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किताब का ख़ुलासा

सआदत हसन मंटो

किताब का ख़ुलासा

सआदत हसन मंटो

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    स्टोरीलाइन

    यह कहानी एक बाप के अपनी बेटी के साथ नाजायज़ तअल्लुक़़ात पर आधारित है। बिमला की माँ बहुत पहले ही मर गई थी। वह अपने पिता के साथ अकेली रहा करती थी। दिन में वह अनवर के घर उसकी बहन के पास सिलाई-कढ़ाई का काम सीखने आया करती थी। उसे अनवर से मोहब्बत थी, पर वह उसका इज़हार नहीं कर पाती थी। एक बार वह शदीद बीमार हुई और उसने अनवर के घर आना छोड़ दिया। बाद में पता चला कि उसके यहाँ मरा हुआ बच्चा पैदा हुआ था, जो उसी के बाप का था।

    सर्दियों में अनवर ममटी पर पतंग उड़ा रहा था। उसका छोटा भांजा उसके साथ था। चूँकि अनवर के वालिद कहीं बाहर गए हुए थे और वो देर से वापस आने वाले थे इसलिए वो पूरी आज़ादी और बड़ी बेपर्वाई से पतंग बाज़ी में मशग़ूल था। पेच ढील का था। अनवर बड़े ज़ोरों से अपनी मांग पाई पतंग को डोर पिला रहा था। उसके भांजे ने जिसका छोटा सा दिल धक धक कर रहा था और जिसकी आँखें आसमान पर जमी हुई थीं अनवर से कहा, “मामूं जान खींच के पेटा काट लीजिए।” मगर वो धड़ा धड़ डोर पिलाता रहा।

    नीचे खुले कोठे पर अनवर की बहन सहेलियों के साथ धूप सेंक रही थी। सब कशीदाकारी में मसरूफ़ थीं। साथ साथ बातें भी करती जाती थीं। अनवर की बहन शमीम अनवर से दो बरस बड़ी थी। कशीदाकारी और सीने-पिरोने के काम में माहिर। इसीलिए गली की अक्सर लड़कियां उसके पास आती थीं और घंटों बैठी काम सीखती रहती थीं।

    एक हिंदू लड़की जिसका नाम बिमला था बहुत दूर से आती थी। उसका घर क़रीबन दो मील परे था लेकिन वो हर रोज़ बड़ी बाक़ायदगी से आती और बड़े इन्हिमाक से कशीदाकारी के नए नए डिज़ाइन सीखा करती थी।

    बिमला का बाप स्कूल मास्टर था। बिमला अभी छोटी बच्ची ही थी कि उसकी माँ का देहांत हो गया। बिमला का बाप लाला हरी चरन चाहता तो बड़ी आसानी से दूसरी शादी कर सकता था मगर उसको बिमला का ख़याल था, चुनांचे वो रंडुवा ही रहा और बड़े प्यार मोहब्बत से अपनी बच्ची को पाल पोस कर बड़ा किया।

    अब बिमला सोलह बरस की थी, साँवले रंग की दुबली पतली लड़की। ख़ामोश ख़ामोश, बहुत कम बातें करने वाली, बड़ी शर्मीली। सुबह दस बजे आती। आपा शमीम को परनाम करती और अपना थैला खोल कर काम में मशग़ूल हो जाती।

    अनवर अठारह बरस का था। उसको तमाम लड़कियों में से सिर्फ़ सईदा से हल्की सी दिलचस्पी थी, लेकिन ये हल्की सी दिलचस्पी कोई और सूरत इख़्तियार नहीं कर सकी थी, इसलिए कि उसकी बहन उसको लड़कियों में बैठने की इजाज़त नहीं देती थी। अगर वो कभी एक लहज़े के लिए उनके पास बैठता तो आपा शमीम फ़ौरन ही उसको हुक्म देतीं, “अनवर उठो, तुम्हारा यहां कोई काम नहीं।” और अनवर को इस हुक्म की फ़ौरी ता’मील करनी पड़ती।

