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क़ब्ज़

MORE BYसआदत हसन मंटो

    नए लिखे हुए मुकालमे का काग़ज़ मेरे हाथ में था। ऐक्टर और डायरेक्टर कैमरे के पास सामने खड़े थे। शूटिंग में अभी कुछ देर थी। इस लिए कि स्टूडियो के साथ वाला साबुन का कारख़ाना चल रहा था। हर रोज़ इस कारख़ाने के शोर की बदौलत हमारे सेठ साहब का काफ़ी नुक़्सान होता था। क्योंकि शूटिंग के दौरान में जब इका ईकी उस कारख़ाने की कोई मशीन चलना शुरू हो जाती। तो कई कई हज़ार फ़ुट फ़िल्म का टुकड़ा बेकार हो जाता और हमें नए सिरे से कई सीनों की दुबारा शूटिंग करना पड़ती।

    डायरेक्टर साहब हीरो और हीरोइन के दरमयान कैमरे के पास खड़े सिगरट पी रहे थे और मैं सुस्ताने की ख़ातिर कुर्सी पर टांगों समेत बैठा था। वो यूं कि मेरी दोनों टांगें कुर्सी की नशिस्त पर थीं और मेरा बोझ नशिस्त की बजाय उन पर था। मेरी इस आदत पर बहुत लोगों को एतराज़ है मगर ये वाक़िया है कि मुझे असली आराम सिर्फ़ इसी तरीक़े पर बैठने से मिलता है।

    नेना जिस की दोनों आँखें भैंगी थीं डायरेक्टर साहब के पास आया और कहने लगा। “साहब, वो बोलता है कि थोड़ा काम बाक़ी रह गया है फिर शोर बंद हो जाएगा।”

    ये रोज़मर्रा की बात थी जिस का मतलब ये था कि अभी आध घंटे तक कारख़ाने में साबुन कटते और उन पर ठप्पे लगते रहेंगे। चुनांचे डायरेक्टर साहब हीरो और हीरोइन समेत स्टूडीयो से बाहर चले गए। में वहीं कुर्सी पर बैठा रहा।

    सक़फ़ी लैम्प की नाकाफ़ी रोशनी में सीट पर जो चीज़ें पड़ीं थीं उन का दरमयानी फ़ासिला असली फ़ासले पर कुछ ज़्यादा दिखाई दे रहा था। और गेरवे रंग के थ्री प्लाईवुड के तख़्ते जो दीवारों की सूरत में खड़े थे पस्तक़द दिखाई देते थे। मैं इस तबदीली पर ग़ौर कर रहा था कि पास ही से आवाज़ आई “अस्सलामु अलैकुम।” मैंने जवाब दिया “वाअलैकुम अस्सलाम” और मुड़ कर देखा तो मुझे एक नई सूरत नज़र आई। मेरी आँखों में “तुम कौन हो?” का सवाल तैरने लगा। आदमी होशियार था, फ़ौरन कहने लगा। “जनाब मैं आज ही आप की कंपनी में दाख़िल हुआ हूँ... मेरा नाम अबदुर्रहमान है। ख़ास दिल्ली शहर का रहने वाला हूँ... आपका वतन भी तो शायद दिल्ली ही है।”

    “मैंने कहा। जी नहीं... मैं पंजाब का बाशिंदा हूँ।”

    अबदुर्रहमान ने जेब से ऐनक निकाली। “माफ़ फ़रमाईएगा, चूँकि डायरेक्टर साहब ने ऐनक उतार देने का हुक्म दिया था इस लिए...

    इस दौरान में उस ने ऐनक बड़ी सफ़ाई से कानों में अटका ली और मेरी तरफ़ पसंदीदा निगाहों से देखना शुरू कर दिया। “वल्लाह मैं तो यही समझा था कि आप दिल्ली के हैं, यानी आप की ज़बान में क़तअन पंजाबीयत नहीं... माशा अल्लाह क्या मुकालमा लिखा है... क़लम तोड़ दिया है वल्लाह... ये स्टोरी भी तो आप ही ने लिखी है?”

