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सरकण्डों के पीछे

सआदत हसन मंटो

सरकण्डों के पीछे

सआदत हसन मंटो

MORE BYसआदत हसन मंटो

    स्टोरीलाइन

    "औरत के अन्तर्विरोधों को बयान करती हुई यह कहानी है। इसमें एक तरफ़ नवाब है जो इतनी सादा और सरल है कि जब सरदार उससे पेशा कराती है तो वो सोचती है कि जवान होने के बाद हर औरत का यही काम होता है। दूसरी तरफ़ शाहीना है जो नवाब का क़त्ल करके उसका गोश्त पका डालती है, सिर्फ़ इस आधार पर कि हैबत ख़ान ने उससे बेवफ़ाई की थी और नवाब के यहाँ आने जाने लगा था"

    कौन सा शहर था, इसके मुतअल्लिक़ जहां तक में समझता हूँ, आपको मालूम करने और मुझे बताने की कोई ज़रूरत नहीं। बस इतना ही कह देना काफ़ी है कि वो जगह जो इस कहानी से मुतअल्लिक़ है, पेशावर के मुज़ाफ़ात में थी, सरहद के क़रीब। और जहां वो औरत थी, उसका घर झोंपड़ा नुमा था... सरकण्डों के पीछे।

    घनी बाढ़ थी, जिसके पीछे उस औरत का मकान था, कच्ची मिट्टी का बना हुआ, चूँकि ये बाढ़ से कुछ फ़ासले पर था, इसलिए सरकण्डों के पीछे छिप सा गया था कि बाहर कच्ची सड़क पर से गुज़रने वाला कोई भी उसे देख नहीं सकता था।

    सरकण्डे बिल्कुल सूखे हुए थे मगर वो कुछ इस तरह ज़मीन में गड़े हुए थे कि एक दबीज़ पर्दा बन गए थे। मालूम नहीं उस औरत ने ख़ुद वहां पेवस्त किए थे या पहले ही से मौजूद थे। बहरहाल, कहना ये है कि वो आहनी क़िस्म के पर्दा-पोश थे।

    मकान कह लीजिए या मिट्टी का झोंपड़ा, सिर्फ़ छोटी छोटी तीन कोठरियाँ थीं, मगर साफ़ सुथरी। सामान मुख़्तसर था मगर अच्छा। पिछले कमरे में एक बहुत बड़ा नवाड़ी पलंग था। उसके साथ एक ताक़चा था जिसमें सरसों के तेल का दीया रात भर जलता रहता था... मगर ये ताक़चा भी साफ़ सुथरा रहता था और वो दीया भी जिसमें हर रोज़ नया तेल और बत्ती डाली जाती थी।

    अब मैं आपको उस औरत का नाम बतादूं जो उस मुख़्तसर से मकान में जो सरकण्डों के पीछे छुपा हुआ था, अपनी जवान बेटी के साथ रिहाइश पज़ीर थी।

    मुख़्तलिफ़ रिवायतें हैं। बा'ज़ लोग कहते हैं कि वो उसकी बेटी नहीं थी। एक यतीम लड़की थी जिसको उसने बचपन से गोद ले कर पाल-पोस कर बड़ा किया था। बा'ज़ कहते हैं कि उसकी नाजाइज़ लड़की थी। कुछ ऐसे भी हैं जिनका ख़याल है कि वो उसकी सगी बेटी थी... हक़ीक़त जो कुछ भी है, उसके मुतअल्लिक़ वसूक़ से कुछ कहा नहीं जा सकता। ये कहानी पढ़ने के बाद आप ख़ुद-ब-ख़ुद कोई कोई राय क़ायम कर लीजिएगा।

    देखिए, मैं आपको उस औरत का नाम बताना भूल गया... बात असल में ये है कि उसका नाम कोई अहमियत नहीं रखता। उसका नाम आप कुछ भी समझ लीजिए, सकीना, महताब, गुलशन या कोई और। आख़िर नाम में क्या रखा है लेकिन आपकी सहूलत की ख़ातिर मैं उसे सरदार कहूंगा।

    ये सरदार, अधेड़ उम्र की औरत थी। किसी ज़माने में यक़ीनन ख़ूबसूरत थी। उसके सुर्ख़-ओ-सफ़ेद गालों पर गो किसी क़दर झुर्रियां पड़ गई थीं, मगर फिर भी वो अपनी उम्र से कई बरस छोटी दिखाई देती थी। मगर हमें उसके गालों से कोई तअल्लुक़ नहीं।

    उसकी बेटी, मालूम नहीं वो उसकी बेटी थी या नहीं, शबाब का बड़ा दिलकश नमूना थी। उसके ख़द-ओ-ख़ाल में ऐसी कोई चीज़ नहीं थी जिससे ये नतीजा अख़्ज़ किया जा सके कि वो फ़ाहिशा है। लेकिन ये हक़ीक़त है कि उसकी माँ उससे पेशा कराती थी और ख़ूब दौलत कमा रही थी। और ये भी हक़ीक़त है कि उस लड़की को जिसका नाम फिर आपकी सहूलत की ख़ातिर नवाब रखे देता हूँ, को इस पेशे से नफ़रत नहीं थी।

