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एक बाप बिकाऊ है

राजिंदर सिंह बेदी

एक बाप बिकाऊ है

राजिंदर सिंह बेदी

MORE BYराजिंदर सिंह बेदी

    स्टोरीलाइन

    कहानी अख़बार में छपे एक इश्तिहार से शुरू होती है जिसमें एक बाप का हुलिया बताते हुए उसके बिकने की सूचना होती है। इश्तिहार छपने के बाद कुछ लोग उसे खरीदने पहुँचते हैं मगर जैसे-जैसे उन्हें उसकी ख़ामियों के बारे में पता चलता है वे ख़रीदने से इंकार करते जाते हैं। फिर एक दिन अचानक एक बहुत बड़ा कारोबारी उसे ख़रीद लेता है और उसे अपने घर ले आता है। जब उसे पता चलता है कि ख़रीदा हुआ बाप एक ज़माने में बहुत बड़ा गायक था और एक लड़की के साथ उसकी दोस्ती भी थी तो कहानी एक दूसरा रुख़ इख़्तियार कर लेती है।

    कभी सुनी ये बात जो 24 फरवरी के टाइम्स में छपी। ये भी नहीं मालूम कि अख़बार वालों ने छाप कैसे दी। ख़रीद-ओ-फ़रोख़्त के कालम में ये अपनी नौईय्यत का पहला ही इश्तिहार था। जिसने वो इश्तिहार दिया था, इरादा या उसके बग़ैर उसे मुअम्मे की एक शक्ल दे दी थी। पते के सिवा उसमें कोई ऐसी बात थी, जिससे ख़रीदने वाले को कोई दिलचस्पी हो... बिकाऊ है एक बाप। उम्र इकहत्तर साल, बदन इकहरा, रंग गंदुमी, दमे का मरीज़। हवाला बॉक्स नंबर एल 476, मार्फ़त ‘टाइम्स।’

    “इकहत्तर बरस की उम्र में बाप कहाँ रहा... दादा-नाना हो गया वो तो?”

    “उम्र-भर आदमी हाँ-हाँ करता रहता है, आख़िर में नाना हो जाता है।”

    “बाप ख़रीद लाए तो माँ क्या कहेगी, जो बेवा है। अजीब बात है न, ऐसे माँ-बाप जो मियाँ-बीवी हों।”

    “एक आदमी ने उलटे पाँव दुनिया का सफ़र शुरुअ कर दिया है। आज की दुनिया में सब सच है भाई सब सच है।”

    “दमा फैलाएगा।”

    “नहीं बे... दमा मुतअ’द्दी बीमारी नहीं।”

    “है।”

    “नहीं।”

    “है।”

    उन दो आदमियों में चाक़ू चल गए जो भी इस इश्तिहार को पढ़ते थे, बुड्ढे की सनक पे हंस देते थे। पढ़ने के बाद उसे एक तरफ़ रख देते और फिर उठा कर उसे पढ़ने लगते, जैसे ही उन्हें अपना आप अहमक़ मालूम होने लगता, वो इस इश्तिहार को अड़ोसियों पड़ोसियों की नाक तले ठूंस देते...

    “एक बात है। घर में चोरी नहीं होगी।”

    “कैसे?”

    “हाँ, कोई रात-भर खॉँसता रहे।”

    ये सब साज़िश है, ख़्वाब-आवर गोलियाँ बेचने वालों की फिर... एक बाप बिकाऊ है!

    यूँ लोग हंसते-हंसते रोने के क़रीब पहुँच गए।

    घरों में, रास्तों पर, दफ़्तरों में बात डाक होने लगी, जिससे वो इश्तिहार और भी मुश्तहिर हो गया।

    जनवरी फ़रवरी के महीने बिल-उ’मूम पतझड़ के होते हैं... एक-एक दारोग़ा के नीचे बीस-बीस झाड़ू देने वाले, सड़कों पर गिरे सूखे, सड़े, बूढ़े पत्ते उठाते-उठाते थक जाते हैं, जिन्हें उनको घर ले जाने की भी इजाज़त नहीं कि उन्हें जलाएं और सर्दी से ख़ुद और अपने बाल बच्चों को बचाएं। इस पतझड़ और सर्दी के मौसम में वो इश्तिहार गर्मी पैदा करने लगा, जो आहिस्ता-आहिस्ता सेंक में बदल गयी।

    “कोई बात तो होगी?”

