अहमद कमाल परवाज़ी के शेर
मुझ को मालूम है महबूब-परस्ती का अज़ाब
देर से चाँद निकलना भी ग़लत लगता है
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टैग : चाँद
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तुझ से बिछड़ूँ तो तिरी ज़ात का हिस्सा हो जाऊँ
जिस से मरता हूँ उसी ज़हर से अच्छा हो जाऊँ
इस क़दर आप के बदले हुए तेवर हैं कि मैं
अपनी ही चीज़ उठाते हुए डर जाता हूँ
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टैग : तेवर
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तुम मिरे साथ हो ये सच तो नहीं है लेकिन
मैं अगर झूट न बोलूँ तो अकेला हो जाऊँ
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वो अपने हुस्न की ख़ैरात देने वाले हैं
तमाम जिस्म को कासा बना के चलना है
मैं इस लिए भी तिरे फ़न की क़द्र करता हूँ
तू झूट बोल के आँसू निकाल लेता है
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तुम्हारे वस्ल का जिस दिन कोई इम्कान होता है
मैं उस दिन रोज़ा रखता हूँ बुराई छोड़ देता हूँ
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एक ही तीर है तरकश में तो उजलत न करो
ऐसे मौक़े पे निशाना भी ग़लत लगता है
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मैं ने इस शहर में वो ठोकरें खाई हैं कि अब
आँख भी मूँद के गुज़रूँ तो गुज़र जाता हूँ
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मिरी आदत मुझे पागल नहीं होने देती
लोग तो अब भी समझते हैं कि घर जाता हूँ
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तन्हाई से बचाव की सूरत नहीं करूँ
मर जाऊँ क्या किसी से मोहब्बत नहीं करूँ
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मैं क़सीदा तिरा लिक्खूँ तो कोई बात नहीं
पर कोई दूसरा दोहराए तो शक करता हूँ
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न जाने क्या ख़राबी आ गई है मेरे लहजे में
न जाने क्यूँ मिरी आवाज़ बोझल होती रहती है
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ख़ुदाया यूँ भी हो कि उस के हाथों क़त्ल हो जाऊँ
वही इक ऐसा क़ातिल है जो पेशा-वर नहीं लगता
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जो खो गया है कहीं ज़िंदगी के मेले में
कभी कभी उसे आँसू निकल के देखते हैं
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रफ़ाक़तों का तवाज़ुन अगर बिगड़ जाए
ख़मोशियों के तआवुन से घर चला लेना
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मोहब्बत तीर है और तीर बातिन छेद देता है
मगर निय्यत ग़लत हो तो निशाने पर नहीं लगता
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टैग : तीर
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अगर कट-फट गया था मेरा दामन
तुम्हें सीना पिरोना चाहिए था
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आग तो चारों ही जानिब थी पर अच्छा ये है
होश-मंदी से किसी चीज़ को जलने न दिया
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