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गुज़रे दिनों की याद

अहमद अली

गुज़रे दिनों की याद

अहमद अली

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    स्टोरीलाइन

    हमारी ज़िंदगी में कभी-कभी कोई ऐसा लम्हा आता है जो बीते दिनों की एक ऐसी खिड़की खोल देता है कि उससे यादों की पूरी बहार चली आती है। इस तरह कि हम चाहकर भी उनमें से अपनी मनचाही याद को नहीं चुन सकते। कहानी का नायक भी कुछ ऐसी ही कशमकश में उलझा हुआ है। वह घर में है कि अचानक फ़ोन की घंटी बजती है। सामने से आवाज़ आती है कि वह बताये कि यह आवाज़ किसकी है? नायक अपनी याददाश्त के अनुसार ढेर सारी लड़कियों के नाम लेता है लेकिन उस लड़की का नाम नहीं बता पाता जो उससे बात कर रही है। वह बहुत देर तक याद करने की कोशिश करता है कि आख़िर उससे बात करने वाली लड़की है कौन?

    अब ये बताने से क्या फ़ायदा कि मैं कौन हूँ और क्या हूँ। बस इतना कह देना काफ़ी है कि मेरी ज़िंदगी में थोड़ी सी राहत रही है, लेकिन ज़ियादा तर दर्द-ओ-दरमाँ। अब तो रंज सहते-सहते दिल सुन हो चुका है और याद की वरक़-गर्दानी करते-करते दिमाग़ को हर चीज़ धुँधली-धुँधली मालूम होती है। माज़ी के ग़ुबार की तहें जमते-जमते एक पपड़ी सी जम गई है और असली सतह का नाम-ओ-निशान भी बाक़ी नहीं।

    ज़माना था कि हर चीज़ साफ़ दिखाई देती थी और जो कुछ भी कौन सुनते थे इसमें सुबह के नग़मों की तरह एक ताज़ी गूँज और सुनहरी राग था। लेकिन अब तो हर आवाज़ टेली फ़ोन के तारों पर बदली-बदली सुनाई देती है। मगर इसके बावजूद भी कोई-कोई आवाज़ कानों के मेल को पार करती हुई दिल तक उत्तर जाते है और दिमाग़ में फिर पुराना सा हैजान पैदा कर देती है और वक़्त के सियाह पर्दों को फाड़ती हुई माज़ी से निकल कर हाल की साकित ज़िंदगी में फिर एक नई उमंग और जज़्बा पैदा कर देती है, जैसे एक पत्थर पानी में छोटी-छोटी लहरें पैदा कर के उसके सुकूत को बर्बाद कर देता है। हालाँकि थोड़ी ही देर में हर क़तरा फिर अपनी-अपनी जगह ख़ामोश और साकित हो जाता है।

    आज सुबह को टेलीफ़ोन पर किसी की नर्म और जज़्बा से भरी आवाज़ आई। मैंने पूछा कौन है तो जवाब मिला,

    तुम बताओ।

    मैं तो किसी के टेलीफ़ोन का इंतिज़ार कर रहा था और मुझे ये उम्मीद थी कि कोई पुरानी हमनवा-ओ-हम-राज़ मुझको इत्तिफ़ाक़िया याद करेगी। चुनाँचे जो नाम भी मेरे मुँह में आया मैंने ले डाला,

    शीला।

    और बताओ।

    मैंने जवाब दिया, संतोष लेकिन अफ़सोस कि ये भी ग़लत था। मैंने फ़ौरन ही कहा, माया।

    ख़ैर कोई बात नहीं। ख़ुदा हाफ़िज़। लेकिन ख़ुदा हाफ़िज़ कहते वक़्त आवाज़ दर्द से काँपी और ख़ामोश अंजान में खो गई।