    असल में उसने आबादी से दूर एक ऐसे मक़ाम पर परवरिश पाई थी कि उसको सही इज़दिवाजी ज़िंदगी का कुछ पता नहीं था। जब सरदार ने उससे पहला मर्द बिस्तर पर... नवाड़ी पलंग पर मुतआरिफ़ करवाया तो ग़ालिबन उसने ये समझा कि तमाम लड़कियों की जवानी का आग़ाज़ कुछ इसी तरह होता है। चुनांचे वो अपनी इस कस्बियाना ज़िंदगी से मानूस हो गई थी और वो मर्द जो दूर दूर से चल कर उसके पास आते थे और उसके साथ उस बड़े नवाड़ी पलंग पर लेटते थे, उसने समझा था कि यही उसकी ज़िंदगी का मुन्तहा है।

    यूँ तो वो हर लिहाज़ से एक फ़ाहिशा औरत थी, उन मानों में जिनमें हमारी शरीफ़ और मुतह्हिर औरतें ऐसी औरतों को देखती हैं, मगर सच पूछिए तो इस अमर का क़तअन एहसास था कि वो गुनाह की ज़िंदगी बसर कर रही है... वो उसके मुतअल्लिक़ ग़ौर भी कैसे कर सकती थी जबकि उसको इसका मौक़ा ही नहीं मिला था।

    उसके जिस्म में ख़ुलूस था। वो हर मर्द को जो उसके पास हफ़्ते डेढ़ हफ़्ते के बाद तवील मसाफ़त तय कर के आता था, अपना आप सपुर्द कर देती थी, इसलिए कि वो ये समझती थी कि हर औरत का यही काम है। और वो उस मर्द की हर आसाइश उसके हर आराम का ख़याल रखती थी। वो उसकी कोई नन्ही सी तकलीफ़ भी बर्दाश्त नहीं कर सकती थी।

    उसको शहर के लोगों के तकल्लुफ़ात का इल्म नहीं था। वो ये क़तअन नहीं जानती थी कि जो मर्द उसके पास आते हैं, सुब्ह-सवेरे अपने दाँत ब्रश के साथ साफ़ करने के आदी हैं और आँखें खोल कर सब से पहले बिस्तर में चाय की प्याली पीते हैं, फिर रफ़ा-ए-हाजत के लिए जाते हैं, मगर उसने आहिस्ता आहिस्ता बड़े अल्लढ़ तरीक़े पर उन मर्दों की आदात से कुछ वाक़फ़ियत हासिल कर ली थी। पर उसे बड़ी उलझन होती थी कि सब मर्द एक तरह के नहीं होते थे। कोई सुबह-सवेरे उठ कर सिगरेट मांगता था, कोई चाय और बा'ज़ ऐसे भी होते जो उठने का नाम ही नहीं लेते थे। कुछ सारी रात जागते रहते और सुब्ह मोटर में सवार हो कर भाग जाते थे।

    सरदार बेफ़िक्र थी। उसको अपनी बेटी पर, या जो कुछ भी वो थी, पूरा एतिमाद था कि वो अपने ग्राहकों को संभाल सकती है, इसलिए वो अफ़ीम की एक गोली खा कर खाट पर सोई रहती थी। कभी-कभार जब उसकी ज़रूरत पड़ती... मिसाल के तौर पर जब किसी गाहक की तबीअत ज़्यादा शराब पीने के बाइस यकदम ख़राब हुए तो वो ग़ुनूदगी के आलम में उठ कर नवाब को हिदायात दे देती थी कि उसको अचार खिला दे या कोशिश करे कि वो नमक मिला गर्म-गर्म पानी पिला कर क़ै करा दे और बाद में थपकियां दे कर सुला दे।

    सरदार इस मुआमले में बड़ी मोहतात थी कि जूँ ही गाहक आता, वो उससे नवाब की फ़ीस पहले वसूल कर के अपने नेफ़े में महफ़ूज़ कर लेती थी और अपने मख़्सूस अंदाज़ में दुआएँ दे कर कि तुम आराम से झूले झूले, अफ़ीम की एक गोली डिबिया में से निकाल कर मुँह में डाल कर सो जाती।

    जो रुपया आता, उसकी मालिक सरदार थी। लेकिन जो तोहफ़े तहाइफ़ वसूल होते, वो नवाब ही के पास रहते थे। चूँकि उसके पास आने वाले लोग दौलतमंद होते, इसलिए वो बढ़िया कपड़ा पहनती और क़िस्म क़िस्म के फल और मिठाइयाँ खाती थी।

    वो ख़ुश थी... मिट्टी से लिपे पुते उस मकान में जो सिर्फ़ तीन छोटी-छोटी कोठरियों पर मुश्तमिल था। वो अपनी दानिस्त के मुताबिक़ बड़ी दिलचस्प और ख़ुशगवार ज़िंदगी बसर कर रही थी... एक फ़ौजी अफ़सर ने उसे ग्रामोफोन और बहुत से रिकार्ड ला दिए थे। फ़ुर्सत के औक़ात में वो उनको बजा बजा कर फ़िल्मी गाने सुनती और उनकी नक़्ल उतारने की कोशिश किया करती थी। उसके गले में कोई रस नहीं था। मगर शायद वो इससे बेख़बर थी... सच पूछिए तो उसको किसी बात की ख़बर भी नहीं थी और उसको इस बात की ख़्वाहिश थी कि वो किसी चीज़ से बा-ख़बर हो। जिस रास्ते पर वो डाल दी गई थी, उसको उसने क़ुबूल कर लिया था। बड़ी बेख़बरी के आलम में।