    “हो सकता है, पैसे जायदाद वाला...”

    “बकवास... ऐसे में बिकाऊ लिखता?”

    “मुश्किल से अपने बाप से ख़लासी पायी है। बाप क्या था, चंगेज़ हलाकू था साला।”

    “तुमने पढ़ा, मिसेज़ गोस्वामी?”

    “धत्त... हम बच्चे पालेंगी, सुधा, कि बाप? एक अपने ही वो कम नहीं... गोस्वामी है! ही ही ही।”

    “बाप भी हरामी होते हैं...”

    बॉक्स एल 476 में चिट्ठियों का तूमार आया पड़ा था। उसमें एक ऐसी चिट्ठी भी चली आयी थी, जिसमें केरल की किसी लड़की मिस ऊनी कृष्णन ने लिखा था कि वो अबूधाबी में एक नर्स का काम करती रही है और उसके एक बच्चा है। वो किसी ऐसे मर्द के साथ शादी की मुतमन्नी है जिसकी आमदनी मा’क़ूल हो और जो उसकी और बच्चे की मुनासिब देख-भाल कर सके, चाहे वो कितनी उम्र का हो... उसका कोई शौहर होगा, जिसने उसे छोड़ दिया। या वैसे अबूधाबी के किसी शेख़ ने उसे उल्टा पल्टा दिया। चुनांचे ग़ैर मुता’ल्लिक़ होने की वजह से वो अ’र्ज़ी एक तरफ़ रख दी गयी, क्योंकि उसका बिकाऊ बाप से कोई ता’ल्लुक़ था। बहरहाल उन चिट्ठियों से यूँ मालूम होता था जैसे हेडले चेज़, रॉबिंसन, इर्विंग और अगाथा क्रिस्टी के सब पढ़ने वाले इधर पलट पड़े हैं। क्लासीफ़ाईड इश्तिहार छापने वालों ने जनरल मैनेजर को तजवीज़ पेश की कि इश्तिहारों के नर्ख़ बढ़ा दिये जायें। मगर नौजवान बुड्ढे या बुड्ढे नौजवान मैनेजर ने तजवीज़ को फाड़ कर रद्दी की टोकरी में फेंकते हुए कहा... Shucks... एक पॉप्युलर इश्तिहार की वजह से नर्ख़ कैसे बढ़ा दें?

    उसके अंदाज़ से मालूम होता था जैसे वो किसी ग़लती का इज़ाला करने की कोशिश कर रहा है।

    पुलिस पहुँची। उसने देखा हिंदू कॉलोनी, दादर में गान्धर्व दास, जिसने इश्तिहार दिया था, मौजूद है और साफ़ कहता है कि मैं बिकना चाहता हूँ। अगर इसमें कोई क़ानूनी रंजिश है तो बताइये... वो पान पे पान चबाता और इधर-उधर दीवारों पर थूकता जा रहा था। मज़ीद तफ़तीश से पता चला कि गान्धर्व दास एक गायक था, किसी ज़माने में जिसकी गायकी की बड़ी धूम थी। बरसों पहले उसकी बीवी की मौत हो गयी, जिसके साथ उसकी एक मिनट पटती थी। दोनों मियाँ-बीवी एक औंधी मुहब्बत में बंधे एक दूसरे को छोड़ते भी थे। शाम को गान्धर्व दास का ठीक आठ बजे घर पहुँचना ज़रूरी था। एक दूसरे के साथ कोई लेन-देन रह जाने के बावजूद ये एहसास ज़रूरी था कि... वो है। गान्धर्व दास की तान उड़ती ही सिर्फ़ इसलिए थी कि दमयंती, उसके संगीत से भरपूर नफ़रत करने वाली बीवी घर में मौजूद है और अंदर कहीं गाजर का हलवा बना रही है और दमयंती के लिए ये एहसास तसल्ली बख़्श था,कि उसका मर्द जो बरसों से उसे नहीं बुलाता, साथ के बिस्तर पर पड़ा शराब में बदमस्त ख़र्राटे ले रहा है क्योंकि ख़र्राटा ही एक मौसीक़ी थी, जिसे गान्धर्व की बीवी समझ पाई थी।

    बीवी के चले जाने के बाद, गान्धर्व दास को बीवी की तो सब ज़्यादतियाँ भूल गईं, लेकिन अपने उस पर किए हुए अत्याचार याद रह गए। वो बीच रात के एका एकी उठ जाता और गिरेबान फाड़ कर इधर-उधर भागने लगता। बीवी के बारे में आख़िरी ख़्वाब में उसने देखा कि दूसरी औरत, को देखते ही उसकी बीवी ने वावेला मचा दिया है और रोती चिल्लाती हुई घर से भाग निकली है।

