

    “क्यों?”

    “वो... वो किसी और से मोहब्बत करती थी।”

    “किस से... किस उल्लु के पट्ठे से... एक फेरी वाले बज़ार से जिसको तो ग़ालिब के शेर याद थे कृश्न चन्दर के अफ़साने। जो आपके मुक़ाबले में लैवेंडर लगे रूमाल से नहीं बल्कि अपने मैले तहमद से नाक साफ़ करता था।”

    प्रकाश हंसा, “चौधरी साहब क़िबला, मुझे याद है आप बड़ी मोहब्बत से उसे ख़त लिखा करते थे। उनमें आसमान के तमाम तारे नोच कर आपने चिपका दिए। चांद की सारी चांदनी समेट कर उनमें फैला दी मगर उस फेरी वाले बज़ाज़ ने आप की लौंडिया को जिसकी ज़हनी रिफ़अत के आप हर वक़्त गीत गाते थे, जिसकी नफ़ासत पसंद तबीयत पर आप मर मिटे थे, एक आँख मार कर अपने थानों की गठड़ी में बांधा और चलता बना... इसका जवाब है आप के पास?”

    चौधरी मिनमिनाया, “मेरा ख़याल है जिन ख़ुतूत पर मैं चल रहा था, ग़लत थे। उसका नफ़सियाती मुताला भी जो मैंने किया था दुरुस्त साबित हुआ।”

    प्रकाश मुस्कुराया, “चौधरी साहब क़िबला! जिन ख़ुतूत पर आप चल रहे थे, यक़ीनन ग़लत थे। उसका नफ़सियाती मुताला भी जो आपने किया था, सौ फ़ीसद दुरुस्त था और जो कुछ आप कहना चाहते हैं वो भी ठीक नहीं है। इसलिए कि आपको ख़त-कुशी और नफ़सियाती मुताले की ज़हमत उठानी ही नहीं चाहिए थी। नोटबुक निकाल कर उसमें लिख लीजिए कि सौ में सौ मक्खियां शहद की तरफ़ भागी आयेंगी और सौ में निन्नानवे लड़कियां भोंडेपन से माइल होंगी।”

    प्रकाश के लहजे में एक ऐसा तंज़ था जिसका रुख़ चौधरी की तरफ इतना नहीं था जितना ख़ुद प्रकाश की तरफ़ था।

    चौधरी ने सर को जुंबिश दी और कहा, “तुम्हारा फ़लसफ़ा मैं कभी नहीं समझ सकता। आसान बात को तुमने मुश्किल बना दिया है। तुम आर्टिस्ट हो और नोटबुक निकाल कर ये भी लिख लो कि आर्टिस्ट अव़्वल दर्जे के बेवक़ूफ़ होते हैं। मुझे बहुत तरस आता है उन पर, कमबख़्तों की बेवक़ूफ़ी में भी ख़ुलूस होता है। दुनिया भर के मसले हल कर देंगे पर जब किसी औरत से मुडभेड़ होगी तो जनाब ऐसे चक्कर में फंस जाऐंगे कि एक गज़ दूर खड़ी औरत तक पहुंचने के लिए पेशावर का टिकट लेंगे और वहां पहुंच कर सोचेंगे वो औरत आँखों से ओझल कैसे होगई। चौधरी साहब क़िबला, निकालिये अपनी नोटबुक और ये लिख लीजिए कि आप अव़्वल दर्जे के चुग़द हैं।”

    चौधरी ख़ामोश रहा और मुझे एक बार फिर महसूस हुआ कि प्रकाश, चौधरी को आईना बना कर उसमें अपनी शक्ल देख रहा है और ख़ुद को गालियां दे रहा है। मैंने उसे कहा, “प्रकाश ऐसा लगता है चौधरी के बजाय तुम अपने आप को गालियां दे रहे हो।”