    सरकण्डों के उस पार की दुनिया कैसी है, उसके मुतअल्लिक़ वो कुछ नहीं जानती थी सिवाए इसके कि एक कच्ची सड़क है जिस पर हर दूसरे तीसरे दिन एक मोटर धूल उड़ाती हुई आती है और रुक जाती है। हॉर्न बजता है। उसकी माँ या जो कोई भी वो थी, खटिया से उठती है और सरकण्डों के पास जा कर मोटर वाले से कहती है कि मोटर ज़रा दूर खड़ी करके अंदर जाये और वो अंदर जाता है और नवाड़ी पलंग पर उसके साथ बैठ कर मीठी-मीठी बातों में मशग़ूल हो जाता है।

    उसके हाँ आने-जाने वालों की तादाद ज़्यादा नहीं थी। यही पाँच छः होंगे मगर ये पाँच छः मुस्तक़िल गाहक थे और सरदार ने कुछ ऐसा इंतिज़ाम कर रखा था कि उनका बाहम तसादुम हो। बड़ी होशियार औरत थी... वो हर गाहक के लिए ख़ास दिन मुक़र्रर कर देती, और ऐसे सलीक़े से कि किसी को शिकायत का मौक़ा मिलता था।

    इसके अलावा ज़रूरत के वक़्त वो उसका भी इंतिज़ाम करती रहती कि नवाब माँ बन जाये। जिन हालात में नवाब अपनी ज़िंदगी गुज़ार रही थी, उनमें उसका माँ बन जाना यक़ीनी था। मगर सरदार दो ढाई बरस से बड़ी कामियाबी के साथ इस क़ुदरती ख़तरे से निबट रही थी।

    सरकण्डों के पीछे ये सिलसिला दो ढाई बरस से बड़े हमवार तरीक़े पर चल रहा था। पुलिस वालों को बिल्कुल इल्म नहीं था। बस सिर्फ़ वही लोग जानते थे जो वहां आते थे।

    या फिर सरदार और उसकी बेटी नवाब, या जो कोई भी वो थी।

    सरकण्डों के पीछे, एक दिन मिट्टी के उस मकान में एक इन्क़िलाब बरपा हो गया। एक बहुत बड़ी मोटर जो ग़ालिबन डोज थी वहाँ आके रुकी। हॉर्न बजा। सरदार बाहर आई तो उसने देखा कोई अजनबी है। उसने उससे कोई बात की। अजनबी ने भी उससे कुछ कहा। मोटर दूर खड़ी कर के वो उतरा और सीधा उनके घर में घुस गया जैसे बरसों का आने जाने वाला हो।

    सरदार बहुत सिटपिटाई, लेकिन दरवाज़े की दहलीज़ पर नवाब ने उस अजनबी का बड़ी प्यारी मुस्कुराहट से ख़ैर-मक़्दम किया और उसे उस कमरे में ले गई जिसमें नवाड़ी पलंग था। दोनों उस पर साथ साथ बैठे ही थे कि सरदार गई... होशियार औरत थी। उसने देखा कि अजनबी किसी दौलतमंद घराने का आदमी है। ख़ुश शक्ल है, सेहतमंद है। उसने अंदर कोठरी में दाख़िल हो कर सलाम किया और पूछा, “आपको इधर का रास्ता किसने बताया?”

    अजनबी मुस्कुराया और बड़े प्यार से नवाब के गोश्त भरे गालों में अपनी उंगली चुभो कर कहा, “इसने?”

    नवाब तड़प कर एक तरफ़ हट गई, एक अदा के साथ कह, “हाएं... मैं तो कभी तुम से मिली भी नहीं?”

    अजनबी की मुस्कुराहट उसके होंटों पर और ज़्यादा फैल गई, “हम तो कई बार तुम से मिल चुके हैं।”

    नवाब ने पूछा, “कहाँ... कब?” हैरत के आलम में उसका छोटा सा मुँह कुछ इस तौर पर वा हुआ कि उसके चेहरे की दिलकशी में इज़ाफे़ का मुअज्जिब हो गया।

    अजनबी ने उसका गुदगुदा हाथ पकड़ लिया और सरदार की तरफ़ देखते हुए कहा, “तुम ये बातें अभी नहीं समझ सकतीं... अपनी माँ से पूछो।”

    नवाब ने बड़े भोलपन के साथ अपनी माँ से पूछा कि ये शख़्स उससे कब और कहाँ मिला था। सरदार सारा मुआमला समझ गई कि वो लोग जो उसके यहां आते हैं, उनमें से किसी ने उसके साथ नवाब का ज़िक्र किया होगा और सारा अता-पता बता दिया होगा चुनांचे उसने नवाब से कहा, “मैं बतादूंगी तुम्हें।”

    और ये कह कर वो बाहर चली गई। खटिया पर बैठ कर उसने डिबिया में से अफ़ीम की गोली निकाली और लेट गई। वो मुतमइन थी कि आदमी अच्छा है गड़बड़ नहीं करेगा।

    वसूक़ से इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन अग़्लब यही है कि अजनबी जिसका नाम हैबत ख़ान था और ज़िला हज़ारा का बहुत बड़ा रईस था, नवाब के अल्लढ़पन से इस क़द्र मुतअस्सिर हुआ कि उसने रुख़्सत होते वक़्त सरदार से कहा कि आइन्दा नवाब के पास और कोई आया करे। सरदार होशियार औरत थी। उसने हैबत ख़ान से कहा, “ख़ानसाहब! ये कैसे हो सकता है... क्या आप उतना रुपया दे सकेंगे कि...”