    गान्धर्वदास पीछे दौड़ा। लकड़ी की सीढ़ी के नीचे कच्ची ज़मीन में दमयंती ने अपने आपको दफ़्न कर लिया। मगर मिट्टी हिल रही थी और उसमें दराड़ें सी चली आयी थीं, जिसका मतलब था कि अभी उस में साँस बाक़ी है। हवास बाख़्तगी में गान्धर्वदास ने अपनी औरत को मिट्टी के नीचे से निकाला तो देखा उसके, बीवी के दोनों बाज़ू ग़ायब थे। नाफ़ से नीचे बदन नहीं था। उस पर भी वो अपने ठुंट, अपने पति के गिर्द डाले उससे चिमट गयी और गान्धर्व उसी पुतले से प्यार करता हुआ उसे सीढ़ियों से ऊपर ले आया।

    गान्धर्वदास का गाना बंद हो गया!

    गान्धर्वदास के तीन बच्चे थे... थे क्या... हैं। सबसे बड़ा एक नामी प्लेबैक सिंगर है, जिसके लॉंग प्लेइंग रिकार्ड बाज़ार में आते ही हाथों-हाथ बिक जाते हैं। ईरानी रेस्तोरानों में रखे हुए ज्यूक बॉक्सों से जितनी फ़रमाइशें उसके गानों की होती हैं, और किसी नहीं। इसके बर-अ’क्स गान्धर्वदास के क्लासिकी म्यूज़िक को कोई घास भी डालता था। दूसरा लड़का ऑफसेट प्रिंटर है और जस्त की प्लेटें भी बनाता है। प्रेस से वो डेढ़ हज़ार रूपया महीना पाता है और अपनी इतालवी बीवी के साथ रंग-रलियाँ मनाता है। कोई जीए या मरे, उसे इस बात का ख़्याल ही नहीं। जिस ज़माने में गान्धर्वदास का मौसीक़ी के साज़ बेचने का काम ठप हुआ, तो बेटा भी साथ था। गान्धर्व ने कहा... “चलो, एच. ऐम. वी. के रेकॉर्डों की एजेंसी लेते हैं। छोटे ने जवाब दिया…” हाँ, मगर आपके साथ मेरा क्या मुस्तक़बिल है?” गान्धर्वदास को धचका सा लगा। वो बेटे का मुस्तक़बिल क्या बता सकता था? कोई किसी का मुस्तक़बिल क्या बता सकता है? गान्धर्व का मतलब था कि मैं खाता हूँ तो तुम भी खाओ। मैं भूका मरता हूँ तो तुम भी मरो। तुम जवान हो, तुममें हालात से लड़ने की ताक़त ज़्यादा है। उसके जवाब के बाद गान्धर्वदास हमेशा के लिए चुप हो गया। रही बेटी तो वो एक अच्छे मारवाड़ी घर में ब्याही गयी। जब वो तीनों बहन-भाई मिलते तो अपने बाप को रंडुवा नहीं, मर्द बिधवा कहते और अपनी इस इख़तिराअ’ पे ख़ुद ही हँसने लगते।

    ऐसा क्यों?

