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यथार्थवाद पर कहानियाँ

कभी दो पैर फ़र्तूत

यह निराशा और अन्तर्विरोध के बीच रहते हुए सामाजिक यथार्थवाद की कहानी है। वो कई बरस बाद इस पार्क में आया था और उसे शिद्दत के साथ उस दूसरे बूढ़े की याद आ रही थी जिससे किसी न किसी बेंच पर उसकी मुलाक़ात हो जाती थी और वो हमेशा उसका मज़ाक़ उड़ाया करता था। आश्रम में गुज़ारे गए तीन बरसों ने, जहाँ उसने अपने लिए एक कुटिया ख़रीद ली थी, उसे एक दूसरे इंसान में ढाल दिया था। वो इस उम्मीद में था कि शायद किसी बेंच पर उस बूढ़े से मुलाक़ात हो जाएगी तो वह उसे आश्रम की अपनी ज़िंदगी के बारे में बताएगा, उस शांति के बारे में बताएगा जिसे उसने आश्रम में रह कर प्राप्त किया था। वो उसे बताएगा कि अगर तुम्हें लम्बी ज़िंदगी जीना है, तुम सही मायने में ज़िंदा रहने में यक़ीन रखते हो तो तुम्हें इस शहर के शोर-शराबे को छोड़ना होगा। इस शहर की मांगें इंसान को अंदर से खुरच-खुरच कर खोखला कर देती हैं।

सिद्दीक आलम

Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

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