    हैबत ख़ान ने सरदार की बात काट कर जेब में हाथ डाला और सौ सौ के नोटों की एक मोटी गड्डी निकाली और नवाब के क़दमों में फेंक दी। फिर उसने अपनी हीरे की अँगूठी उंगली से निकाली और नवाब को पहना कर तेज़ी से सरकण्डों के उस पार चला गया।

    नवाब ने नोटों की तरफ़ आँख उठा कर भी देखा। बस देर तक अपनी सजी हुई उंगली को देखती रही जिस पर काफ़ी बड़े हीरे से रंग रंग की शुआएँ फूट रही थीं। मोटर स्टार्ट हुई और धूल उड़ाती चली गई। इसके बाद वो चौंकी और सरकण्डों के पास आई, मगर अब गर्द-ओ-ग़ुबार के सिवा सड़क पर कुछ था।

    सरदार नोटों की गड्डी उठा कर उन्हें गिन चुकी थी। एक नोट और होता तो पूरे दो हज़ार थे। मगर उसको इसका अफ़सोस नहीं था। सारे नोट उसने अपनी घेरेदार शलवार के नेफ़े में बड़ी सफ़ाई से अड़से और नवाब को छोड़ कर अपनी खटिया की तरफ़ बढ़ी और डिबिया में से अफ़ीम की एक बड़ी गोली निकाल कर उसने मुँह में डाली और बड़े इत्मिनान से लेट गई और देर तक सोती रही।

    नवाब बहुत ख़ुश थी। बार बार अपनी उस उंगली को देखती थी जिस पर हीरे की अंगूठी थी... तीन=चार रोज़ गुज़र गए। इस दौरान में उसका एक पुराना गाहक आया जिससे सरदार ने कह दिया कि पुलिस का ख़तरा है, इसलिए उसने ये धंदा बंद कर दिया है। ये गाहक जो ख़ासा दौलतमंद था, बे नील-ओ-मराम वापस चला गया। सरदार को हैबत ख़ान ने बहुत मुतास्सिर किया था। उसने अफ़ीम खा कर पिनक के आलम में सोचा था कि अगर आमदन उतनी ही रहे जितनी कि पहले थी और आदमी सिर्फ़ एक हो तो बहुत अच्छा है। चुनांचे उसने फ़ैसला कर लिया था कि बाक़ियों को आहिस्ता आहिस्ता ये कह कर टर्ख़ा देगी कि पुलिस वाले उसके पीछे हैं और ये नहीं देख सकती कि उनकी इज़्ज़त ख़तरे में पड़े।

    हैबत ख़ान एक हफ़्ते के बाद नुमूदार हुआ। इस दौरान में सरदार दो ग्राहकों को मना कर चुकी थी कि वो अब इधर का रुख़ करें।

    वो उसी शान से आया जिस शान से पहले रोज़ आया था। आते ही उसने नवाब को अपनी छाती के साथ भींच लिया। सरदार ने उससे कोई बात की। नवाब उसे... बल्कि यूं कहिए कि हैबत ख़ान उसे उस कोठरी में ले गया जहां नवाड़ी पलंग था। अब के सरदार अंदर आई और अपनी खटिया पर अफ़ीम की गोली खा कर ऊँघती रही।

    हैबत ख़ान बहुत महज़ूज़ हुआ। उसको नवाब का अल्लढ़पन और भी ज़्यादा पसंद आया। वो पेशावर रन्डियों के चलित्रों से क़तअन नावाक़िफ़ थी। उसमें वो घरेलूपन भी नहीं था जो आम औरतों में होता है। उसमें कोई ऐसी बात थी जो ख़ुद उसकी अपनी थी। दूसरों से मुख़्तलिफ़। वो बिस्तर में उसके साथ इस तरह लेटती थी, जिस तरह बच्चा अपनी माँ के साथ लेटता है। उसकी छातियों पर हाथ फेरता है। उसकी नाक के नथनों में उंगलियां डालता है, उसके बाल नोचता है और फिर आहिस्ता आहिस्ता सो जाता है।

    हैबत ख़ान के लिए ये एक नया तजुर्बा था। उसके लिए औरत की ये क़िस्म बिल्कुल निराली, दिलचस्प और फ़रहतबख्श थी। वो अब हफ़्ते में दोबार आने लगा था। नवाब उसके लिए एक बेपनाह कशिश बन गई थी।