    मैं दिल मसोस के रह गया। मेरे दिल में गर्मी सी दौड़ गई और मेरे कौन बिजली की तेज़गाम लेकिन हल्की लहरों से हिलने लगे और गर्म हो गये। फिर इस इत्तिफ़ाक़ी हैजान से मेरा ख़ून रगों में रुक गया। मैंने भी क्या ग़लती की जो और औरतों के नाम यके-बाद-दीगरे ले डाले। मैं अपनी ग़लती पर अपने आपको बुरा भला कहने लगा। ये हालत कुछ देर क़ायम रही। आवाज़ बहुत प्यारी और मोहब्बत के हैजान पैदा करने वाले जज़्बा से भरी हुई थी। बोलने वाली कोई दर्द भरी महबूबा थी। मगर वक़्त ने मेरे कानों पर कुछ ऐसा पर्दा डाल दिया था कि वो हुस्न की असलियत को पहुँचने से क़ासिर थे। मुझे कब उस से मोहब्बत थी? उसने मुझसे क्या-क्या प्यार की बातें की होंगी मैंने किस-किस तरह अपनी मोहब्बत का इज़हार किया होगा? लेकिन मोहब्बत के दर्द से में अब कुछ ऐसा सन हो गया हूँ कि इस नई चोट को भी भुलाने की कोशिश करता रहा। अगर कोई चीज़ हाथ से जाती रही हो और इत्तिफ़ाक़ से फिर वही चीज़ अँधेरे में क़रीब से आकर कान में वही मोहब्बत भरे जुमले दोहराए और फिर तारीकी में ग़ायब हो जाए तो क़लक़ और भी सिवा हो जाता है। कुछ ऐसी ही कैफ़ियत मेरी हुई।

    फिर मैंने कहा कि आवाज़ से अभी तक मोहब्बत टपकती थी और उन तीनों औरतों के नाम लेने से उसकी रक़ाबत और भी बढ़ गई इसलिए उसने टेली फ़ोन रख दिया। लेकिन जब उसके दिल में रक़ाबत की आग अभी तक बाक़ी थी तो यक़ीनन उसके दिल में मेरी मोहब्बत भी बाक़ी है और वो दोबारा बात करेगी। क्या पिछली मोहब्बत फिर मौज में जाएगी? फिर वही समुंद्र होगा और वही प्रेम की कश्ती और मैं फिर जज़्बात के चप्पूओं से हुस्न की नाव खेता हूँगा।

    अगर मैं उन लड़कियों के नाम लेता तो शायद वो मुझे अपना नाम बना देती। उन जाने हुए नामों ने मुझको उसका नाम जानने से महरूम रखा। मुझे तो कहना चाहिए था कि चूँकि मुझे इतनी कम लड़कियाँ याद करती हैं कि दूर-दराज़ की आवाज़ को पहचानना मुम्किन नहीं और ये कि मेरी मौजूदा ज़िंदगी की ग़लाज़त से हुस्न दूर भागता है। मुझे कहना चाहिये था कि आवाज़ दिल-गुदाज़ और प्यारी है।

    मैं इन ख़्यालों में ग़लताँ-ओ-पेचाँ था और हालाँकि मैं अपने दिल को ये सब कह कर तस्कीन दे रहा था लेकिन एक अनजान जज़्बा से मेरे हाथ-पैर कमज़ोर हो गये थे। मगर टेलीफ़ोन की घंटी फिर बजी। वही दिलकश आवाज़ फ़ासले की मजबूरियों को उबूर करती हुई दरख़्त और दरिया और पहाड़ों को कूदती-फाँदती तेज़-रवी पर साबित-क़दमी से फिर आई। इसमें वही दर्द और वही जज़्बा था।

    तो मैं शीला हूँ उसने कहा, संतोष और माया। मैं माज़ी की एक आवाज़ हूँ। मैं कौन हूँ? ये तुम बताओ। क्या मैं अभी तक तुमको याद हूँ?

    मैंने कहा, आवाज़ बहुत दिलकश और दिल-गुदाज़ है। इसमें दर्द है और मोहब्बत भी। लेकिन तुम जानती हो कि टेलीफ़ोन पर आवाज़ का पहचानना बड़ा मुश्किल होता है। आवाज़ बदल जाती है और इसके अलावा तुम्हें ज़ुकाम भी मालूम होता है, इसलिए पहचानने में दिक़्क़त हो रही है।