    बिमला अलबत्ता कभी कभी अनवर को बुलाती थी, नॉवेल लेने के लिए। उसने शमीम से कहा था, “घर में मेरा जी नहीं लगता। पिता जी बाहर शतरंज खेलने चले जाते हैं। मैं अकेली पड़ी रहती हूँ। अनवर भाई से कहिए, मुझे नॉवेल दे दिया करें पढ़ने के लिए।”

    पहले तो बिमला, शमीम के ज़रिये से नॉवेल लेती रही फिर कुछ अ’र्से के बाद उसने बराह-ए-रास्त अनवर से मांगने शुरू कर दिए। अनवर को बिमला बड़ी अ’जीब-ओ-ग़रीब लड़की लगती थी, या’नी ऐसी जो बड़े ग़ौर से देखने पर दिखाई देती थी। लड़कियों के झुरमुट में तो वो बिल्कुल ग़ायब हो जाती थी। बैठक में जब वो अनवर से नया नॉवेल मांगने आती तो उसको उसकी आमद का उस वक़्त पता चलता जब वो उसके पास आकर धीमी आवाज़ में कहती, “अनवर साहब, ये लीजिए अपना नॉवेल... शुक्रिया।”

    अनवर उसकी तरफ़ देखता। उसके दिमाग़ में अ’जीब-ओ-ग़रीब तशबीह फुदक उठती, ये लड़की तो ऐसी है जैसे किताब का ख़ुलासा।

    बिमला और कोई बात करती। पुराना नॉवेल वापस करके नया नॉवेल लेती और नमस्ते करके चली जाती। अनवर उसके मुतअ’ल्लिक़ चंद लम्हात सोचता, इसके बाद वो उसके दिमाग़ से निकल जाती। लेकिन अनवर ने एक बात ज़रूर महसूस की थी कि बिमला ने एक दो बार उससे कुछ कहना चाहा था मगर कहते कहते रुक गई थी।

    अनवर सोचता, “क्या कहना चाहती थी मुझ से?” इसका जवाब उसका दिमाग़ यूं देता, “कुछ भी नहीं, मुझसे वो क्या कहना चाहती होगी भला?”

    अनवर ममटी पर पतंग उड़ा रहा था। पेच ढील का था, ख़ूब डोर पिला रहा था। दफ़अ’तन उसकी बहन शमीम की घबराई हुई आवाज़ आई, “अनवर, अनवर, अब्बा जी आगए!”

    अनवर को और कुछ सूझा। हाथ से डोर तोड़ी और ममटी पर से नीचे कूद पड़ा। ‘वो काटा, वो काटा’ का शोर बलंद हुआ। अनवर का घुटना बड़े ज़ोरों से छिल गया था। एक उसको इसका दुख था इसपर उसके हरीफ़ फ़ातिहाना नारे लगा रहे थे। लंगड़ाता लंगड़ाता चारपाई पर बैठ गया। घुटने को देखा तो उसमें से ख़ून बह रहा था।

    बिमला सामने बैठी थी। उसने अपना दुपट्टा उतारा, किनारे पर से थोड़ा सा फाड़ा और पट्टी बना कर अनवर के घुटने पर बांध दिया। अनवर उस वक़्त अपने पतंग के मुतअ’ल्लिक़ सोच रहा था। उसको यक़ीन था कि मैदान उसके हाथ रहेगा। लेकिन उसके बाप की बे वक़्त आमद ने उसे मजबूर कर दिया कि वो अपने हाथों से इतने बढ़े हुए पतंग का ख़ातमा कर दे। हरीफ़ों के नारे अभी तक गूंज रहे थे। उसने ग़ुस्सा आमेज़ आवाज़ में अपनी बहन से कहा, “अब्बा जी को भी इसी वक़्त आना था।”

    शमीम मुस्कुराई, “वो कब आए हैं।”

    अनवर चिल्लाया, “क्या कहा?”