    सरदार ख़ुश थी कि उसके नेफ़े में उड़ेसने के लिए काफ़ी नोट मिल जाते हैं... लेकिन नवाब अपने अल्लढ़पन के बावजूद बा'ज़ औक़ात सोचती थी कि हैबत ख़ान डरा डरा सा क्यूँ रहता है। अगर कच्ची सड़क पर से, सरकण्डों के उस पार कोई लारी या मोटर गुज़रती है तो वो क्यूँ सहम जाता है। क्यूँ उससे अलग हो कर बाहर निकल जाता है और छुपछुप कर देखता है कि कौन था।

    एक रात बारह बजे के क़रीब सड़क पर से कोई लारी गुज़री। हैबत ख़ान और नवाब दोनों एक दूसरे से गुथे हुए सो रहे थे कि एक दम हैबत ख़ान बड़े ज़ोर से काँपा और उठ कर बैठ गया। नवाब की नींद बड़ी हल्की थी। वो काँपा तो वो सर से पैर तक यूँ लरज़ी जैसे उसके अंदर ज़लज़ला गया है। चीख़ कर उसने पूछा, “क्या हुआ?”

    हैबत ख़ान अब किसी क़दर संभल चुका था। उसने ख़ुद को और ज़्यादा संभाल कर उससे कहा, “कोई बात नहीं... मैं... मैं शायद ख़्वाब में डर गया था।”

    लारी की आवाज़ दूर से रात की ख़ामोशी में अभी तक रही थी।

    नवाब ने उससे कहा, “नहीं ख़ान... कोई और बात है। जब भी कोई मोटर या लारी सड़क पर से गुज़रती है, तुम्हारी यही हालत होती है।”

    हैबत ख़ान की शायद ये दुखती रग थी जिस पर नवाब ने हाथ रख दिया था। उसने अपना मर्दाना वक़ार क़ाएम रखने के लिए बड़े तेज़ लहजे में कहा, “बकती हो तुम... मोटरों और लारियों से डरने की क्या वजह हो सकती है?”

    नवाब का दिल बहुत नाज़ुक था। हैबत ख़ान के तेज़ लहजे से उसको ठेस लगी और उसने बिलक बिलक कर रोना शुरू कर दिया। हैबत ख़ान ने जब उसको चुप कराया तो वो अपनी ज़िंदगी के एक लतीफ़ तरीन ख़त से आशना हुआ और उसका जिस्म नवाब के जिस्म से और ज़्यादा क़रीब हो गया।

    हैबत ख़ान अच्छे क़द-काठ का आदमी था। उसका जिस्म गठा हुआ था, ख़ूबसूरत था। उसकी बाँहों में नवाब ने पहली बार बड़ी प्यारी हरारत महसूस की थी। उसको जिस्मानी लज़्ज़त की अलिफ़-बे उसी ने सिखाई थी। वो उससे मोहब्बत करने लगी थी। यूँ कहिए कि वो शय जो मोहब्बत होती है, उसके मआनी अब उस पर आशकार हो रहे थे। वो अगर एक हफ़्ता ग़ायब रहता तो नवाब ग्रामोफोन पर दर्दीले गीतों के रिकार्ड लगा कर ख़ुद उनके साथ गाती और आहें भर्ती थी। मगर उसको इस बात की बड़ी उलझन थी कि हैबत ख़ान मोटरों की आमद-ओ-रफ़्त से क्यूँ घबराता है।

    महीनों गुज़र गए। नवाब की सुपुर्दगी और उसके इल्तिफ़ात में इज़ाफ़ा होता गया। मगर उधर उसकी उलझन बढ़ती गई कि अब हैबत ख़ान चंद घंटों के लिए आता और अफ़रा-तफ़री के आलम में वापस चला जाता था। नवाब महसूस कर रही थी कि ये सब किसी मजबूरी की वजह से है, वर्ना हैबत ख़ान का जी चाहता है कि वो ज़्यादा देर ठहरे।

    उसने कई मर्तबा उससे इस बारे में पूछा, मगर वो गोल कर गया। एक दिन सुबह-सवेरे उसकी डोज सरकण्डों के पार रुकी। नवाब सो रही थी। हॉर्न बजा तो चौंक कर उठी। आँखें मलती-मलती बाहर आई। उस वक़्त तक हैबत ख़ान अपनी मोटर दूर खड़ी करके मकान के पास पहुंच चुका था। नवाब दौड़ कर उससे लिपट गई। वो उसे उठा कर अंदर कमरे में ले गया जहां नवाड़ का पलंग था।

    देर तक दोनों बातें करते रहे। प्यार मोहब्बत की बातें... मालूम नहीं नवाब के दिल में क्या आई कि उसने अपनी ज़िंदगी की पहली फ़र्माइश की, “ख़ान... मुझे सोने के कड़े लादो।”

    हैबत ख़ान ने उसकी मोटी मोटी गोश्त भरी सुर्ख़-ओ-सफ़ेद कलाइयों को कई मर्तबा चूमा और कहा, “कल ही जाएँगे। तुम्हारे लिए तो मेरी जान भी हाज़िर है।”

    नवाब ने एक अदा के साथ, मगर अपने मख़्सूस अल्लढ़ अंदाज़ में कहा, “ख़ान साहब... जाने दीजिए... जान तो मुझे ही देनी पड़ेगी।”