    अबदुर्रहमान ने जब ये बातें कीं तो उस का क़द भी मेरी नज़र में थ्री प्लाईवुड के तख़्तों की तरह पस्त हो गया। मैंने रूखेपन के साथ कहा। “जी नहीं।”

    वो और ज़्यादा लचकीला हो गया। “अजब ज़माना है साहब, जो अहलीयतों के मालिक हैं उन को कोई पूछता ही नहीं... ये बंबई शहर भी तो मेरी समझ में बिलकुल नहीं आया। अजब ऊटपटांग ज़बान बोलते हैं यहां के लोग, पंद्रह दिन मुझे यहां आए हुए हो गए हैं मगर क्या अर्ज़ करूं सख़्त परेशान हो गया हूँ। आज आप से मुलाक़ात हो गई... इस के बाद उस ने अपने हाथ मलकर उस रोग़न की मरोड़ीयाँ बनाना शुरू कर दीं जो चेहरे पर लगाते वक़्त उसके हाथों पर रह गया था।

    मैंने जवाब में सिर्फ़ “जी हाँ” कर दिया और ख़ामोश हो गया।

    थोड़ी देर के बाद मैंने काग़ज़ खोला और रवारवी में लिखे हुए मुकालमों पर नज़रसानी शुरू करदी। चंद गलतियां थीं जिन को दुरुस्त करने के लिए मैंने अपना क़लम निकाला। अबदुर्रहमान अभी तक मेरे पास खड़ा था। मुझे उस के खड़े होने के अंदाज़ से ऐसा महसूस हुआ जैसे वो कुछ कहना चाहता है। चुनांचे मैंने पूछा। “फ़रमाईए।”

    उस ने बड़ी लजाजत के साथ कहा। “मैं एक बात अर्ज़ करूं।”

    “बड़े शौक़ से।”

    “आप इस तरह टांगें ऊपर करके बैठा करें।”

    “क्यों?”

    उस ने झुक कर कहा “बात ये है कि इस तरह बैठने से क़ब्ज़ हो जाया करता है।”

    “क़ब्ज़?” मेरी हैरत की कोई इंतिहा रही। “क़ब्ज़ कैसे हो सकता है।”

    ये कह कर मेरे जी में आई कि उस से कहूं “मियां होश की दवा लो। घास तो नहीं खा गए... मुझे इस तरह बैठते बीस बरस हो गए... आज क्या तुम्हारे कहने से मुझे क़ब्ज़ हो जाएगा।” मगर ये सोच कर चुप हो गया कि बात बढ़ जाएगी और मुझे बेकार की मग़ज़ दर्दी करना पड़ेगी।

    वो मुस्कुराया। ऐनक के शीशों के पीछे उस की आँखों के आस पास का गोश्त सिकुड़ गया। “आप ने मज़ाक़ समझा है हालाँकि सही बात यही है कि टांगें जोड़ कर पेट के साथ लगा कर बैठने से मेदे की हालत ख़राब हो जाती है। मैंने तो अपनी नाचीज़ राय पेश की है। मानें मानें ये आपको इख़्तियार है।”

    मैं अजब मुश्किल में फंस गया। उस को अब मैं क्या जवाब देता। क़ब्ज़... यानी क़ब्ज़ हो जाएगा। बीस बरस के दौरान में मुझे क़ब्ज़ हुआ लेकिन आज इस मसखरे के कहने से मुझे क़ब्ज़ हो जाएगा। क़ब्ज़ खाने पीने से होता है कि कुर्सी या कोच पर बैठने से। जिस तरह मैं कुर्सी पर बैठता हूँ इस से तो आदमी को राहत होती है। दूसरों को सही लेकिन मुझे तो इस से आराम मिलता है और ये सच्ची बात है कि मुझे टांगें जोड़ कर सीने के साथ लगा देने से एक ख़ास क़िस्म की फ़र्हत हासिल होती है। स्टूडियो में आम तौर पर शूटिंग के दौरान में खड़ा रहना पड़ता है जिस से आदमी थक जाता है। दूसरे नामालूम किस तरीक़े से अपनी थकन दूर करते हैं मगर मैं तो इसी तरीक़े से दूर करता हूँ। किसी के कहने पर मैं अपनी ये आदत कभी नहीं छोड़ सकता। ख़्वाह क़ब्ज़ के बजाय मुझे सरसाम हो जाये। ये ज़िद नहीं, दरअसल बात ये है कि कुर्सी पर इस तरह बैठने का अंदाज़ मेरी आदत नहीं बल्कि मेरे जिस्म का एक जायज़ मुतालिबा है।