    ख़िलाफ़-ए-तवक़्क़ो उसने जवाब दिया, “तुम बिल्कुल ठीक कहते हो, इसलिए कि मैं भी एक आर्टिस्ट हूँ, यानी मैं भी। जब दो और दो चार बनते हैं तो ख़ुश नहीं होता। मैं भी क़िबला चौधरी साहब की तरह अमृतसर के कंपनी बाग़ में औरत से मिल कर फ़रंटीयर मेल से पेशावर जाता हूँ और वहां आँखें मल मल कर सोचता हूँ मेरी महबूबा ग़ायब कहाँ होगई।” ये कह कर प्रकाश ख़ूब हंसा।

    फिर चौधरी से मुख़ातिब हुआ, “चौधरी साहब क़िबला, हाथ मिलाइए। हम दोनों फिसड्डी घोड़े हैं। इस दौड़ में सिर्फ़ वही कामयाब होगा जिसके ज़ेहन में सिर्फ़ एक ही चीज़ हो कि उसे दौड़ना है, ये नहीं कि काम और वक़्त का सवाल हल करने बैठ जाये। इतने क़दमों में इतना फ़ासिला तय होता है तो इतने क़दमों में कितना फ़ासिला तय होगा। इश्क़ ज्योमेट्री है अलजेब्रा, पस बकवास है। चूँकि बकवास है इसलिए इसमें गिरफ़्तार होने वाले को बकवास ही से मदद लेनी चाहिए।”

    चौधरी ने उकताए हुए लहजे में कहा, “क्या बकवास करते हो?”

    “तो सुनो!” प्रकाश जम कर बैठ गया, “मैं तुम्हें एक सच्चा वाक़िया सुनाता हूँ। मेरा एक दोस्त है, मैं उसका नाम नहीं बताऊंगा। दो बरस हुए वो एक ज़रूरी काम से चंबा गया। दो रोज़ के बाद लौट कर उसे डलहौज़ी चला आना था। उसके फ़ौरन बाद अमृतसर पहुंचना था मगर तीन महीने तक वो लापता रहा। उसने घर ख़त लिखा मुझे, जब वापस आया तो उसकी ज़बानी मालूम हुआ कि वो तीन महीने चंबा ही में था। वहां की एक ख़ूबसूरत लड़की से उसे इश्क़ होगया था।”

    चौधरी ने पूछा, “नाकाम रहा होगा।”

    प्रकाश के होंटों पर मानीख़ेज़ मुस्कुराहट पैदा हुई, “नहीं, नहीं... वो कामयाब रहा। ज़िंदगी में उसे एक शानदार तजुर्बा हासिल हुआ। तीन महीने वो चंबा की सर्दियों में ठिठुरता और उस लड़की से इश्क़ करता रहा। वापस डलहौज़ी आने वाला था कि पहाड़ी की एक पगडंडी पर उस काफ़िर जमाल हसीना से उसकी मुडभेड़ हुई। तमाम कायनात सिकुड़ कर उस लड़की में समा गई और वो लड़की फैल कर वालहाना वुसअत इख़्तियार करगई। उसको मोहब्बत होगई थी... क़िबला चौधरी साहब!

    “सुनिए, पंद्रह दिनों तक मुतवातिर वो ग़रीब अपनी मोहब्बत को चंबा की यख़बस्ता फ़िज़ा में दिल के अंदर दबाये छुप-छुप कर दूर से उस लड़की को देखता रहा मगर उसके पास जा कर उससे हमकलाम होने की हिम्मत कर सका... हर दिन गुज़रने पर वो सोचता कि दूरी कितनी अच्छी चीज़ है। ऊंची पहाड़ी पर वो बकरियां चरा रही है। नीचे सड़क पर उसका दिल धड़क रहा है। आँखों के सामने ये शायराना मंज़र लाइए और दाद दीजिए। उस पहाड़ी पर आशिक़-ए-सादिक़ खड़ा है। दूसरी पहाड़ी पर उसकी सीमीं बदन महबूबा... दरमियान में शफ़्फ़ाफ़ पानी का नाला बह रहा है... सुबहान अल्लाह कैसा दिलकश मंज़र है, चौधरी साहब क़िबला।”