    चात्रिक, एक शायर और एकाऊंटेंट, जो इस इश्तिहार के सिलसिले में गान्धर्वदास के हाँ गया था, कह रहा था... इस बुड्ढे में ज़रूर कोई ख़राबी है। वर्ना ये कैसे हो सकता है कि तीन औलाद में से एक भी उसकी देख-रेख करे। क्या वो एक दूसरे के इतने नज़दीक थे कि दूर हो गए? हिंदसों में उलझे रहने की वजह से कहीं चात्रिक के इल्हाम और अल्फ़ाज़ के दरमियान फ़साद पैदा हो गया था। वो जानता था कि हिंदुस्तान तो क्या, दुनिया-भर में कुन्बे का तसव्वुर टूटता जा रहा है। बड़ों का अदब एक फ्यूडल बात हो कर रह गयी है। इसलिए सब बुड्ढे किसी हाईड पार्क में बैठे, इम्तिदाद -ए-ज़माना की सर्दी से ठिठुरे हुए, हर आने जानेवाले को शिकार करते हैं, कि शायद उनसे कोई बात करे। वो यहूदी हैं, जिन्हें कोई हिटलर एक-एक कर के गैस चैंबर में धकेलता जा रहा है, मगर धकेलने से पहले ज़ंबूर के साथ उसके दाँत निकाल लेता है, जिन पर सोना मंढा है। अगर कोई बच गया है तो कोई भांजा-भतीजा इत्तिफ़ाक़िया तौर पर उस बुड्ढे को देखने के लिए उसके मख़रूती अटक में पहुँच जाता है, तो देखता है कि वो तो मरा पड़ा है और उसकी फ़िलज़ाती आँखें अब भी दरवाज़े पर लगी हैं। नीचे की मंज़िल वाले ब-दस्तूर अपना अख़बार बेचने का कारोबार कर रहे हैं, क्योंकि दुनिया में रोज़ कोई कोई वाक़िया तो होता ही रहता है। डाक्टर आकर तस्दीक़ करता है कि बुड्ढे को मरे हुए पंद्रह दिन हो गए। सिर्फ़ सर्दी की वजह से लाश गली सड़ी नहीं। फिर वो भांजा या भतीजा कमेटी को ख़बर कर के मंज़र से टल जाता है, मुबादा आख़िरी रसूम के अख़राजात उसे देने पड़ें।

    चात्रिक ने कहा हो सकता है, बुड्ढे ने कोई अंदोख़्ता रखने के बजाय अपना सब कुछ बच्चों ही पर लुटा दिया हो। अंदोख़्ता ही एक बोली है, जिसे दुनिया के लोग समझते हैं और उनसे ज़्यादा अपने सगे संबंधी, अपने ही बच्चे बाले। कोई संगीत में तारे तोड़ लाए, नक़्क़ाशी में कमाल दिखा जाये, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं। फिर औलाद हमेशा यही चाहती है कि उसका बाप वही करे जिससे वो, औलाद ख़ुश हो। बाप की ख़ुशी किस बात में है, उसकी कोई बात ही नहीं और हमेशा नाख़ुश रहने के लिए अपने, कोई सा भी बेगाना बहाना तराश लेते हैं।

    मगर गान्धर्वदास तो बड़ा हँसमुख आदमी है। हर वक़्त लतीफ़े सुनाता, ख़ुद हँसता और दूसरों को हँसाता रहता है। उसके लतीफ़े अक्सर फ़ुहश होते हैं। शायद वो कोई नक़ाब, मुखौटे हैं, जिनके पीछे वो अपनी जिन्सी नाकामियों और ना आसूदगियों को छुपाता रहता है। या फिर, सीधी सी बात बुढ़ापे में इन्सान वैसे ही ठर्की हो जाता है और अपनी हक़ीक़ी या मफ़रूज़ा फ़ुतूहात की बाज़गश्त!

    इश्तिहार के सिलसिले में आने वाले कुछ लोग इसलिए भी बिदक गए कि गान्धर्वदास पर पचपन हज़ार का क़र्ज़ भी था, जो बात उसने इश्तिहार में नहीं लिखी थी और ग़ालिबन उसकी अ’य्यारी का सबूत थी। उस पर तुरफ़ा एक जवान लड़की से आश्नाई भी थी जो उम्र में उसकी अपनी बेटी रुमा से छोटी थी। वो लड़की, देवयानी, गाना सीखना चाहती थी जो गुरू जी ने दिन रात एक करके उसे सिखा दिया और संगीत की दुनिया के शिखर पर पहुँचा दिया। लेकिन उनकी उम्रों के बुअ’द के बावजूद उनके ता’ल्लुक़ात में जो हैजानी कैफ़ियत थी, उसे दूसरे तो एक तरफ़, ख़ुद वो भी समझ सकते थे। अब भला ऐसे चारों ऐ’ब-ए-शरई बाप को कौन ख़रीदे?

    और फिर... जो हर वक़्त खॉँसता रहे, किसी वक़्त भी दम उलट जाये उसका।

    बाहर जाये तो नौ टॉनिक मार के आये। बल्कि लौटते वक़्त पव्वा भी धोती में छुपा कर ले आये।

    आख़िर... दमे के मरीज़ की उम्र बहुत लंबी होती है!