    जैसा कि मैं इस से पहले अर्ज़ कर चुका हूँ अक्सर लोगों को मेरे इस तरह बैठने के अंदाज़ पर एतराज़ रहा है। इस एतराज़ की वजह मैंने उन लोगों से कभी पूछी है और उन्हों ने कभी ख़ुद बताई है। एतराज़ की वजह ख़्वाह कुछ भी हो मैं इस मुआमले में अच्छी तरह दलील सुनने के लिए भी तैय्यार नहीं। कोई आदमी मुझे क़ाइल नहीं कर सकता।

    जब अबदुर्रहमान ने मुझ पर नुक्ता चीनी की तो मैं भुन्ना गया और उस का यूँ शुक्रिया अदा किया जैसे कोई ये कहे। “लानत हो तुम पर।”

    इस शुक्रिया की रसीद के तौर पर उस ने अपने मोटे होंटों पर मैली सी मुस्कुराहट पैदा की और ख़ामोश हो गया। इतने में डायरेक्टर हीरो और हीरोइन आगए और शूटिंग शुरू हो गई। मैंने ख़ुदा का शुक्र अदा किया कि चलो इसी बहाने से अबदुर्रहमान के क़ब्ज़ से नजात हासिल हुई।

    उस की पहली मुलाक़ात पर ज़ेल की बातें मेरे दिमाग़ में आईं।

    1 ये एक्स्ट्रा जो कंपनी में नया भर्ती हुआ है बहुत बड़ा चुग़द है।

    2 ये एक्स्ट्रा जो कंपनी में नया भर्ती हुआ है सख़्त बद-तमीज़ है।

    3 ये एक्स्ट्रा जो कंपनी ने नया भर्ती किया है प्रलय दर्जा का मग़्ज़-चाट है।

    4 ये एक्स्ट्रा जो कंपनी में नया दाख़िल हुआ है मुझे इस से बेहद नफ़रत पैदा हो गई है।

    अगर मुझे किसी शख़्स से नफ़रत पैदा हो जाये तो इस का मतलब ये है कि उस की ज़िंदगी कुछ अर्से के लिए ज़्यादा मुतहर्रिक हो जाएगी। मैं नफ़रत करने के मुआमले में काफ़ी महारत रखता हूँ। आप पूछेंगे भला नफ़रत में महारत की क्या ज़रूरत है। लेकिन मैं आप से कहूंगा कि हर काम करने के लिए एक ख़ास सलीक़े की ज़रूरत होती है और नफ़रत में चूँकि शिद्दत ज़्यादा है इस लिए इस के आमिल का माहिर होना अशद ज़रूरी है। मोहब्बत एक आम चीज़ है। हज़रत आदम से लेकर मास्टर निसार तक सब मोहब्बत करते आए हैं मगर नफ़रत बहुत कम लोगों ने की है और जिन्हों ने की है इन में से अक्सर को इस का सलीक़ा नहीं आया। नफ़रत मोहब्बत के मुक़ाबले में बहुत ज़्यादा लतीफ़ और शफ़्फ़ाफ़ है। मोहब्बत में मिठास है जो अगर ज़्यादा देर तक क़ायम रहे तो दिल का ज़ायक़ा ख़राब हो जाता है। मगर नफ़रत में एक ऐसी तुर्शी है जो दिल का क़वाम दुरसत रखती है।

    मैं तो इस बात का क़ाइल हूँ कि नफ़रत इस तरीक़े से करना चाहिए कि उस में मोहब्बत करने का मज़ा मिले। शैतान से नफ़रत करने का जो सबक़ हमें मज़हब ने सिखाया है मुझे इस से सौ फ़ीसदी इत्तिफ़ाक़ है। ये एक ऐसी नफ़रत है जो शैतान की शान के ख़िलाफ़ नहीं। अगर दुनिया में शैतान नाम की कोई हस्ती मौजूद है तो वो यक़ीनन इस नफ़रत से जो कि उस के चारों तरफ़ फैली हुई है ख़ुश होती होगी और सच्च पूछिए तो ये आलमगीर नफ़रत ही शैतान की ज़िंदगी का सबूत है। अगर हमें इस से निहायत ही भोंडे तरीक़े पर नफ़रत करना सिखाया जाता तो दुनिया एक बहुत बड़ी हस्ती के तसव्वुर से ख़ाली होती।

    मैंने अबदुर्रहमान से नफ़रत करना शुरू करदी जिस का नतीजा ये हुआ, कि मेरी और उस की दोनों की ज़िंदगी में हरकत पैदा हो गई। स्टूडियो में और स्टूडियो के बाहर जहां कहीं उस से मेरी मुलाक़ात होती मैं उस की ख़ैरीयत दरयाफ़्त करता और उस से देर तक बातें करता रहता।