    चौधरी ने टोका, “बकवास मत करो जो वाक़िया है, उसे बयान करो।”

    प्रकाश मुस्कुराया, “तो सुनिए... पंद्रह दिन तक मेरा दोस्त इश्क़ के ज़बरदस्त हमले के असरात दूर करने में मसरूफ़ रहा और सोचता रहा कि उसे जल्दी वापस चला जाना चाहिए। उन पंद्रह दिनों में उसने काग़ज़ पेंसिल लेकर तो नहीं लेकिन दिमाग़ ही दिमाग़ में उस लड़की से अपनी मोहब्बत का कई बार जायज़ा लिया। लड़की के जिस्म की हर चीज़ उसे पसंद थी। लेकिन ये सवाल दरपेश था कि उसे हासिल कैसे किया जाये।

    “क्या एक दम बग़ैर किसी तआरुफ़ के वो उससे बातें करना शुरू कर दे? बिल्कुल नहीं, ये कैसे हो सकता था... क्यों, हो कैसे नहीं सकता... मगर फ़र्ज़ कर लिया जाये, उसने मुँह फेर लिया। जवाब दिए बग़ैर अपनी बकरियों को हाँकती, पास से गुज़र गई... जल्दबाज़ी कभी बार आवर नहीं होती... लेकिन उससे बात किए बग़ैर उसे हासिल कैसे किया जा सकता है? एक तरीक़ा है, वो ये कि उसके दिल में अपनी मोहब्बत पैदा की जाये। उसको अपनी तरफ़ राग़िब किया जाये। हाँ हाँ, ठीक है। लेकिन सवाल ये है राग़िब कैसे किया जाये... हाथ से, इशारा... नहीं, बिल्कुल पोच है...

    “सो क़िबला चौधरी साहब! हमारा हीरो इन पंद्रह दिनों में यही सोचता रहा... सोलहवें दिन अचानक बावली पर उस लड़की ने उसकी तरफ़ देखा और मुस्कुरा दी... हमारे हीरो के दिल की बाछें खिल गईं, लेकिन टांगें काँपने लगीं... आपने अब टांगों के मुतअल्लिक़ सोचना शुरू किया। लेकिन जब मुस्कुराहट का ख़याल आया तो अपनी टांगें अलग कर दीं और उस लड़की की पिंडलियों के मुतअल्लिक़ सोचने लगा जो उठी हुई घघरी में से उसे नज़र आई थीं।

    “कितनी सुडौल थीं। लेकिन वो दिन दूर नहीं जब वो उन पर बहुत आहिस्ता आहिस्ता हाथ फेर सकेगा... पंद्रह दिन और गुज़र गए... उधर वो मुस्कुरा कर पास से गुज़रती रही, इधर हमारे हीरो साहब जवाबी मुस्कुराहट की रीहर्सल करते रहे... सवा महीना होगया और उनका इश्क़ सिर्फ़ होंटों पर ही मुस्कुराता रहा। आख़िर एक दिन ख़ुद उस लड़की ने मोह्र-ए-खामोशी तोड़ी और बड़ी अदा से एक सिगरेट मांगा।

    “आप ने सारी डिबिया हवाले करदी और घर आकर सारी रात कपकपाहट पैदा करने वाले ख़्वाब देखते रहे। दूसरे दिन एक आदमी को डलहौज़ी भेजा और वहां से सिगरेटों के पंद्रह पैकेट मंगवा कर एक छोटे से लड़के के हाथ अपनी महबूबा को भिजवा दिए। जब उसने अपनी झोली में डाले तो आपके दिल को दूर खड़े बहुत मसर्रत महसूस हुई। होते होते वो दिन भी गया। जब दोनों बैठ कर बातें करने लगे। कैसी बातें? क़िबला चौधरी साहब बताइए, हमारा हीरो क्या बातें करता था उस से?”