    शमीम हंसी, “मैंने तुमसे मज़ाक़ किया था।”

    अनवर बरस पड़ा, “मेरा बेड़ा ग़र्क़ कराके आप हंस रही हैं... अच्छा मज़ाक़ है। एक मेरा इतना बढ़ा हुआ पतंग ग़ारत हुआ। लोगों की आवाज़े सुने... और घुटना अलग ज़ख़्मी हुआ।”

    ये कह कर अनवर ने अपने घुटने की तरफ़ देखा। सफ़ेद मलमल की पट्टी बंधी थी। अब उसको ये याद आया कि ये पट्टी बिमला ने अपना दुपट्टा फाड़ कर उसके बांधी थी। उसने शुक्रगुज़ार आँखों से बिमला को देखा और उसको ऐसा महसूस हुआ कि वो उसके ज़ख़्म के दर्द को महसूस कर रही है।

    बिमला, शमीम से मुख़ातिब हुई, “आपा आप ने बहुत ज़ुल्म किया... ज़्यादा चोट आजाती तो...” वो कुछ और कहते कहते रुक गई और कशीदा काढ़ने में मसरूफ़ हो गई।

    अनवर की निगाह बिमला से हट कर सईदा पर पड़ी। सफ़ेद पुल ओवर में वो उसे बहुत भली मालूम हुई। अनवर उस से मुख़ातिब हुआ, “सईदा, तुम ही बताओ, ये मज़ाक़ अच्छा था? हंसी में फंसी हो जाती तो?”

    शमीम ने उसे डांट दिया, “जाओ अनवर, तुम्हारा यहां कोई काम नहीं।”

    अनवर ने एक निगाह सईदा पर डाली। “बहुत अच्छा,” कह कर उठा और लंगड़ाता लंगड़ाता फिर ममटी पर चढ़ गया। थोड़ी देर पतंग उड़ाए। ग़ुस्से में खींच के हाथ मार कर क़रीबन एक दर्जन पतंग काटे और नीचे उतर आया। घुटने में दर्द था। बैठक में सोफे पर लेट गया और ऊपर कम्बल डाल लिया। थोड़ी देर अपनी फ़ुतूहात के मुतअ’ल्लिक़ सोचा और सो गया।

    तक़रीबन एक घंटे के बाद उसको आवाज़ सुनाई दी जैसे कोई उसे बुला रहा है। उसने आँखें खोलीं, देखा सामने बिमला खड़ी थी। मुरझाई हुई, कुछ सिमटी हुई। अनवर ने लेटे लेटे पूछा, “क्या है बिमला?”

    “जी, मैं आपसे कुछ...” बिमला रुक गई। “जी मैं आपसे कोई... कोई नई किताब दीजिए।”

    अनवर ने कहा, “मेरे घुटने में ज़ोरों का दर्द है, वो जो सामने अलमारी है उसे खोल कर जो किताब तुम्हें पसंद हो ले लो।”

    बिमला चंद लम्हात खड़ी रही, फिर चौंकी, “जी?”

    अनवर ने उसको ग़ौर से देखा। उस दुपट्टे के पीछे जिसमें से बिमला ने पट्टी फाड़ी थी, बड़ी मरियल क़िस्म की छातियां धड़क रही थीं। अनवर को उस पर तरस आया। उसकी शक्ल-ओ-सूरत, उसके ख़द्द-ओ-ख़ाल ही कुछ इस क़िस्म के थे कि उसको देख कर अनवर के दिल-ओ-दिमाग़ में हमेशा रहम के जज़्बात पैदा होते थे। उसको और तो कुछ सूझा, ये कहा, “पट्टी बांधने का शुक्रिया!”