    अबदुर्रहमान का क़द मुतवस्सित है और बदन गठा हुआ। जब वो नेकर पहन कर आता तो उस की बे-बाल पिंडलियों का गोश्त फुटबाल के नए कौर के चमड़े की तरह चमकता है। नाक मोटी जिस की कोठी उभरी हुई है। चेहरे के ख़ुतूत मंगोली हैं। माथा चौड़ा जिस पर गहरे ज़ख़्म का निशान है। उस को देख कर ऐसा मालूम होता है कि किसी शैतान लड़के ने अपने डिस्क की लक्कड़ी में चाक़ू से छोटा सा गढ़ा बना दिया है। पेट सख़्त और उभरा हो। हाफ़िज़-ए-क़ुरआन है। चुनांचे बात बात में आयतों के हवाले देता है। कंपनी के दूसरे एक्स्ट्रा उस की इस आदत को पसंद नहीं करते। इस लिए कि उन्हें एहतिराम के बाइस चुप हो जाना पड़ता है।

    डायरेक्टर साहब को जब मेरी ज़बानी मालूम हुआ कि अबदुर्रहमान साफ़ ज़बान बोलता है और ग़लती नहीं करता तो उन्हों ने उसे ज़रूरत से ज़्यादा इस्तिमाल करना शुरू कर दिया। एक ही फ़िल्म में उसे दस मुख़्तलिफ़ आदमियों के भेस में लाया गया। सफ़ैद पोशाक पहना कर उसे होटल में बीरा बना कर खड़ा कर दिया गया। सर पर लंबे लंबे बाल लगा कर और चिमटा हाथ में दे कर एक जगह उस को साधू बनाया गया। चपड़ासी की ज़रूरत महसूस हुई तो उस के चेहरे पर गोंद से लंबी दाढ़ी चिपका दी गई। रेलवे प्लेटफार्म पर बड़ी मूंछें लगा कर उस को टिकट चैकर बना दिया गया... ये सब मेरी बदौलत हुआ, इस लिए कि मुझे उस से नफ़रत पैदा हो गई थी।

    अबदुर्रहमान ख़ुश था कि चंद ही दिनों में वो इतना मक़बूल हो गया और मैं ख़ुश था कि दूसरे एक्स्ट्रा इस से हसद करने लगे हैं, मैंने मौक़ा देख कर सेठ से सिफ़ारिश की, चुनांचे तीसरे महीने उस की तनख़्वाह में दस रुपय का इज़ाफ़ा भी हो गया। इस का ये नतीजा हुआ कि कंपनी के पच्चीस एक्स्ट्राओं की आँखों में वो ख़ार बन के खटकने लगा। लुत्फ़ ये है कि अबदुर्रहमान को इस बात की मुतलक़ ख़बर थी कि मेरी वजह से उस की तनख़्वाह में इज़ाफ़ा हुआ है और मेरी सिफारिशों के बाइस कंपनी के दूसरे डायरेक्टर उस से काम लेने लगे हैं।

    फ़िल्म कंपनी में काम करने के इलावा मैं वहां के एक मुक़ामी हफ़्तावार अख़बार को भी एडिट करता हुँ। एक रोज़ मैंने अपना अख़बार अबदुर्रहमान के हाथ में देखा। जब वो मेरे क़रीब आया तो मुस्कुरा कर उस ने पर्चे की वर्क़ गरदानी शुरू करदी। “मुंशी साहब... ये रिसाला आप ही...

    मैंने फ़ौरन ही जवाब दिया। “जी हाँ।”

    “माशा अल्लाह, कितना ख़ूबसूरत पर्चा निकालते हैं आप... कल रात इत्तिफ़ाक़ से ये मेरे हाथ आगया... बहुत दिलचस्प है, अब मैं हर हफ़्ते ख़रीदा करूंगा।”

    ये उस ने इस अंदाज़ में कहा जैसे मुझ पर बड़ा एहसान कर रहा है। मैंने उस का शुक्रिया अदा कर दिया, चुनांचे बात ख़त्म हो गई।

    कुछ दिनों के बाद जबकि मैं स्टूडीयो के बाहर नीम के पेड़ तले एक टूटी हुई कुर्सी पर बैठा अपने अख़बार के लिए एक कालम लिख रहा था। अबदुर्रहमान आया और बड़े अदब के साथ एक तरफ़ खड़ा हो गया। मैंने उसकी तरफ़ देखा और पूछा “फ़रमाईए।”

    “आप फ़ारिग़ हो जाएं तो मैं...