    हैबत ख़ान ये सुन कर कई बार उसके सदक़े हुआ, और बड़ा पुरलुत्फ़ वक़्त गुज़ार के चला गया और वादा कर गया कि वो दूसरे दिन आएगा और सोने के कड़े उसके नर्म-नर्म हाथों में ख़ुद पहनाएगा।

    नवाब ख़ुश थी। उस रात वो देर तक मसर्रत भरे रिकार्ड बजा बजा कर उस छोटी सी कोठरी में नाचती रही जिस पर नवाड़ी पलंग था... सरदार भी ख़ुश थी। उस रात उसने फिर अपनी डिबिया से अफ़ीम की एक बड़ी गोली निकाली और उसे निगल कर सो गई।

    दूसरे दिन नवाब और ज़्यादा ख़ुश थी कि सोने के कड़े आने वाले हैं और हैबत ख़ान ख़ुद उसको पहनाने वाला है। वो सारा दिन मुंतज़िर रही पर वो आया। उसने सोचा शायद मोटर ख़राब हो गई हो... शायद रात ही को आए। मगर वो सारी रात जागती रही और हैबत ख़ान आया। उसके दिल को, जो बहुत नाज़ुक था, बड़ी ठेस पहुंची।

    उसने अपनी माँ को, या जो कुछ भी वो थी, बार बार कहा, “देखो, ख़ान नहीं आया, वादा कर के फिर गया है।” लेकिन फिर वो सोचती और कहती ऐसा हो, कुछ हो गया हो और वो सहम जाती।

    कई बातें उसके दिमाग़ में आती थीं। मोटर का हादसा, अचानक बीमारी, किसी डाकू का हमला... लेकिन बार बार उसको लारियों और मोटरों की आवाज़ों का ख़याल आता था। जिनको सुन कर हैबत ख़ान हमेशा बौखला जाता था... वो उसके मुतअल्लिक़ पहरों सोचती थी, मगर उसकी समझ में कुछ नहीं आता था।

    एक हफ़्ता गुज़र गया। इस दौरान में उसका कोई पुराना गाहक भी आया, इसलिए कि सरदार उन सब को मना कर चुकी थी। तीन-चार लारियां और दो मोटरें अलबत्ता उस कच्ची सड़क पर से धूल उड़ाती गुज़रीं। नवाब का हर बार यही जी चाहा कि दौड़ती हुई उनके पीछे जाये और उनको आग लगा दे। उसको यूँ महसूस होता था कि यही वो चीज़ें हैं जो हैबत ख़ान के यहाँ आने में रुकावट का बाइस हैं, मगर फिर सोचती कि मोटरें और लारियां रुकावट का क्या बाइस हो सकती हैं, वो अपनी कम अकली पर हंसती।

    लेकिन ये बात उसके फ़हम से बालातर थी कि हैबत ख़ान जैसा तनूमंद मर्द इनकी आवाज़ सुन कर सहम क्यूँ जाता है। इस हक़ीक़त को उसके दिमाग़ की पैदा की हुई दलील झुटला नहीं सकती थी। और जब ऐसा होता तो बेहद रंजीदा और मग़्मूम हो जाती और ग्रामोफोन पर दर्दीले रिकार्ड लगा कर सुनना शुरू कर देती और उसकी आँखें नमनाक हो जातीं।

    एक हफ़्ते के बाद दोपहर को जब नवाब और सरदार खाना खा कर फ़ारिग़ हो चुकी थीं और कुछ देर आराम करने की सोच रही थीं कि अचानक बाहर सड़क पर से मोटर के हॉर्न की आवाज़ सुनाई दी। दोनों ये आवाज़ सुन कर चौंकें क्यूँ कि हैबत ख़ान की डोज के हॉर्न की आवाज़ नहीं थी... सरदार बाहर लपकी कि देखे कौन है, पुराना आदमी हुआ तो उसे टर्ख़ा देगी। मगर जब वो सरकण्डों के पास पहुंची तो उसने देखा कि एक नई मोटर में हैबत ख़ान बैठा है। पिछली नशिस्त पर एक ख़ुश-पोश और ख़ूबसूरत औरत है।

    हैबत ख़ान ने मोटर कुछ दूर खड़ी की और बाहर निकला। उसके साथ ही पिछली नशिस्त से वो औरत... दोनों उनके मकान की तरफ़ बढ़े। सरदार ने सोचा कि ये क्या सिलसिला है। औरत के लिए तो हैबत इतनी दूर से चल कर यहां आता है, फिर ये औरत जो इतनी ख़ूबसूरत है, जवान है, क़ीमती कपड़ों में मलबूस है, उसके साथ यहां क्या करने आई है।

    वो अभी ये सोच ही रही थी कि हैबत ख़ान उस ख़ूबसूरत के साथ जिसने बेशक़ीमत ज़ेवर पहने हुए थे, मकान में दाख़िल हो गया। वो उनके पीछे पीछे चली। उसकी तरफ़ उन दोनों में से किसी ने ध्यान ही नहीं दिया था।

    जब वो अंदर गई तो हैबत ख़ान, नवाब और वो औरत तीनों नवाड़ी पलंग पर बैठे थे और ख़ामोशी तारी थी... अजीब क़िस्म की ख़ामोशी। ज़ेवरों से लदी-फंदी औरत अलबत्ता किसी क़दर मुज़्तरिब नज़र आती थी कि उसकी एक टांग बड़े ज़ोर से हिल रही थी।