    गान्धर्वदास संगीत सिखाते हुए ये भी कह उठता, “मैं फिर गाऊँगा।” वो तकरार के साथ ये बात शायद इसलिए भी कहता कि उसे ख़ुद भी इसमें यक़ीन था। वो सुर लगाता भी तो उसे अपने सामने अपनी मरहूम बीवी की रूह दिखाई देती जैसे कह रही हो अभी तक गा रहे हो?

    इस अनोखे मुतालिबे और इम्तिज़ाज की वजह से लोग गान्धर्वदास की तरफ़ यूँ देखते थे जैसे वो कोई बहुत चमकती, दमकती हुई शय हो और जिसका नक़्श वहाँ से टल जाने के बाद भी काफ़ी अ’र्से तक आँख के अंदर पर्दे पर बरक़रार रहे, और उस वक़्त तक पीछा छोड़े जब तक कोई दूसरा उन्सुरी नज़ारा पहले को धुँदला दे।

    किसी ख़ुर्शीद आलम ने कहा, “मैं ख़रीदने को तैयार हूँ बशर्ते कि आप मुसलमान हो जायें।”

    “मुसलमान तो मैं हूँ ही।”

    “कैसे?”

    “मेरा ईमान ख़ुदा पे मुसल्लम है। फिर मैंने जो पाया है, उस्ताद अलाउद्दीन के घराने से पाया है।”

    “आँ... हाँ... वो मुस्लमान... कल्मे वाला...”

    “कल्मा तो साँस है इन्सान की, जो उसके अंदर बाहर जारी और सारी है। मेरा दीन संगीत है। क्या उस्ताद अब्द-उल-करीम ख़ाँ का बाबा हरी दास होना ज़रूरी था?”

    फिर मियाँ ख़ुर्शीद आलम का पता नहीं चला।

    दो तीन औरतें भी आईं। लेकिन गान्धर्वदास, जिसने ज़िंदगी को नौ टॉनिक बना के पी लिया था, बोला, “जो तुम कहती हो, ऐन में उससे उलट चाहती हो। कोई नया तजुर्बा जिससे बदन सो जाये और रूह जाग उठे, उसे करने की तुम में हिम्मत ही नहीं। दीन, धरम, मुआ’शरा जाने किन-किन चीज़ों की आड़ लेती हो, लेकिन बदन रूह को शिकंजे मैं किसके यूँ सामने फेंक देता है। तुम पलंग के नीचे के मर्द से डरती हो और उसे ही चाहती हो। तुम ऐसी कुंवारियाँ हो जो अपने दिमाग़ में इफ़्फ़त ही की रट से अपनी इस्मत लुटवाती हो और वो भी बेमुहार...” और फिर गान्धर्वदास ने एक शैतानी मुस्कुराहट से कहा, “दर-अस्ल तुम्हारे हिज्जे ही ग़लत हैं!”

    उन औरतों को यक़ीन हो गया कि वो अज़ली माएं दरअस्ल बाप नहीं, किसी ख़ुदा के बेटे की तलाश में हैं। वर्ना तीन-तीन, चार-चार तो उनके अपने बेटे हैं, मजाज़ की इस दुनिया में।

    मैं उस दिन की बात करता हूँ, जिस दिन बाणगंगा के मंदिर से भगवान की मूर्ती चोरी हुई। उस दिन पतझड़ बहार पर थी। मंदिर का पूरा अहाता सूखे-सड़े, बूढ़े पत्तों से भर गया। कहीं शाम को बारिश का एक छींटा पड़ा और चोरी से पहले मंदिर की ज्योतियों पे परवानों ने उतनी ही फ़रावानी से क़ुर्बानी दी, जिस फ़रावानी से क़ुदरत उन्हें पैदा करती और फिर उनकी खाद बनाती है। ये वही दिन था, जिस दिन पुजारी ने पहले भगवान कृष्ण की राधा (जो उम्र में अपने आशिक़ से बड़ी थी) की तरफ़ देखा और फिर मुस्कराकर मेहतरानी छब्बू की तरफ़ (जो उम्र में पुजारी की बेटी से छोटी थी) और वो पत्ते और फूल और बीज घर ले गयी।