    “मैं फ़ारिग़ हूँ... फ़रमाईए आपको क्या कहना है।”

    इस के जवाब उस ने एक रंगीन लिफ़ाफ़ा को खोला और अपनी तस्वीर मेरी तरफ़ बढ़ा दी। तस्वीर हाथ में लेते ही जब मेरी नज़र उस पर पड़ी तो मुझे बे-इख़्तियार हंसी आगई। ये हंसी चूँकि बे-इख़्तियार आई थी। इस लिए मैं उसे रोक सका। बाद में जब मुझे इस बात का एहसास हुआ कि अबदुर्रहमान को ये नागवार मालूम हुई होगी तो मैंने कहा। “अबदुर्रहमान साहब इत्तिफ़ाक़ देखिए मैं सुबह से परेशान था कि टाईटल पेच के बाद का सफ़ा कैसे पुर होगा। दो तस्वीरों के बलॉक मिल गए थे। मगर एक की कमी थी... उस वक़्त भी में यही सोच रहा था कि आप ने अपना फ़ोटो मेरी तरफ़ बढ़ा दिया... बहुत अच्छा फ़ोटो है। बलॉक भी इस का ख़ूब बनेगा।”

    अबदुर्रहमान ने अपने मोटे होंट अंदर की तरफ़ सुकेड़ लिए। “आप की बड़ी इनायत है... तू ... तो क्या ये तस्वीर छप जाएगी?”

    मैंने तस्वीर को एक नज़र और देखा और मुस्कुरा कर कहा। “क्यों नहीं। इस हफ़्ते ही के लिए तो मैं ये कह रहा था।”

    इस पर अबदुर्रहमान ने दुबारा शुक्रिया अदा किया। “पर्चे में तस्वीर के साथ एक छोटा सा नोट निकल जाये तो मैं और भी ममनून हूँगा ... जैसा आप मुनासिब ख़्याल फ़रमाएं ... तू ... तो ... माफ़ कीजिए। मैं आप के काम में मुख़िल हो रहा हूँ।”

    ये कह कर वो अपने हाथ आहिस्ता आहिस्ता मलता हुआ चला गया।

    मैंने अब तस्वीर को ग़ौर से देखा। आड़ी मांग निकली हुई थी, एक हाथ में बंबई की भारी भरकम डायरेक्टरी थी जिस पर छपे हुए हुरूफ़ बता रहे थे कि सन सोला की ये किताब फ़ोटोग्राफ़र ने अपने ग्राहकों को तालीम याफ़ता दिखाने के लिए एक या दो आने में ख़रीदी होगी। दूसरे हाथ में जो ऊपर को उठा हुआ था एक बहुत बड़ा पाइप था। इस पाइप की टोंटी अबदुर्रहमान ने इस अंदाज़ से अपने मुँह की तरफ़ बढ़ाई थी कि मालूम होता था चाय का पियाला पकड़े है। लबों पर चाय का घूँट पीते वक़्त जो एक ख़फ़ीफ़ सा इर्तिआश पैदा हुआ करता है वो तस्वीर में उस के होंटों पर जमा हुआ दिखाई देता था। आँखें कैमरे की तरफ़ देखने के बाइस खुल गई थीं, नाक के नथुने थोड़े फूल गए थे। सीने में उभार पैदा करने की कोशिश रायगां नहीं गई थी। क्योंकि वो अच्छा ख़ासा कार्टून बन गया था। याद रहे कि अबदुर्रहमान अंग्रेज़ी लिखना पढ़ना बिलकुल नहीं जानता और तंबाकू से परहेज़ करता है।

    मैंने अपनी गिरह से दाम ख़र्च करके उस के फ़ोटो का बलॉक बनवाया और वाअदे के मुताबिक़ एक तारीफ़ी नोट के साथ पर्चे में छपवा दिया।