    ये तो ठीक है। उसने कहा।

    तो इसलिए ये कह देना कि किसकी आवाज़ है बहुत मुश्किल है।

    ये कोई बात नहीं।

    मुझे वाजिद अली शाह की दर्द भरी ठुमरी याद गई,

    ये कोई बात नहीं, तुम जाओ लिल्लाह, जो भई सो भई।

    लेकिन मैंने माज़ी के दर्द को ज़ाहिर करने से गुरेज़ किया। मेरे दिल में दर-हक़ीक़त मोहब्बत का दर्द फिर उभर आया था और हालाँकि में आवाज़ से उसके जिस्म के नुक़ूश देख सकता, हालाँकि मैं ये भी बता सकता था कि वो कौन है, ताहम उसकी आवाज़ में माज़ी का समुंद्र मौजें ले रहा था, जबकि ज़िंदगी में एहसास था, हुस्न में शोख़ी और इश्क़ में गर्मी मौजूद। आवाज़ उस माज़ी की थी जब मैं ज़िंदा था। ये कि वो माज़ी की आवाज़ थी इसमें ज़र्रा बराबर शक नहीं। मेरे दिल ने मुझे फ़ौरन बता दिया था कि आवाज़ हाल की आवाज़ थी। इसीलिए बग़ैर सोचे-समझे जो नाम मेरी ज़बान पर आए वो माज़ी ही से ताल्लुक़ रखते थे, किसी और ज़िंदगी से जो हाल से सदियों दूर है। एक और नाम मेरे मुँह पर आते-आते रह गया। अगर वो ज़रा और टेलीफ़ोन को बंद करती तो मैं चौथा नाम भी ले देता। एक पाँचवाँ नाम भी मेरे ज़ेहन में था जिसको मैं अब दोहराना चाहता था। वो कौन थी और क्या थी? ख़ाली ये कह देना कि वो माज़ी की आवाज़ थी काफ़ी नहीं। बहुत-सी औरतें थीं जिनसे मुझको मोहब्बत रही है। अपने दौर में हर-एक ला-जवाब और हसीन थी। वो मेरी दिल-रुबा महबूबाएँ थीं और मैं उनका सोगवार आशिक़। लेकिन और भी रही होंगी जिनकी मोहब्बत मुझ पर कभी ज़ाहिर हुई, जिनको मैंने अपनी मोहब्बत का क़िस्सा कभी कह सुनाया था। वो तो मेरे दिल में एक टीस बन के रह गई थीं, वही टीस जो इस वक़्त मेरे घायल सीने में फिर उठ रही है। अब पिछले क़िस्से दोहराने से क्या होता है?

    तुम जाओ लिल्लाह जो भई सो भई...

    ज़िंदगी एक बंद गुंबद है। उस कोने में माज़ी है, उसमें हाल, उसमें मुस्तक़बिल। माज़ी पर से पर्दा हट चुका है और इसकी तस्वीर एक सब्ज़ा-ज़ार की तरह फैली हुई दिखाई देती है। ये मैदान है, ये दरिया और ये पहाड़, ये समुंद्र और समुंद्र के परे और भी मुल्क हैं और यहाँ भी मुख़्तलिफ़ यादें मुर्ग़-ज़ारों और वादियों में मेरी महबूबाओं की शक्ल में रक़्साँ हैं। ये लैला है, ये माया, ये संतोष, ये सलीमा है। ये एंजीला। हर गोशा में एक-एक तस्वीर है और हर एक के बीच-बीच में और तस्वीरें हैं। ये वो आँखें हैं जो नर्गिस से ज़ियादा नर्म और इश्क़ से ज़ाइद बीमार हैं। इनमें सफ़ेदी है, सियाही है और ख़ून की सुर्ख़ी। मोहब्बत के नशे से आँखें चूर हैं, जज़्बे में दिल की हम-राज़। उनकी तह में मेरे दिल की क़ब्र है और उनकी चमक में मेरे इश्क़ की आग। अब भी मेरे मुर्दा-दिल में वो घर किए हैं, अब भी उनका जादू मेरे ख़ून में पोशीदा है।

    ये वो बाहें हैं जो मेरी गर्दन में दिन-ओ-रात पड़ी रहती थीं, जिनकी गर्मी रग-ए-जाँ से मेरे दिल तक पहुँचती थी। ये वो कूल्हे हैं जो अपनी बनावट और ख़ूबसूरती में यूनान की बुत-गिरी को मात करते थे। ये वो बाल हैं जो मेरे शानों को सर्दी से महफ़ूज़ रखते थे, जो अपनी सियाही में सितारों की आब-ओ-ताब लिए थे, ये वो छातियाँ हैं जो मेरे सीने को तसल्ली बख़्शती थीं। लेकिन अब तो ख़्वाब हो गईं ये बातें। हुस्न ना-पाएदार सही, याद ना-पाएदार नहीं। इश्क़ ला-ज़वाल है पर दिल पारा की तरह बे-क़रार और वक़्त हर चीज़ पर ख़ाक डाल देता है। इन बातों को दोहराने से अब फ़ायदा? सिर्फ़ एक याद है जो पर से ज़ियादा हल्की है और पहाड़ों से ज़ियादा भारी।