    चौधरी ने उसको उकताए हुए लहजे में जवाब दिया, “मुझे क्या मालूम।”

    प्रकाश मुस्कुराया, “मुझे मालूम है क़िबला चौधरी साहब... घर से चलते वक़्त वो बातों की एक लंबी चौड़ी फ़हरिस्त तैयार करता था। मैं उससे ये कहूंगा, मैं उससे ये कहूंगा, जब वो नाले के पास कपड़े धोती होगी तो मैं आहिस्ता आहिस्ता जा कर उसकी आँखें मीच लूंगा फिर उसकी बग़लों में गुदगुदी करूंगा लेकिन जब उसके पास पहुंचता और आँखें मीचने और गुदगुदी करने का ख़याल आता तो उसे शर्म आजाती... क्या बचपना है... और वो उससे कुछ दूर हट कर बैठ जाता और भेड़ बकरियों की बातें करता रहता...

    “कई दफ़ा उसे ख़याल आया कब तक ये भेड़ बकरियां उसकी मोहब्बत चरती रहेंगी... दो महीने से कुछ दिन ऊपर होगए और अभी तक वो उसके हाथ तक नहीं लगा सका। मगर वो सोचता कि हाथ लगाए कैसे, कोई बहाना तो होना चाहिए लेकिन फिर उसे ख़याल आता बहाने से हाथ लगाना बिल्कुल बकवास है...

    “लड़की की तरफ़ से उसे ख़ामोश इजाज़त मिलनी चाहिए कि वो उसके बदन के जिस हिस्से को भी चाहे हाथ लगा सकता है। अब ख़ामोश इजाज़त का सवाल जाता... उसे कैसे पता चल सकता है उसने ख़ामोश इजाज़त दे दी है... क़िबला चौधरी साहब, उसका खोज लगाते लगाते पंद्रह दिन और गुज़र गए।”

    प्रकाश ने सिगरेट सुलगाया और मुँह से धुआँ निकालते हुए कहने लगा, “इस दौरान में वो काफ़ी घुल मिल गए थे। लेकिन इसका असर हमारे हीरो के हक़ में बुरा हुआ। दौरान-ए-गुफ़्तगु में उसने लड़की से अपने ऊंचे ख़ानदान का कई बार ज़िक्र किया था, अपने ओबाश दोस्तों पर कई बार लानतें भेजी थीं जो पहाड़ी देहातों में जा कर ग़रीब लड़कियों को ख़राब करते थे। कभी दबी ज़बान में, कभी बलंद बाँग अपनी तारीफ़ भी की थी। अब वो कैसे उस लड़की पर अपनी शहवानी ख़्वाहिश ज़ाहिर करता।

    “ज़ाहिर था कि मुआमला बहुत टेढ़ा और पेचदार होगया है। मगर उसका जज़्ब-ए-इशक़ सलामत था इसलिए उसे उम्मीद थी कि एक रोज़ ख़ुद लड़की ही अपना आप थाली में डाल कर उसके हवाले कर देगी... इस उम्मीद में चुनांचे कुछ दिन और बीत गए एक रोज़ कपड़े धोते धोते लड़की ने जबकि हाथ साबुन से भरे हुए थे उससे कहा, “तुम्हारी माचिस ख़त्म होगई है मेरी जेब से निकाल लो... ये जेब ऐन उसकी छाती के उभार के ऊपर थी। हमारा हीरो झेंप गया।