    बिमला ने कुछ कहे बग़ैर अलमारी का रुख़ किया और उसे खोल कर किताबें देखने लगी। अनवर के दिमाग़ में वो तशबीह फिर फुदकी, ये किताब नहीं, किताब का ख़ुलासा है, बहुत ही रद्दी काग़ज़ों पर छपा हुआ!

    बिमला ने एक बार अनवर को कनखियों से देखा मगर जब उसे मुतवज्जा पाया तो उसकी तरफ़ पीठ कर ली। कुछ देर किताबें देखीं, एक मुंतख़ब की, अलमारी को बंद किया, अनवर के पास आई और “मैं ये ले चली हूँ।” कह कर चली गई।

    अनवर ने बिमला के बारे में सोचने की कोशिश की मगर उसको सईदा के सफ़ेद पुल ओवर का ख़याल आता रहा। पुल ओवर पहनने से जिस्म के ख़त कितने वाज़ेह हो जाते हैं... सईदा का सीना और इस बिमला की मरियल छातियां... जैसे इनका दूध अलग करके सिर्फ़ पानी रहने दिया गया है।

    सईदा के घुंघरियाले बाल... कमबख़्त ने अपने माथे के ज़ख़्म के निशान को छुपाने का क्या ढंग निकाला है? बलखाती हुई एक लट छोड़ देती है उस पर... और बिमला... जाने क्या तकलीफ़ है उसे... आज भी कुछ कहते कहते रुक गई थी। मगर मुझसे क्या कहना चाहती है? शायद उसका अंदाज़ ही कुछ इस क़िस्म का हो, हमेशा किताब इसी तरह मांगती है जैसे कोई मदद मांग रही है, कोई सहारा ढूंढ रही है।

    सईदा माशाअल्लाह आज सफ़ेद पुल ओवर में क़ियामत ढहा रही थी... ये क़ियामत ढाना क्या बकवास है? क़ियामत तो हर चीज़ का ख़ातमा है और सईदा तो अभी मेरी ज़िंदगी में शुरू हुई है।

    बिमला... बिमला... भई मेरी समझ में नहीं आई ये लड़की, बाप तो इसको बहुत प्यार करता है। इसी की ख़ातिर उसने दूसरी शादी की। शायद उनको कोई माली तकलीफ़ हो, लेकिन घर तो ख़ासा अच्छा था। एक ही पलंग था लेकिन बड़ा शानदार... सोफा सेट भी बुरा नहीं था। और जो खाना मैंने खाया था उसमें कोई बुराई नहीं थी, सईदा का घर तो बहुत ही अमीराना है। बड़े रईस की लड़की है। इस रियासत की ऐसी तैसी, यही तो बहुत बड़ी मुसीबत है वर्ना... लेकिन छोड़ो जी।सईदा जवान है, कल कलां ब्याह दी जाएगी.... मुझे ख़ुदा मालूम कितने बरस लगेंगे। पूरी ता’लीम हासिल करने में... बी.ए। बी.ए के बाद विलायत... मेम? देखेंगे! लेकिन सफ़ेद पुल ओवर ख़ूब था!”

    अनवर के दिमाग़ में इसी क़िस्म के मख़लूत ख़यालात आते रहे, इसके बाद वो दूसरे कामों में मशग़ूल हो गया।

    दूसरे रोज़ बिमला आई मगर अनवर ने उसकी ग़ैर हाज़िरी को कुछ ज़्यादा महसूस किया, बस सिर्फ़ इतना देखा कि वो लड़कियों के झुरमुट में नहीं है... शायद हो, लेकिन अगले रोज़ जब बिमला आई तो लड़कियों ने उससे पूछा, “बिमला, तुम कल क्यों आईं।”

    बिमला और ज़्यादा मुरझाई हुई थी, और ज़्यादा मुख़्तसर हो गई थी, जैसे किसी ने रन्दा फेर कर उस को हर तरफ़ से छोटा और पतला कर दिया है। उसका साँवला रंग अ’जब क़िस्म की दर्दनाक ज़र्दी इख़्तियार कर गया था।

    लड़कियों का सवाल सुन कर उसने अनवर की तरफ़ देखा जो गमलों में पानी दे रहा था और थैला खोल कर चारपाई पर बैठते हुए कहा, “कल पिता जी... कल पिता जी बीमार थे।”

    शमीम ने अफ़सोस ज़ाहिर किया और पूछा, “क्या तकलीफ़ थी उन्हें?”