    सरदार दहलीज़ के पास ही खड़ी हो गई। उसके क़दमों की आहट सुन कर जब हैबत ख़ान ने उसकी तरफ़ देखा तो उसने सलाम किया... हैबत ख़ान ने कोई जवाब दिया, वो सख़्त बौखलाया हुआ था।

    उस औरत की टांग हिलना बंद हुई और वो सरदार से मुख़ातिब हुई, “हम आए हैं, खाने-पीने का तो बंदोबस्त करो।”

    सरदार ने सर-ता-पा मेहमान नवाज़ बन कर कहा, “जो तुम कहो, अभी तैयार हो जाता है।”

    उस औरत ने जिसके ख़द-ओ-ख़ाल से साफ़ मुतरश्शह था कि बड़ी धड़ल्ले की औरत है, सरदार से कहा, “तो चलो तुम बावर्चीख़ाने में... चूल्हा सुलगाओ... बड़ी देगची है घर में?”

    “है!” सरदार ने अपना वज़नी सर हिलाया।

    “तो जाओ उसको धो कर साफ़ करो, मैं अभी आई।” वो औरत पलंग पर से उठी और ग्रामोफोन को देखने लगी।

    सरदार ने माज़रत भरे लहजे में उससे कहा, “गोश्त वग़ैरा तो, यहाँ नहीं मिलेगा।”

    उस औरत ने एक रिकार्ड पर सुई रखी, “मिल जाएगा। तुम से जो कहा है, वो करो और देखो आग काफ़ी हो।”

    सरदार ये अहकाम लेकर चली गई। अब वो ख़ुश-पोश औरत मुस्कुरा कर नवाब से मुख़ातिब हुई, “नवाब! हम तुम्हारे लिए सोने के कड़े लेकर आए हैं।”

    ये कह कर उसने अपना वेंटी बैग खोला और उसमें से बारीक सुर्ख़ काग़ज़ में लिपटे हुए कड़े निकाले जो काफ़ी वज़नी और ख़ूबसूरत थे।

    नवाब अपने साथ बैठे हुए ख़ामोश हैबत ख़ान को देख रही थी। उसने कड़ों को एक नज़र देखा और उससे बड़ी नर्म-ओ-नाज़ुक मगर सहमी हुई आवाज़ में पूछा, “ख़ान ये कौन है?” उसका इशारा उस औरत की तरफ़ था।

    वो औरत कड़ों से खेलते हुए बोली, “मैं कौन हूँ... मैं हैबत ख़ान की बहन हूँ।” और ये कह कर उसने हैबत ख़ान की तरफ़ देखा जो उसके इस जवाब पर सिकुड़ गया था। फिर वो नवाब से मुख़ातिब हुई, “मेरा नाम हलाकत है।”

    नवाब कुछ समझी। मगर वो उस औरत की आँखों से ख़ौफ़ खा रही थी जो यक़ीनन ख़ूबसूरत थीं मगर बड़े ख़ौफ़नाक तौर पर खुली। उनमें जैसे आग बरस रही थी।

    वो आगे बढ़ी और उसने सिमटी हुई, सहमी हुई नवाब की कलाइयाँ पकड़ीं और उसमें कड़े डालने लगी। लेकिन उसने उसकी कलाइयाँ छोड़ दीं और हैबत ख़ान से मुख़ातिब हुई, “तुम जाओ हैबत ख़ान.... मैं इसे अच्छी तरह सजा बना कर तुम्हारी ख़िदमत में पेश करना चाहती हूँ।”

    हैबत ख़ान मब्हूत था। जब वो उठा तो वो औरत जिसने अपना नाम हलाकत बताया था, ज़रा तेज़ी से बोली, “जाओ... तुम ने सुना नहीं?”

    हैबत ख़ान, नवाब की तरफ़ देखता हुआ बाहर चला गया। वो बहुत मुज़्तरिब था। उसकी समझ में नहीं आता था कि कहाँ जाये और क्या करे।

    मकान के बाहर जो बरामदा सा था, उसके एक कोने में टाट लगा बावर्चीख़ाना था। जब वो उसके पास पहुंचा तो उसने देखा कि सरदार आग सुलगा चुकी है। उसने उससे कोई बात की और सरकण्डों के उस पार सड़क पर चला गया... उसकी हालत नीम दीवानों की सी थी। ज़रा सी आहट पर भी वो चौंक उठता था।

    जब उसको दूर से एक लारी आती हुई दिखाई दी तो उसने सोचा कि वो उसे रोक ले और उसमें बैठ कर वहाँ से ग़ायब हो जाये। मगर जब वो पास आई तो ऐसी धूल उड़ी कि वो उसमें ग़ायब हो गया। उसने आवाज़ें दीं, मगर गर्द के बाइस उसका हलक़ इस क़ाबिल ही नहीं था कि बुलंद आवाज़ निकाल सके।