    दूसरे रोज़ दस बजे के क़रीब मैं कंपनी के ग़लीज़ रेस्टोराँ में बैठा कड़वी चाय पी रहा था कि अबदुर्रहमान ताज़ा पर्चा जिस में उसकी तस्वीर छपी थी। हाथ में लिए दाख़िल हुआ और आदाब अर्ज़ करके मेरी कुर्सी के पास खड़ा हो गया। उस के होंट अंदर की तरफ़ सिमट रहे थे, आँखों के आस पास का गोश्त सिकुड़ रहा था। जिस का मतलब ये था कि वो ममनून होरहा है। बग़ल में पर्चा दबा कर उस ने हाथ भी मलने शुरू कर दिए। शुक्रिये के कई फ़िक़रे उस ने दिल ही दिल में बनाए होंगे। मगर ना मौज़ूं समझ कर उन्हें मंसूख़ कर दिया होगा। जब मैंने उसे इस उधेड़बुन में देखा तो मातम पुर्सी के अंदाज़ में इस से कहा। “तस्वीर छप गई आप की?... नोट भी पढ़ लिया आप ने?”

    “जी हाँ... आप... की बड़ी नवाज़िश है।”

    एक दम मेरे सीने में दर्द की टीस उठी मेरा रंग पीला पड़ गया। ये दर्द बहुत पुराना है। जिस के दौरे मुझे अक्सर पड़ते रहते हैं। मैं इस के दफ़ीअए के लिए सैंकड़ों ईलाज कर चुका हूँ। मगर ला-हासिल चाय पीते पीते ये दर्द एक दम उठा और सारे सीने में फैल गया। अबदुर्रहमान ने मेरी तरफ़ ग़ौर से देखा और घबराए हुए लहजा में कहा। “आपके दुश्मनों की तबीयत नासाज़ मालूम होती है।”

    मैं उस वक़्त ऐसे मूड में था कि दुश्मनों को भी इस मूज़ी मर्ज़ का शिकार होते देख सकता, चुनांचे मैंने बड़े रूखेपन के साथ कहा। “कुछ नहीं, मैं बिलकुल ठीक हूँ।”

    “जी नहीं, आप की तबीयत नासाज़ है...वो सख़्त घबरा गया। मैं... मैं... मैं आप की क्या ख़िदमत कर सकता हूँ?”

    “मैं बिलकुल ठीक हूँ, आप मुतलक़ फ़िक्र करें... सीने में मामूली सा दर्द है, अभी ठीक हो जाएगा।”

    “सीने में दर्द है... ये कह कर वो थोड़ी देर के लिए सोच में पड़ गया। “सीने में दर्द है तो... तो इस का ये मतलब है कि आप को क़ब्ज़ है और क़ब्ज़...

    क़रीब था कि मैं भुन्ना कर उस को दो तीन गालियां सुना दूं मग़र मैं ने ज़ब्त से काम लिया। “आप... हद करते हैं। आप... सीने के दर्द से क़ब्ज़ का क्या तअल्लुक़?”

    “जी नहीं... क़ब्ज़ हो तो एक सौ एक बीमारी पैदा हो जाती है और सीने का दर्द तो यक़ीनन क़ब्ज़ ही का नतीजा है...आपकी आँखों की ज़रदी साफ़ ज़ाहिर करती है कि आपको पुराना क़ब्ज़ है और जनाब क़ब्ज़ का ये मतलब नहीं कि आप को एक दो रोज़ तक इजाबत हो। जी नहीं, आप जिस को बा-फ़राग़त इजाबत समझते हैं मुम्किन है वो क़ब्ज़ हो... सीना और पेट तो फिर बिलकुल पास पास हैं। क़ब्ज़ से तो सर में दर्द शुरू हो जाता है... मेरा ख़याल है कि आप... दरअसल आपकी कमज़ोरी का बाइस भी यही क़ब्ज़ है।”

    अबदुर्रहमान चंद लम्हात के लिए बिलकुल ख़ामोश हो गया। लेकिन फ़ौरन ही उस ने अपने लहजा में ज़्यादा चिकनाहट पैदा करके कहा। “आप ने कई डाक्टरों का ईलाज क्या होगा... एक मामूली सा ईलाज मेरा भी देखिए ... ख़ुदा के हुक्म से ये मर्ज़ बिलकुल दूर हो जाएगा।”

    मैंने पूछा। “कौन सा मर्ज़?”

    अबदुर्रहमान ने ज़ोर ज़ोर से हाथ मले “यही... यही, क़ब्ज़!”