    बिमला ने अनवर की तरफ़ देखा। चूँकि वो उसको देख रहा था इसलिए निगाहें दूसरी तरफ़ करलीं और कहा, “तकलीफ़, मालूम नहीं क्या तकलीफ़ थी।” फिर थैले में हाथ डाल कर अपनी चीज़ें निकालीं, “मैं तो नहीं समझती।”

    अनवर ने लौटा मुंडेर पर रखा और बिमला से मुख़ातिब हुआ, “किसी डाक्टर से मशवरा लिया होता।”

    बिमला ने अनवर को बड़ी तेज़ निगाहों से देखा, “उनका रोग डाक्टरों की समझ में नहीं आएगा।”

    अनवर को ऐसा महसूस हुआ कि बिमला ने उससे ये कहा है, “उनका रोग तुम समझ सकते हो।” वो कुछ कहने ही वाला था कि सईदा की आवाज़ उसके कानों में आई। वो बिमला से कह रही थी, “ख़ालू जान के पास जाएं वो बहुत बड़े डाक्टर हैं। यूं चुटकियों में सब कुछ बता देंगे।”

    सईदा ने चुटकी बजाई थी मगर बजी नहीं थी। अनवर ने उससे कहा, “सईदा, तुमसे चुटकी कभी नहीं बजेगी। फ़ुज़ूल कोशिश किया करो।”

    सईदा शर्मा गई, आज उसका पुल ओवर स्याह था। अनवर ने सोचा, कमबख़्त पर हर रंग खिलता है... लेकिन कितने पुल ओवर हैं इसके पास? हर वक़्त कोई कोई बुनती ही रहती है। स्वेटरों और पुल ओवरों का ख़ब्त है। इससे मेरी शादी हो जाये तो मज़े जाऐं, पुल ओवर ही पुल ओवर। दोस्त यार ख़ूब जलें, लेकिन ये बिमला क्यों आज राख की ढेर सी लगती है, सईदा शर्मा गई थी। ये शर्माना मुझे अच्छा नहीं लगता, चुटकी बजाना सीख ले मुझसे... मुझसे नहीं तो किसी और से, लेकिन बेहतरीन चुटकी बजाने वाला हूँ।

    ये सब कुछ उसने एक सेकंड के अ’र्से में सोचा। सईदा ने कोई जवाब दिया था। अनवर ने उससे कहा, “देखिए चुटकी यूं बजाया करते हैं।” और उसने बड़े ज़ोर से चुटकी बजाई।

    इत्तफ़ाक़न उसकी निगाह बिमला पर पड़ी। उसके चेहरे पर मायूसी की मुर्दनी तारी थी। अनवर के दिल में हमदर्दी के जज़्बात उभर आए, “बिमला तुम पिता जी से कहो कि वो किसी अच्छे डाक्टर से ज़रूर मशवरा लें, उनके सिवा तुम्हारा और कौन है?”

    ये सुन कर बिमला की आँखों में आँसू गए। ज़ोर से दोनों होंट भींचे और इंतहाई ज़ब्त के बावजूद ज़ार-ओ-क़तार रोती, बरसाती की तरफ़ दौड़ गई। सारी लड़कियां काम छोड़कर उसकी तरफ़ भागीं।

    अनवर ने बरसाती में जाना मुनासिब समझा और नीचे बैठक में चला गया। बिमला के बारे में उस ने सोचने की कोशिश की मगर उसके दिमाग़ ने उसकी रहबरी की। वो बिमला के दुख दर्द का सही तजज़िया कर सका, वो सिर्फ़ इतना सोच सका कि उसको सिर्फ़ इस बात का ग़म है कि उसकी माँ ज़िंदा नहीं।

    शाम को अनवर ने अपनी बहन से बिमला के बारे में पूछा तो उस ने कहा, “मालूम नहीं क्या दुख है बेचारी को... अपने बाप का बार बार ज़िक्र करती थी कि उनको जाने क्या रोग है और बस!”