    लड़की ने कहा, “निकाल लो ना... थोड़ी सी हिम्मत करके उसने अपना काँपता हुआ हाथ बढ़ाया और दो उंगलियां बड़ी एहतियात से उसकी जेब में डालीं। माचिस बहुत नीचे थी। घबराया। कहीं और जा टकराएँ। चुनांचे बाहर निकाल लीं और अपनी ख़ाली माचिस से तीली निकाल कर सिगरेट सुलगाया और लड़की से कहा तुम्हारी जेब से माचिस फिर कभी निकालूंगा। ये सुन कर लड़की ने शरीर शरीर नज़रों से उसकी तरफ़ देखा और मुस्कुरा दी।

    हमारे हीरो ने आधा मैदान मार लिया। दूसरा आधा मारने के लिए वो स्कीमें सोचने लगा। एक रोज़ सुबह-सवेरे नाले के उस तरफ़ बैठा, दूसरी तरफ़ नदी पर उस लड़की को बकरियां चराते देख रहा था और उसकी उभरी हुई जेब के माल पर ग़ौर कर रहा था कि नीचे सड़क पर बावली के पास एक मोटर लारी रुकी। सिख ड्राईवर ने बाहर निकल कर पानी पिया और उस लड़की की तरफ़ देखा। मेरे दिल में एक जलन सी पैदा हुई।

    बावली की मुंडेर पर खड़े हो कर इस मोबिल ऑयल से लिथड़े हुए सिख ड्राईवर ने फिर एक बार सावित्री की तरफ़ देखा और अपना ग़लीज़ हाथ उठा कर उसे इशारा किया। मेरे जी में आई पास पड़ा हुआ पत्थर उस पर लुढका दूं... इशारा करने के बाद उसने दोनों हाथ मुँह के इधर उधर रख कर निहायत ही भोंडे तरीक़े से पुकारा, “ओ जानी... मैं सदक़े... आऊं? मेरे तन बदन में आग लग गई।”

    सिख ड्राईवर ने ऊपर चढ़ना शुरू किया। मेरा दिल घुटने लगा। चंद मिनटों ही में वो हरामज़ादा उसके पास खड़ा था लेकिन मुझे यक़ीन था कि अगर उसने कोई बदतमीज़ी की तो वो छड़ी से उसकी ऐसी मरम्मत करेगी कि सारी उम्र याद रखेगा... मैं उधर से निगाह हटा कर उस मरम्मत के बारे में सोच रहा था कि एक दम दोनों मेरी आँखों से ओझल होगए। मैं भागा नीचे, सड़क की तरफ़ बावली के पास पहुंच कर सोचा क्या हिमाक़त है। तशवीश कैसी?

    लेकिन फिर ख़याल आया कहीं वो उल्लू का पट्ठा दराज़ दस्ती कर बैठे। इसलिए पहाड़ी पर तेज़ी से चढ़ना शुरू किया। बड़ी मुश्किल चढ़ाई थी। जगह जगह ख़ारदार झाड़ियां थीं। उनको पकड़ कर आगे बढ़ना पड़ता था। बहुत दूर ऊपर चला गया पर वो दोनों कहीं नज़र आए। हाँपते हाँपते मैंने अपने सामने की झाड़ी पकड़ कर खड़े होने की कोशिश की... क्या देखता हूँ झाड़ी के दूसरी तरफ़ पत्थरों पर सावित्री लेटी है और उस ग़लीज़ ड्राईवर की दाढ़ी उसके चेहरे पर बिखरी हुई है... मेरी... मेरे जिस्म के सारे बाल जल गए। एक करोड़ गालियां उन दोनों के लिए मेरे दिल में पैदा हुईं।

    लेकिन एक लहज़े के लिए सोचा तो महसूस हुआ कि दुनिया का सब से बड़ा चुग़द मैं हूँ। उसी वक़्त नीचे उतरा और सीधा लारियों के अड्डे का रुख़ किया... प्रकाश के माथे पर पसीने की नन्ही नन्ही बूंदें चमकने लगीं।

    स्रोत:

    چغد

      • प्रकाशन वर्ष: 1948

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