    लाहौल वला, इस बेवक़ूफ़ से किस ने कह दिया कि मुझे क़ब्ज़ है, सिर्फ़ मेरे सीने में दर्द है जोकि बहुत पुराना है और सब डाक्टरों की मुत्तफ़िक़ा राय है कि इस का बाइस आसाब की कमज़ोरी है। मगर यह नीम हकीम ख़तरा जान बराबर कहे जा रहा है कि मुझे क़ब्ज़ है, क़ब्ज़ है, क़ब्ज़ है, कहीं ऐसा हो मैं इस के सर पर ग़ुस्से में आकर चाय का पियाला दे मारूं। अजब नामाक़ूल आदमी है, अपनी तबाबत का पिटारा खोल बैठा है और किसी की सुनता ही नहीं।

    ग़ुस्से के बाइस मैं बिलकुल ख़ामोश हो गया। इस ख़ामोशी का अबदुर्रहमान ने फ़ायदा उठाया और क़ब्ज़ का ईलाज बताना शुरू कर दिया। ख़ुदा मालूम इस ने क्या क्या कुछ कहा...

    “बात ये है कि पेट में आप के सुद्दे पड़ गए हैं। आप को रोज़ इजाबत तो हो जाती है मगर ये सुद्दे बाहर नहीं निकलते। मेदे का फ़ेअल चूँकि दुरुस्त नहीं रहा इस लिए अंतड़ियों में ख़ुश्की पैदा हो गई है। रतूबत यानी वो लेसदार माद्दा जो फ़ुज़्ले को नीचे फिसलने में मदद देता है आपके अंदर बहुत कम रह गया है। इस लिए मेरा ख़्याल है कि रफ़अ-ए-हाजत के वक़्त आप को ज़रूरत से ज़्यादा ज़ोर लगाना पड़ता होगा। क़ब्ज़ खोलने के लिए आम तौर पर जो अंग्रेज़ी मुस्हिल दवाएं बाज़ार में बिकती हैं बजाय फ़ायदे के नुक़्सान पहुंचाती हैं। इस लिए कि उन से आदत पड़ जाती है और जब आदत पड़ जाये तो आप ख़याल फ़रमाईए कि हर रोज़ पाख़ाना लाने के लिए आप को तीन आने ख़र्च करने पड़ेंगे... यूनानी दवाएं अव्वल तो हम लोगों के मिज़ाज के मुवाफ़िक़ होती हैं दूसरे...”

    मैंने तंग आकर उस से कहा। “आप चाय पियेंगे?” और उस का जवाब सुने बग़ैर होटल वाले को आर्डर दिया “गुलाब, इन के लिए एक डबल चाय लाओ।”

    चाय फ़ौरन ही आगई, अबदुर्रहमान कुर्सी घसीट कर बैठा तो मैं उठ खड़ा हुआ “माफ़ कीजीएगा, मुझे डायरेक्टर साहब के साथ एक सीन के मुतअल्लिक़ बातचीत करना है... फिर कभी गुफ़्तुगू होगी।”

    ये सब कुछ इस क़दर जल्दी में हुआ कि क़ब्ज़ की बाक़ी दास्तान अबदुर्रहमान की ज़बान पर मुंजमिद हो गई और मैं रेस्टोरान से बाहर निकल गया। दर्द शुरू होने के बाइस मेरी तबीयत ख़राब हो गई थी, उस की बातों ने उस की तकद्दुर में और भी इज़ाफ़ा कर दिया। मेरी समझ में नहीं आता था कि वो क्यों इस बात पर मूसिर है कि मुझे क़ब्ज़ है। मेरी सेहत देख कर वो कह सकता था कि मैं मदक़ूक़ हूँ जैसा कि आम लोग मेरे मुतअल्लिक़ कहते आए हैं। वो ये कह सकता था कि मुझे सिल है। मेरी अंतड़ियों में वर्म है। मेरे मेदे में रसूली है, मेरे दाँत ख़राब हैं। मुझे गठिया है मगर बार बार उस का इस बात पर ज़ोर देना क्या मानी रखता था कि मुझे क़ब्ज़ होरहा है यानी अगर मुझे वाक़ई क़ब्ज़ था तो इस का एहसास मुझे पहले होना चाहिए था कि हाफ़िज़ अबदुर्रहमान को?... कुछ समझ में नहीं आता था कि वो ख़्वाह-मख़्वाह मुझे क़ब्ज़ का बीमार क्यों बना रहा था।