    सईदा पास खड़ी थी स्याह पुल ओवर पहने। उसकी जीती जागती छातियां आबनूसी गोलों की सूरत में उसके सफ़ेद ननोन के दुपट्टे की पीछे बड़ा दिलकश तज़ाद पैदा कर रही थीं। ऐसा लगता था जैसे स्याह बट्टों पर उनकी चमक छुपाने के लिए, किसी मकड़ी ने महीन सा जाला बुन दिया है। अनवर बिमला को भूल गया और सईदा से बातें करने लगा। सईदा ने उससे कोई दिलचस्पी ली और आपा शमीम को सलाम करके चली गई।

    अनवर बैठक में कॉलिज का काम करने बैठा तो उसे बिमला का ख़याल आया। कैसी लड़की है? कुछ समझ में नहीं आता, मेरे पट्टी बांधी... अपना दुपट्टा फाड़ कर। आज मैंने कहा, पिता जी के सिवा तुम्हारा कौन है तो इसलिए ज़ार-ओ-क़तार रोना शुरू कर दिया... और जब मैं गमलों में पानी दे रहा था तो बिमला की इस बात से कि उनका रोग डाक्टरों की समझ में नहीं आएगा, उसने क्यों ये महसूस किया था कि बिमला ने इसके बजाय उससे ये कहा है, उनका रोग तुम समझ सकते हो। लेकिन मैं कैसे समझ सकता हूँ... क्या समझ सकता हूँ?

    वो मुझे ठीक तौर पर समझाती क्यों नहीं, या’नी अगर वो कुछ समझाना ही चाहती है... मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आता, जब उसने मेरी तरफ़ देखा था तो उसकी निगाहों में इतनी तेज़ी क्यों थी? अब ख़याल करता हूँ तो महसूस होता है जैसे वो मेरी ज़हानत-ओ-फ़िरासत पर ला’नत भेज रही थी, लेकिन क्यों?

    हटाओ जी, सईदा... हाँ वो स्याह पुल ओवर... सफ़ेद ननोन का हवाई दुपट्टा... और... लेकिन मुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिए। जाने किसका माल है, ख़ैर कुछ भी हो, ख़ूबसूरत लड़की है। मगर इस पर ख़ूबसूरती ख़त्म तो नहीं हो गई।

    अगले रोज़ बिमला आई। अनवर के घर में सब मुतफ़क्किर थे। दुआएं करते थे कि ख़ुदा उसके बाप को उसके सर पर सलामत रखे। शमीम को बिमला बेहद पसंद थी। इसलिए कि वो ख़ामोशी पसंद और ज़हीन थी। बारीक से बारीक बात फ़ौरन समझ जाती थी, चुनांचे वो सारा दिन वक़्फ़ों के बाद उस को याद करती रही। अनवर की माँ ने तो अनवर से कहा कि “वो साईकल पर जाये और बिमला के बाप की ख़ैरियत दरयाफ़्त कर के आए।”

    अनवर गया... बिमला सागवान के चौड़े पलंग पर औंधी लेटी थी सांस का उतार चढ़ाओ तेज़ था। अनवर ने हौले से पुकारा तो कोई रद्द-ए-अ’मल हुआ। ज़रा बलंद आवाज़ में कहा, “बिमला।” तो वो चौंकी, करवट बदल कर उसने अनवर को देखा। अनवर ने नमस्ते की। बिमला ने हाथ जोड़ कर उसका जवाब दिया। अनवर ने देखा कि बिमला की आँखें मैली थीं, जैसे वो रोती रही थी और उसने अपने आँसू ख़ुश्क नहीं किए थे।

    पलंग पर से उठ कर उसने अनवर को कुर्सी पेश की और ख़ुद फ़र्श पर बिछी हुई दरी पर बैठ गई। अनवर ने कुछ देर ख़ामोश रहने के बाद “वहां सबको बहुत फ़िक्र थी... पिता जी कहाँ हैं?”