    अगर तुम हँसो तो शायद मैं तुम्हारा नाम बता सकूँ।

    दूसरी तरफ़ से कोई जवाब मिला।

    अच्छा अब मैं ख़ुदा हाफ़िज़ कहती हूँ।

    ज़रा ठहरो। देखो मेरे सामने एक तस्वीर रखी है। एक तुर्की बच्चे ने बनाई है। तीन घोड़े हैं। निचला छोटा, भद्दा, बे-हंगम है। एक बौने की तरह। उसके ऊपर वाला लंबा है और उसके अयाल किसी डरावने और भयानक गिरगिट की ख़ारदार दुम की तरह हैं। तीसरा एक मछली की तरह हवा में उड़ रहा है...

    उधर से एक दबी हुई हँसी की आवाज़ आई, लेकिन पूरी तरह खुलने पाई थी कि बंद हो गई।

    तुमने तो हँसी भी रोक ली...

    ख़ैर, कोई बात नहीं। आवाज़ में अभी तक वही नर्मी और मोहब्बत, वही जज़्बा था।

    मैं तो सिर्फ़ इतना पूछना चाहती थी कि तुम कैसे हो...

    मैं जो मोहब्बत से मायूस हो चुका था ये हर्गिज़ जानता था कि अभी तक किसी के दुखे हुए दिल में मेरी याद बाक़ी है। मैं जो मोहब्बत को भूल चुका था इस बात का यक़ीन कर सकता था कि कोई ऐसा भी है जिसको अगली मोहब्बत याद है, जिसके पहलू में दिल है और दिल में सोज़-ओ-साज़। मेरा दिल तो मर चुका है, इसमें तो उम्मीद की किरण बाक़ी है इश्क़ का दाग़। अगली बहारें कब की ख़िज़ाँ बन चुकीं, हुस्न वालों ने चमन के फूल लौट कर मसल डाले। दुनिया ने मेरे सब ग़ुरूरों को मिटा दिया था। मेरे ख़्वाब और मेरी ना-मुम्किन तवक़्क़ुआत ग़ैर-हक़ीक़ी साबित हो चुकी थीं। जब तक मुझसे बन पड़ा मैं अपने ख़्वाबों को सीना से चिमटाए रहा, लेकिन बंदर के मरे हुए बच्चे की तरह वो आख़िर-कार एक-एक करके मुझसे जुदा हो गये। चूँकि मेरी तवक़्क़ुआत बहुत गहरी थीं, मेरी ख़्वाहिशात इस दुनिया के लिए ना-मुम्किन, इसलिए वो कभी पूरी हो सकीं। मुझे मालूम था कि ख़्वाब पूरे हो सकते हैं, उम्मीदें बर-आजाती हैं, लेकिन सिर्फ़ उसी वक़्त जबकि इंसान उस चीज़ पर क़ानेअ रहे जो मुयस्सर हो सकती है। मगर जूँ-जूँ ख़्वाहिशें पूरी होती जाती हैं इंसान और सिवा मुश्किल और ना-मुम्किन ख़्वाहिशें करने लगता है। नतीजा ये होता है कि पास की चीज़ हाथ आती है और तवक़्क़ुआत ही पूरी होती हैं।

    ज़िंदगी एक ग़ुबार है, जब तक हवा में रहा आँधी रहा जब बैठ गया तो रेत बन गया। मैंने आँधी की तमन्ना में आँखें भी खोईं और कुछ हासिल किया और पाया। अब तो आँधी जम के रह गई है, आगे ही बढ़ती है और मतला साफ़ होता है, एक मुस्तक़िल रेत की झड़ी है कि दिन-रात बरस्ती है, खुलती है और हैजान ही पैदा करती है। जब तक हो सका मैं दुनिया से लड़ता रहा और फिर बजाय उस चीज़ पर क़नाअत करने के जो मिल सकती थी थक-हार के बैठ रहा और अब जबकि मा-हसल क़रीब था, जबकि मैं कम-से-कम अपने ख़्याल में इस बात के लिए तैयार था कि उस तक पहुँच के आराम करूँ तो मंज़िल एक सराब निकली। नहीं वो क़रीब थी पर कमंद दो-चार हाथ छोटी रही और मैं उस तक पहुँच सका।