    मूर्ती तो ख़ैर किसी ने सोने चांदी, हीरे और पन्नों की वजह से चुराई, लेकिन गान्धर्वदास को लार्सन ऐंड लार्सन के मालिक दुरवे ने ‘बेवजह’ ख़रीद लिया। गान्धर्वदास और दुरवे में कोई बात नहीं हुई। बूढ़े ने सिर्फ़ आँखों ही आँखों में उसे कह दिया, “जैसे-तैसे भी हो, मुझे ले लो बेटे।” बिना बेटे के कोई बाप नहीं हो सकता। उसके बाद दुरवे को आँखें मिलाने, सवाल करने की हिम्मत ही पड़ी। सवाल शर्तों का था, मगर शर्तों के साथ कभी ज़िंदगी जी जाये है? दुरवे ने गान्धर्वदास का क़र्ज़ चुकाया, सहारा देकर उसे उठाया और मालाबार हिल के दामन में अपने आ’लीशान बँगले ‘गिरी कुंज’ में ले गया, जहाँ वो उसकी तीमारदारी और ख़िदमत करने लगा।

    दुरवे से उसके मुलाज़िमों ने पूछा... “सर, आप ये क्या मुसीबत ले आये हैं, ये बुड्ढा, मतलब, बाबू जी आपको क्या देते हैं?”

    “कुछ नहीं। बैठे रहते हैं आलती-पालती मारे। खाँसते रहते हैं और या फिर ज़र्दे क़िवाम वाले पान चबाए जाते हैं। जहाँ जी चाहे, थूक देते हैं, जिसकी आ’दत मुझे और मेरी सफ़ाई पसंद बीवी को अभी नहीं पड़ी, मगर पड़ जायेगी... धीरे धीरे... मगर तुमने उनकी आँखें देखी हैं?”

    “जी नहीं।”

    “जाओ, देखो, उनकी रोती-हँसती आँखों में क्या है। उनमें से कैसे-कैसे सन्देस निकल कर कहाँ-कहाँ पहुँच रहे हैं?”

    “कहाँ-कहाँ पहुँच रहे हैं? जमनादास दुरवे के मुलाज़िम ने ग़ैर इरादी तौर पर फ़िज़ा में देखते हुए कहा आप तो साइंसदाँ हैं!”

    “मैं साइंस ही की बात कर रहा हूँ, जमुना! अगर इन्सान के ज़िंदा रहने के लिए फल-फूल और पेड़-पौदे ज़रूरी हैं, जंगल के जानवर ज़रूरी हैं, बच्चे ज़रूरी हैं तो बूढ़े भी ज़रूरी हैं। वर्ना हमारा इकोलाजिकल बैलेंस तबाह हो कर रह जाये। अगर जिस्मानी तौर पर नहीं तो रुहानी तौर पर बे-वज़्न हो कर इन्सानी नस्ल हमेशा के लिए मा’दूम हो जाये।”

    जमनादास और अथावले भाउ कुछ समझ सके।

    दुरवे ने बँगले में लगे अशोक पेड़ का एक पत्ता तोड़ा और जमनादास की तरफ़ बढ़ाते हुए बोला, “अपनी पूरी साइंस से कहो कि ये ताज़गी, ये शगुफ़्तगी, ये शादाबी और ये रंग पैदा कर के दिखाए...”

    अथावले बोला, “वो तो अशोक का बीज बोएँ...”

    “आँ हाँ...” दुरवे ने सर हिलाते हुए कहा, “मैं बीज की नहीं, पत्ते की बात कर रहा हूँ। बीज की बात करेंगे तो हम ख़ुदा जाने कहाँ से कहाँ पहुँच जाऐंगे।”

    फिर जमनादास के क़रीब होते हुए दुरवे बोले, “मैं तुम्हें क्या बताऊं, जमुना! जब मैं बाबूजी के चरण छू कर जाता हूँ तो उनकी निगाहों का मर्म मुझे कितनी शांति, कितनी ठंडक देता है। मैं जो हर वक़्त एक बेनाम डर से काँपता रहता था, अब नहीं काँपता। मुझे हर वक़्त इस बात की तसल्ली रहती है वो तो हैं। मुझे यक़ीन है, बाबूजी की आत्मा को भी कुछ ऐसा ही होता होगा!”

    “मैं नहीं मानता सर, ये ख़ाली खोली जज़्बातियत है।”

    “हो सकता था” दुरवे भड़क उठता... हो सकता था वो जमनादास, अपने मुलाज़िम को अपनी फ़र्म से डिसमिस कर देता। लेकिन बाप की आँखों के मर्म ने उसे ये करने दिया। उलटा उसकी आवाज़ में कहीं से कोई कोमल सुर चला आया और उसने बड़े प्यार से कहा, “तुम कुछ भी कह लो, जमुना पर एक बात तो तुम जानते हो। मैं जहाँ जाता हूँ, लोग मुझे सलाम करते हैं। मेरे सामने सर झुकाते, बिछ-बिछ जाते हैं।”

    दुरवे उसके बाद एका-एकी चुप हो गया। उसका गला और उसकी आँखें धुंदला गयीं।

    सर, मैं भी तो यही कहता हूँ, “दुनिया आपके सामने सर झुकाती है!”

