स्टोरीलाइन
पहली बीवी की मौत के बाद लाला डंगामल जब दूसरी शादी कर लेते हैं तो उन्हें लगता है कि वह फिर से जवान हो गए हैं। नई-नवेली दुल्हन को बहलाने के लिए वह हर तरह के प्रपंच करते हैं। मगर नई दुल्हन उनसे कुछ खिंची-खिंची सी रहती है। उन्हें लगता है कि उनसे कोई ग़लती हो गई है। मगर तभी घर के महाराज की जगह एक सोलह साला छोकरा नौकरी पर आता है और फिर सब कुछ बदल जाता है।
हमारा जिस्म पुराना है लेकिन इस में हमेशा नया ख़ून दौड़ता रहता है। इस नए ख़ून पर ज़िंदगी क़ायम है। दुनिया के क़दीम निज़ाम में ये नयापन उसके एक एक ज़र्रे में, एक-एक टहनी में, एक-एक क़तरे में, तार में छुपे हुए नग़मे की तरह गूँजता रहता है और ये सौ साल की बुढ़िया आज भी नई दुल्हन बनी हुई है।
जब से लाला डंगा मल ने नई शादी की है उनकी जवानी अज़ सर-ए-नौ ऊ’द कर आई है जब पहली बीवी ब-क़ैद-ए-हयात थी वो बहुत कम घर रहते थे। सुबह से दस ग्यारह बजे तक तो पूजापाट ही करते रहते थे। फिर खाना खा कर दुकान चले जाते। वहां से एक बजे रात को लौटते और थके-माँदे सो जाते। अगर लीला कभी कहती कि ज़रा और सवेरे आ जाया करो तो बिगड़ जाते, “तुम्हारे लिए क्या दुकान बंद कर दूं या रोज़गार छोड़ दूं। ये वो ज़माना नहीं है कि एक लोटा जल चढ़ा कर लक्ष्मी को ख़ुश कर लिया जाये। आजकल लक्ष्मी की चौखट पर माथा रगड़ना पड़ता है तब भी उनका मुँह सीधा नहीं होता।” लीला बेचारी ख़ामोश हो जाती।
अभी छः महीने की बात है। लीला को ज़ोर का बुख़ार था लाला जी दुकान पर चलने लगे तो लीला ने डरते-डरते कहा... “देखो मेरी तबीय’त अच्छी नहीं है ज़रा सवेरे आ जाना।”
लाला जी ने पगड़ी उतार कर खूँटी पर लटका दी और बोले... “अगर मेरे बैठे रहने से तुम्हारा जी अच्छा हो जाये तो मैं दुकान न जाऊँगा।”
लीला रंजीदा हो कर बोली, “मैं ये कब कहती हूँ कि तुम दुकान न जाओ मैं तो ज़रा सवेरे आ जाने को कहती हूँ।”
“तो क्या मैं दुकान पर बैठा मौज करता हूँ?”
लीला कुछ न बोली। शौहर की ये बे-ए’तिनाई उसके लिए कोई नई बात न थी। इधर कई दिन से इस का दिल-दोज़ तजुर्बा हो रहा था कि इस घर में उसकी क़दर नहीं है, अगर उसकी जवानी ढल चुकी थी तो उसका क्या क़सूर था किस की जवानी हमेशा रहती है। लाज़िम तो ये था कि पचपन साल की रिफ़ाक़त अब एक गहरे रुहानी ता’ल्लुक़ में तब्दील हो जाती जो ज़ाहिर से बेनयाज़ रहती है। जो ऐ’ब को भी हुस्न देखने लगती है, जो पके फल की तरह ज़्यादा शीरीं ज़्यादा ख़ुशनुमा हो जाती है। लेकिन लाला जी का ताजिर दिल हर एक चीज़ को तिजारत के तराज़ू पर तौलता था। बूढ़ी गाय जब न दूध दे सकती हो न बच्चे तो उसके लिए गउशाला से बेहतर कोई जगह नहीं। उनके ख़्याल में लीला के लिए बस इतना ही काफ़ी था कि वो घर की मालकिन बनी रहे, आराम से खाए पहने पड़ी रहे। उसे इख़्तियार है चाहे जितने ज़ेवर बनवाए चाहे जितनी ख़ैरात और पूजा करे रोज़े रखे, सिर्फ उनसे दूर रहे। फ़ित्रत-ए-इन्सानी की नैरंगियों का एक करिश्मा ये था कि लाला जी जिस दिलजोई और हज़ से लीला को महरूम रखना चाहते थे। ख़ुद उसी के लिए अबलहाना सरगर्मी से मुतलाशी रहते थे। लीला चालीस की हो कर बूढ़ी समझ ली गई थी मगर वो पैंतालीस साल के हो कर अभी जवान थे। जवानी के वलवलों और मसर्रतों से बेक़रार लीला से अब उन्हें एक तरह की कराहियत होती थी और वो ग़रीब जब अपनी ख़ामियों के हसरतनाक एहसास की वजह से फ़ित्री बे रहमियों के अज़ाले के लिए रंग-ओ-रोग़न की आड़ लेती तो वो उस की बुअलहोसी से और भी मुतनफ़्फ़िर हो जाते, “चे ख़ुश। सात लड़कों की तो माँ हो गईं, बाल खिचड़ी हो गए चेहरा धुले हुए फ़लालैन की तरह पुर शिकन हो गया। मगर आपको अभी महावर और सींदूर मेहंदी और उबटन की हवस बाक़ी है ,औरतों की भी क्या फ़ित्रत है। न जाने क्यों आराइश पर इस क़दर जान देती हैं। पूछो अब तुम्हें और क्या चाहिए? क्यों नहीं दिल को समझा लेतीं कि जवानी रुख़्सत हो गई और उन तदबीरों से उसे वापस नहीं बुलाया जा सकता।” लेकिन वो ख़ुद जवानी का ख़्वाब देखते रहते थे। तबीय’त जवानी से सेर न होती जाड़ों में कुश्तों और मा’जूनों का इस्ति’माल करते रहते थे। हफ़्ते में दो बार ख़िज़ाब लगाते और किसी डाक्टर से बंदर के ग़दूदों के इस्ति’माल से मुता’ल्लिक़ ख़त-ओ-किताबत कर रहे थे।
लीला ने उन्हें शश-ओ-पंज की हालत में खड़ा देखकर मायूसाना अंदाज़ से कहा, “कुछ बतला सकते हो कै बजे आओगे?”
लाला जी ने मुलायम लहजे में कहा... “तुम्हारी तबीय’त आज कैसी है?”
लीला क्या जवाब दे? अगर कहती है बहुत ख़राब है तो शायद ये हज़रत यहीं बैठ जाएं और उसे जली कटी सुना कर अपने दिल का बुख़ार निकालें। अगर कहती है अच्छी हूँ तो बेफ़िक्र हो कर दो बजे रात की ख़बर लाएं। डरते डरते बोली... “अब तक तो अच्छी थी लेकिन अब कुछ भारी हो रही है। लेकिन तुम जाओ दुकान पर लोग तुम्हारे मुंतज़िर होंगे। मगर ईश्वर के लिए एक दो न बजा देना, लड़के सो जाते हैं, मुझे ज़रा भी अच्छा नहीं लगता, तबीय’त घबराती है।”
सेठ जी ने लहजे में मुहब्बत की चाशनी देकर कहा, “बारह बजे तक आजाऊँगा, ज़रूर।”
लीला का चेहरा उतर गया, “दस बजे तक नहीं आ सकते?”
“साढे़ ग्यारह बजे से पहले किसी तरह नहीं।”
“साढे़ दस भी नहीं।”