    ख़ुदा के लिए अब तो नाम बता दो। मैंने आज़िज़ी से कहा।

    अब इससे क्या हासिल? वो जानती थी कि शायद मुरझाए हुए फूल फिर ज़िंदा हो जाएँ। वो तो मोहब्बत के ग़ुरूर से अभी तक भरी हुई थी लेकिन मैं ज़िंदगी की मार से बे-जान हो चुका था। वो शायद इस ख़्याल में थी कि मैं अभी तक वही आशिक़ हूँ, लेकिन मेरा दिल बुझ के राख हो गया था। मुम्किन है कि उसकी गर्मी से मेरे दिल में भी दोबारा गर्मी जाती।

    सिर्फ़ इतना बता दो कि तुम कैसे हो।

    बस ज़िंदा हूँ। मरता हूँ जीता हूँ। माज़ी की आग भड़क के बुझ गई। मशीनों ने ज़िंदगी की उमँग छीन ली, वो ख़ुश-रंगी रही जोश। अब तो फ़क़त याद ही याद बाक़ी है और उसमें भी सोज़ बाक़ी नहीं। तुम्हारी आवाज़ सुन के जैसे जान में जान आई और वक़्त के सियाह पर्दे हटते नज़र आते हैं...

    मेरी गुफ़्तुगू के बीच-बीच में वो आहिस्ता-आहिस्ता हूँ-हूँ कहती रही पर इतने हल्के से जैसे वो अपने दिल को इस एहतियात से मसल रही हो कि जज़्बा की आवाज़ मुझको सुनाई दे। मगर तार और रुकावटें बेकार साबित हुईं और उसकी कोशिश के बावजूद भी उसके दिल की आवाज़ मुझ तक पहुँच रही थी।

    लेकिन तुम्हें मेरा नाम तक तो मालूम नहीं।

    मेरे दिल पर चोट लगी। काश कि मैं उसका नाम बता सकता। मोहब्बत मुझसे बातें कर रही थी। मैं उसके साँस तक की आवाज़ सुन रहा था, लेकिन क्या मजबूरी का आलम था कि रग-ए-जाँ की तरह क़रीब होते हुए भी मैं उसको छू सकता था। ज़िंदगी हवा में एक काग़ज़ की तरह उलटती-पलटती मालूम होने लगी। सूरज की रौशनी कोनों खदरों में पड़ रही थी और याद मुझसे बहुत दूर फ़िज़ा में घूम रही थी।

    तुम मुझसे दूर हो। अगर तुम मुझको मेरा पता दो तो मैं तुमको ढूँढ लूँगा।

    अब क्या फ़ायदा। मैं रात को जा रही हूँ।

    इसलिए तुमसे मिलना और भी ज़रूरी है।

    वो हिचकिचाई। ऐसा मालूम होता था कि उसकी क़ुव्वत-ए-इरादी कमज़ोर हो चली थी और वो मुझे अपना नाम बताने ही वाली थी, लेकिन उसने कहा,

    नहीं, अब जाने दो। मैं बंद करती हूँ...

    दर्द और यास और तमन्ना की मजबूरी से मैंने कहा, नहीं-नहीं, ज़रा ठहरो, मैं तुम्हारा नाम बताए देता हूँ...

    अच्छा ख़ुदा हाफ़िज़...

    देखो, देखो, नैना... मैंने उसका नाम ले ही डाला। वो ज़रा देर, बस एक लम्हे को झिजकी और कहा, ख़ुदा हाफ़िज़...