    “इसीलिए...” दुरवे ने अपनी आवाज़ पाते हुए कहा... “कहीं मैं भी अपना सर झुकाना चाहता हूँ। अथावले जमनादास, अब तुम जाओ, प्लीज़! मेरी पूजा में विघ्न डालो। हमने पत्थर से भी ख़ुदा पाया है।”

    ‘गिरी कुंज’ में लगे हुए आम के पेड़ों पर बोर आया। इधर पहली कोयल कूकी, उधर गान्धर्वदास ने बरसों के बाद तान उड़ाई... कोयलिया बोले अमवा की डार...

    वो गाने लगे। किसी ने कहा... “आपका बेटा आपसे अच्छा गाता है।”

    “आईसा?” गान्धर्वदास ने बमबइया बोली में कहा, “आख़िर मेरा बेटा है। बाप ने मैट्रिक किया है तो बेटा एम.ए. करे?”

    ऐसी बातें करते हुए नासमझ, बे बाप के लोग गान्धर्वदास के चेहरे की तरफ़ देखते कि उनकी झुर्रियों में कहीं तो जलन दिखाई दे। जब कोई ऐसी चीज़ नज़र आयी तो किसी ने लुक़मा दिया... “आपका बेटा कहता है, मेरा बाप मुझसे जलता है।”

    “सच? मेरा बेटा कहता है...?”

    “हाँ, मैं झूट थोड़े बोल रहा हूँ।”

    गान्धर्वदास थोड़ी देर के लिए ख़ामोश हो गए। जैसे वो कहीं अंदर आलम-ए-अर्वाह में चले गए हों और माँ से बेटे की शिकायत की हो... बुढ़िया से कोई जवाब पाकर वो धीरे से बोले, “और तो कोई बात नहीं, मेरा बेटा... वो भी बाप है...” वो फिर उन दिनों की तरफ़ लौट गए जब बेटे ने कहा था... “बाबूजी, मैं भी शास्त्रीय संगीत में आप जैसा कमाल पैदा करना चाहता हूँ, मगर ढेर सारा रूपया कमा कर…” और बाबूजी ने बड़ी शफ़क़त से बेटे के कंधे को थपथपाते हुए कहा था, “ऐसे नहीं होता, राजू... या आदमी कमाल हासिल करता है या पैसे ही बनाता चला जाता है।” जब दो बड़े-बड़े आँसू लुढ़क कर गान्धर्वदास की दाढ़ी में अटक गए, जहाँ दुरवे बैठा था, उधर से रौशनी में वो प्रिज़्म हो गए, सफ़ेद रौशनी, जिनमें से निकल कर सात रंगों में बिखर गयी।

    दुरवे को जाने क्या हुआ। वो उठ कर ज़ोर से चिल्लाया... “गेट आउट...” और लोग चूहों की तरह एक दूसरे पर गिरते पड़ते हुए भागे।

    गान्धर्वदास ने अपना हाथ उठाया और सिर्फ़ इतना कहा... “नहीं... बेटे, नहीं...”

    उनके हाथ से कोई बर्क़ी रोईं निकल रही थीं।

    दुरवे जब लार्सन ऐंड लार्सन में गया तो फ़्लिप, उसका वर्क़्स मैनेजर कंप्यूटर को डेटा फ़ीड कर रहा था। कंप्यूटर से कार्ड बाहर आया तो उसका रंग पीला पड़ गया। वो बार-बार आँखें झपक रहा था और कार्ड की तरफ़ देख रहा था... लार्सन ऐंड लार्सन को इक्तालीस 41 लाख का घाटा पड़ने वाला है। इस घबराहट में उसने कार्ड दुरवे के सामने कर दिया, जिसे देखकर उसके चेहरे पर शिकन तक आयी। दुरवे ने सिर्फ़ इतना कहा, “कोई इन्फ़ार्मेशन ग़लत फ़ीड हो गयी है।”

    “नहीं सर... मैंने बीसियों बार चेक, क्रास चेक करके उसे फ़ीड किया है।”

    “तो फिर... मशीन है। कोई नुक़्स पैदा हो गया होगा। आई.बी.एम. वालों को बुलाओ।”

    “मॉक… चीफ़ इंजीनियर तो साउथ गया है।”

    “साउथ कहाँ?”