    गर्द-ओ-ग़ुबार कम हुआ तो हैबत ख़ान नीम मुर्दा था... उसने चाहा कि सरकण्डों के पीछे उस मकान में जाये जहां उसने कई दिन और कई रातें नवाब के अल्लढ़ पहलू में गुज़ारी थीं, मगर वो जा सका। उसके क़दम ही नहीं उठते थे।

    वो बहुत देर तक कच्ची सड़क पर खड़ा सोचता रहा कि ये मुआमला क्या है। वो औरत जो उसके साथ आई थी, उसके साथ उसके काफ़ी पुराने तअल्लुक़ात थे, सिर्फ़ इस बिना पर कि बहुत देर हुई, वो उसके ख़ाविंद की मौत का अफ़सोस करने गया था जो उसका लंगोटिया था। मगर इत्तिफ़ाक़ से ये मातम पुर्सी उन दिनों के बाहमी तअल्लुक़ में तबदील हो गई। ख़ाविंद की मौत के दूसरे ही दिन वो उसके घर में था, और उस औरत ने उसको ऐसे तहक्कुम से अंदर बुला कर अपना आप उसके सपुर्द किया था जैसे वो उसका नौकर है।

    हैबत ख़ान औरत के मुआमले में बिल्कुल कोरा था। जब शाहीना ने उससे अपने अजीब-ओ-ग़रीब तहक्कुम भरे इल्तिफ़ात का इज़हार किया तो उसके लिए यही बड़ी बात थी। उसमें कोई शक नहीं कि शाहीना के पास बे-अंदाज़ा दौलत थी। कुछ अपनी और कुछ अपने मरहूम ख़ाविंद की, मगर उसे उस दौलत से कोई सरोकार नहीं था। उसको शाहीना से सिर्फ़ यही दिलचस्पी थी कि वो उसकी ज़िंदगी की सब से पहली औरत थी। वो उसके तहक्कुम के नीचे शायद इसलिए दब के रह गया था कि वो बिल्कुल अनाड़ी था।

    बहुत देर तक वो कच्ची सड़क पर खड़ा सोचता रहा। आख़िर उससे रहा गया। सरकण्डों के पीछे मकान की तरफ़ बढ़ा तो उसने बरामदे में टाट लगे बावर्चीख़ाने में सरदार को कुछ भूनते हुए देखा। अंदर उस कमरे की तरफ़ गया जहां नवाड़ का पलंग था तो दरवाज़ा बंद पाया। उसने हौले से दस्तक दी।

    चंद लम्हात के बाद दरवाज़ा खुला। कच्चे फ़र्श पर उसको सब से पहले ख़ून ही ख़ून नज़र आया। वो काँप उठा। फिर उसने शाहीना को देखा जो दरवाज़ा के पट के साथ खड़ी थी। उसने हैबत ख़ान से कहा, “मैंने तुम्हारी नवाब को सजा बना दिया है!”

    हैबत ख़ान ने अपने ख़ुश्क गले को थूक से किसी क़दर तर कर के उससे पूछा, “कहाँ है?”

    शाहीना ने जवाब दिया, “कुछ तो उस पलंग पर है... लेकिन उसका बेहतरीन हिस्सा बावर्चीख़ाना में है।”

    हैबत ख़ान पर इसका मतलब समझे बगै़र हैबत तारी हो गई। वो कुछ कह सका। वहीं दहलीज़ के पास खड़ा रहा। मगर उसने देखा कि फ़र्श पर गोश्त के छोटे छोटे टुकड़े भी हैं और... एक तेज़ छुरी भी पड़ी है और नवाड़ी पलंग पर कोई लेटा है जिस पर ख़ून आलूद चादर पड़ी है।

    शाहीना ने मुस्कुरा कर कहा, “चादर उठा कर दिखाऊँ... तुम्हारी सजी-बनी नवाब है... मैंने अपने हाथों से सिंघार किया है... लेकिन तुम पहले खाना खा लो। बहुत भूक लगी होगी, सरदार बड़ा लज़ीज़ गोश्त भून रही है। उसकी बोटियाँ मैंने ख़ुद अपने हाथ से काटी हैं।”

    हैबत ख़ान के पांव लड़खड़ाए... ज़ोर से चिल्लाया, “शाहीना तुम ने ये क्या किया!”

    शाहीना मुस्कुराई, “जान-ए-मन! ये पहली मर्तबा नहीं... दूसरी मर्तबा है। मेरा ख़ाविंद, अल्लाह उसे जन्नत नसीब करे, तुम्हारी तरह ही बेवफ़ा था। मैंने ख़ुद उसको अपने हाथों से मारा था और उसका गोश्त पका कर चीलों और कौओं को खिलाया था... तुमसे मुझे प्यार है, इसलिए मैंने तुम्हारे बजाय...”

    उसने फ़ुक़रा मुकम्मल किया और पलंग पर से ख़ून आलूद चादर हटा दी...हैबत ख़ान की चीख़ उसके हलक़ के अंदर ही धंसी रही और वो बेहोश हो कर गिर पड़ा।

    जब उसे होश आया तो उसने देखा कि शाहीना कार चला रही है और वो ग़ैर इलाक़े में हैं।

    स्रोत:

    सरकन्डों के पीछे (Pg. 105)

    • लेखक: सआदत हसन मंटो
      • प्रकाशक: नवाज़ चौधरी

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