    होटल से निकल कर मैं डायरेक्टर साहब के कमरे में चला गया। वो कुर्सी पर बैठे हीरो, विलेन और तीन चार एक्सटरेसों के साथ गप्पें हाँक रहे थे। आउट डोर शूटिंग चूँकि बादलों के बाइस मुल्तवी कर दी गई थी। इस लिए सब को छुट्टी थी। मुझे जब हीरो के पास बैठे तीन चार मिनट गुज़र गए तो मालूम हुआ कि हाफ़िज़ अबदुर्रहमान की बातें हो रही हैं। में हमातन गोश हो गया। एक एक्स्ट्रा ने इस के ख़िलाफ़ काफ़ी ज़हर उगला। दूसरे ने उस की मुख़्तलिफ़ आदात का मुज़हका उड़ाया। तीसरे ने उस के मुकालमा अदा करने की नक़ल उतारी। हीरो को हाफ़िज़ अबदुर्रहमान के ख़िलाफ़ ये शिकायत थी कि वो उस की बोल चाल में ज़बान की गलतीयां निकालता रहता है, विलेन ने डायरेक्टर साहब से कहा। “बड़ा वाहीयात आदमी है साहब, कल एक आदमी से कह रहा था कि मेरा ऐक्टिंग बिलकुल फ़ुज़ूल है। आप उस को एक बार ज़रा डांट पिला दीजीए”

    डायरेक्टर साहब मुस्कुरा कर कहने लगे “तुम सब को उस के ख़िलाफ़ शिकायत है मगर उसे मेरे ख़िलाफ़ एक ज़बरदस्त शिकायत है।”

    तीन चार आदमीयों ने इकट्ठे पूछा। “वो क्या।”

    डायरेक्टर साहब ने पहली मुस्कुराहट को तवील बना कर कहा “वो कहता है कि मुझे दाइमी क़ब्ज़ है जिस के ईलाज की तरफ़ मैंने कभी ग़ौर नहीं किया। मैं उस को कई बार यक़ीन दिला चुका हूँ कि मुझे क़ब्ज़ वब्ज़ नहीं है लेकिन वो मानता ही नहीं, अभी तक इस बात पर अड़ा हुआ है कि मुझे क़ब्ज़ है। कई ईलाज भी मुझे बता चुका है। मैं समझता हूँ कि वो मुझे इस तरह ममनून करना चाहता है।”

    मैंने पूछा। “वो कैसे?”

    “ये कहने से कि मुझे क़ब्ज़ है और फिर उस का ईलाज बताने से... वो मुझे ममनून ही तो करना चाहता है वर्ना फिर इस का क्या मतलब हो सकता है? बात दरअसल ये है कि उसे सिर्फ़ इसी मर्ज़ का ईलाज मालूम है यानी उस के पास चंद ऐसी दवाएं मौजूद हैं। जिन से क़ब्ज़ दूर हो सकता है। चूँकि मुझे वो खासतौर पर ममनून करना चाहता है इस लिए हरवक़्त इस ताक में रहता है कि जूंही मुझे क़ब्ज़ हो वो फ़ौरन ईलाज शुरू करके मुझे ठीक करदे... आदमी दिलचस्प है।”

    सारी बात मेरी समझ में आगई और मैंने ज़ोर ज़ोर से हंसना शुरू कर दिया। “डायरेक्टर साहब... आप के इलावा हाफ़िज़ साहब की नज़र-ए-इनायत ख़ाकसार पर भी है... मैंने कल उन का फ़ोटो अपने पर्चे में छपवाया है। इस एहसान का बदला उतारने के लिए अभी अभी होटल में उन्हों ने मुझे यक़ीन दिलाने की कोशिश की कि मुझे ज़बरदस्त क़ब्ज़ हो रहा है... ख़ुदा का शुक्र है कि मैं उन के इस हमले से बच गया इस लिए कि मुझे क़ब्ज़ नहीं है।”

    इस गुफ़्तुगू के चौथे रोज़ मुझे क़ब्ज़ हो गया, ये क़ब्ज़ अभी तक जारी है यानी उस को पूरे दो महीने हो गए हैं। मैं कई पेटेंट दवाएं इस्तिमाल कर चुका हूँ। मगर अभी तक इस से नजात हासिल नहीं हूई। अब मैं सोचता हूँ कि हाफ़िज़ अबदुर्रहमान को अपनी ख़्वाहिश पूरी करने का एक मौक़ा दे ही दूँ। क्या हर्ज है?... मुझे उस से मोहब्बत तो है नहीं।

    स्रोत:

    دھواں

      • प्रकाशन वर्ष: 1941

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