    “तिरूपति के मंदिर... सुना है उसने अपने लंबे, हिप्पी बाल कटवा कर मूर्ती की नज़र कर दिये हैं!”

    दुरवे हल्का सा मुस्कुराया और बोला... “तुमने ये इन्फ़ार्मेशन फ़ीड की है कि हमारे बीच एक बाप चला आया है?

    फ़्लिप ने समझा, दुरवे उसका मज़ाक़ उड़ा रहे हैं, या वैसे ही उनका दिमाग़ फिर गया है। मगर दुरवे कहता रहा... अब हमारे सर पे किसी का हाथ है, तबरीक है और इसके नतीजे का हौसला और हिम्मत... मत भूलो, ये मशीन किसी इन्सान ने बनाई है, जिसका कोई बाप था, फिर उसका बाप... और आख़िर सबका बाप... जह्ल-ए-मुरक्कब या मुफ़र्रद।

    फ़्लिप ने अपनी अंदरूनी ख़फ़्गी का मुँह मोड़ दिया... “क्या देवयानी अब भी बाबूजी के पास आती है?”

    “हाँ...”

    “मिसेज़ दुरवे कुछ नहीं कहतीं?”

    पहले कहती थीं। अब वो उनकी पूजा करती हैं। बाबू जी दरअस्ल औरत की जात ही से प्यार करते हैं, फ़्लिप... मालूम होता है उन्होंने कहीं प्रकृति के चितवन देख लिये हैं, जिनके जवाब में वो मुस्कुराते तो हैं, लेकिन कभी-कभी बीच में आँख भी मार देते हैं।

    फ़्लिप का गु़स्सा और बढ़ गया।

    दुरवे कहता गया... “बाबू जी को शब्द... बेटी, बहू, भाबी, चाची, लल्ली, मय्या बहुत अच्छे लगते हैं। वो बहू की कमर में हाथ डाल कर प्यार से उसके गाल भी चूम लेते हैं और यूँ क़ैद में आज़ादी पा लेते हैं और आज़ादी में क़ैद।”

    “देवयानी?”

    दुरवे ने हक़ारत से कहा... “तुम सैक्स को उतनी ही अहमियत दो फ़्लिप, जितनी कि वो मुस्तहिक़ है। तीतर-बटेर बने बग़ैर उसे हवास पे मत छाने दो... संगीत शायद एक आड़ थी देवयानी के लिए...”

    “मैं समझा नहीं सर?”

    “बाबूजी ने मुझे बताया कि वो लड़की बचपन ही में आवारा हो गयी। उसने अपने माँ-बाप को कुछ इस आलम में देख लिया, जब कि वो नौख़ेज़ी से जवानी में क़दम रख रही थी। पर वो हमेशा के लिए आप ही अपनी माँ हो गयी। बाप के मरने के बाद वो घबरा कर एक मर्द से दूसरे, दूसरे से तीसरे के पास जाने लगी। उसका बदन टूट-टूट जाता था, मगर रूह थी कि थकती ही थी।”

    “क्या मतलब?”

    “देवयानी को दरअस्ल बाप ही की तलाश थी।”

    फ़्लिप जो एक कैथोलिक था, एक दम भड़क उठा। उसके अब्रू बालिशत भर ऊपर उठ गए। और फैली हुई आँखों से नार-ए-जहन्नम लपकने लगी। उसने चिल्ला कर कहा, “ये फ्रॉड है, मिस्टर दुरवे प्योर, अन एडलट्रेटेड फ्रॉड...”

    जभी दुरवे ने अपने ख़रीदे हुए बाप की नम आँखों को विर्से में लिये, कंप्यूटर के पस मंज़र में खड़े फ़्लिप की तरफ़ देखा और कहा... “आज ही बाबूजी ने कहा था, फ़्लिप! तुम इन्सान को समझने की कोशिश करो, सिर्फ़ महसूस करो उसे...”

    स्रोत:

    मुक्तिबोध (Pg. 50)

    • लेखक: राजिंदर सिंह बेदी
      • प्रकाशक: डायरेक्टर क़ौमी कौंसिल बरा-ए-फ़रोग़-ए-उर्दू ज़बान, नई दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 2011

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