    मैं बे-जान टेलीफ़ोन को बड़ी देर तक कान से लगाय रहा। फिर काँपते हुए हाथों से रख दिया। क्या वो नैना थी? मैं कुछ कह सकता था। मेरे दिल ने इस बात की गवाही दी। ये एक और नाम था जो मैंने पहले नामों की तरह ले दिया था। जाने उसने सुना भी या नहीं। मैंने नाम बहुत आहिस्ता से लिया था। ग़ालिबन ये भी ग़लत था।

    मैं सोचता रहा कि वो आख़िर कौन थी। मेरा दिमाग़ मुअत्तल हो चुका था। माज़ी से तस्वीरें निकल कर मेरी आँखों के सामने आईं। मेरे ज़ेहन में बहुत से नाम ब-यक-वक़्त आए और फिर सब एक-दूसरे में मिल कर खो गये। सिर्फ़ एक हैजान और जज़्बा की कैफ़ियत मुझ पे तारी रही जिसमें सब मुहब्बतें और सारा माज़ी मौजूद था। आवाज़ किसी मामूली महबूबा की आवाज़ थी। उसमें सिर्फ़ मेरा माज़ी गूँज रहा था बल्कि मोहब्बत भी। मेरा दिल रोने लगा, मेरी रूह सोगवार थी। याद एक जज़्बा बन के मेरे अंदर समा गई।

    औरत का दिल किस क़दर सख़्त और मुलायम होता है। जब मैं इश्क़ करता था तो उसका दिल पत्थर था और अब जबकि वो मोहब्बत में मुब्तिला थी तो उसका दिल मोम था। लेकिन याद के बर्फ़ानी तूफ़ान ने इसको और भी जमा दिया और मोम भी मेरे लिए संग-ए-ख़ारा बन गया। उसने देख लिया कि वो अकेली मेरे दिल में बस्ती थी। माज़ी की और भी आवाज़ें इसमें बंद थीं। लेकिन वो जानती थी कि मेरा दिल अब वीराना है। उसकी चट्टानें टूट-टूट कर रेत बन चुकी हैं और अब माज़ी की आवाज़ें भी उसमें नहीं गूँजतीं। उस वक़्त जबकि वो ख़ुद बोली तो मैं पुराना आवाज़ बाज़गश्त सुन सका। सिर्फ़ उसकी आवाज़ ही आवाज़ कान में आई लेकिन उसकी मिज़राब ने वो ख़ास पुराना नग़्मा छेड़ा जिसको सुनकर वो मस्त हो जाती। मेरे दिल के साज़ में अब मौसीक़ी पैदा करने की ताक़त ही बाक़ी रही थी। सिर्फ़ याद उभर आई, लेकिन याद भी ऐसी जिसमें आवाज़ें और जज़्बात सब मिल के एक हो गये थे और तो मैं उनको अलैहदा-अलैहदा कर सकता था और अलग-अलग कर के एक को एक से जोड़ सकता।

    याद एक पर की तरह हल्की-फुल्की भी होती है और एक पहाड़ की तरह भारी भी। मैं यादों के बार को अपने दिल में लिए फिरता हूँ। उनके क़ाफ़िले मेरे दिमाग़ में गश्त करते हैं, लेकिन मुझे बोझ तक नहीं मालूम होता। वो अकेली सब महबूबाएँ भी थी और कोई भी थी। मैं तो वो होंट देख सकता था जिनकी शीरीनी के मज़े मेरी ज़बान अभी तक ले रही थी वो रेशम की तरह नर्म छातियाँ मेरे पज़-मुर्दा सीने को तस्कीन दे रही थीं। तो बाँहें मेरे गले में थीं वो आँखें अपनी मोहब्बत के जादू से मुझको अपनी तरफ़ खींच रही थीं। लेकिन वो सब जज़्बात एक याद बन के मेरे अंदर समा गए थे और माज़ी का राग मेरे कानों में बज रहा था।

    क्या वो सब वाक़ई ज़िंदा हक़ीक़तें थीं? क्या वो वाक़ई असलियत का पता दे रही थीं? लेकिन किसी औरत को मुझ से मोहब्बत थी मैंने ही कभी किसी से इश्क़ किया। ये सब मेरे तख़य्युल की तस्वीरें थीं जो पट बिजिनों की तरह चमकीं और ग़ायब हो गईं। मैं था वो थीं मोहब्बत। मेरे होने ने इनको मुझसे छीन लिया। ज़िंदगी बहुत कठिन, दर्द-अंगेज़ और संगलाख़ है।

    स्रोत:

    क़ैद ख़ाना (Pg. 93)

    • लेखक: अहमद अली
      • प्रकाशक: इंशा प्रेस, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1944

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