    बिमला के मुरझाए हुए होंट खुले और उसने खोखली आवाज़ में सिर्फ़ इतना कहा, “पिता...!”

    अनवर ने पूछा, “तबीयत कैसी है उनकी।”

    “अच्छी है।” बिमला की आवाज़ उसकी आवाज़ नहीं थी।

    “तुम आज नहीं आईं तो सबको बड़ी तशवीश हुई, अम्मी जान ने मुझसे कहा, साईकल पर जाओ और पता लेकर आओ... लाला जी कहाँ हैं?”

    “शतरंज खेलने गए हैं।”

    “तुम आज क्यों नहीं आईं?”

    “मैं?” ये कह कर बिमला रुक गई। थोड़े वक़्फ़े के बाद बोली, “मैं अब नहीं सकूंगी, मुझे... मुझे एक काम मिल गया है।”

    अनवर ने पूछा, “कैसा काम?”

    बिमला ने एक आह भरी, “कल ही मालूम हुआ है... जाने क्या है।”ये कहते हुए काँपी, “ठीक है, जो कुछ भी है ठीक है।” फिर वो जैसे अपने अंदर डूब गई।

    कुछ देर ख़ामोशी रही, फिर अनवर ने उकता कर पूछा, “मैं उनसे क्या कहूं?”

    बिमला चौंकी, “क्या?”

    अनवर ने अपने अलफ़ाज़ दोहराए, “मैं उनसे क्या कहूं?”

    “और कुछ कहने की ज़रूरत नहीं... सब को नमस्ते!”

    अनवर कुर्सी पर से उठा, हाथ जोड़ कर बिमला को नमस्ते की। बिमला ने इसका जवाब दिया मगर अनवर खड़ा रहा। बिमला, ख़ला में देख रही थी। थोड़ी देर के बाद अनवर उससे मुख़ातिब हुआ, “बिमला, मुझे ऐसा महसूस होता है कि... मुझे ऐसा लगता है कि तुमने मुझसे कई बार कुछ कहने की कोशिश की, मगर कह सकीं... मैं पूछ सकता हूँ।”

    बिमला के होंटों पर एक ज़ख़्म-ख़ुरदा मुस्कुराहट नुमूदार हुई। अनवर अपनी बात मुकम्मल कर सका। बिमला उठी, खिड़की के साथ लग कर उसने नीचे बड़ी बदरु की तरफ़ देखा और अनवर से कहा, “जो मैं कह सकी, तुम समझ सके, अब कहने और समझने से बहुत परे चला गया है... तुम जाओ, मैं सोना चाहती हूँ।”

    अनवर चला गया... बिमला फिर आई।

    क़रीबन दस महीने बाद अख़बारों में ये सनसनी फैलाने वाली ख़बर शाया हुई कि बड़ी सड़क की बदरु में एक नौज़ाईदा बच्चा मरा हुआ पाया गया। तहक़ीक़ात की गई तो मालूम हुआ कि बच्चा लाला हरी चरन स्कूल मास्टर की लड़की बिमला का था और बच्चे का बाप ख़ुद लाला हरी चरन था... सब पर सकता छा गया।

    अनवर ने सोचा, तो सारी किताब का ख़ुलासा ये था।

    स्रोत:

    خالی بوتلیں،خالی ڈبے

      • प्रकाशन वर्ष: 1950

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