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मुज़्तर ख़ैराबादी

1865 - 1927 | ग्वालियर, भारत

प्रसिद्ध फ़िल्म गीतकार जावेद अख़्तर के दादा

प्रसिद्ध फ़िल्म गीतकार जावेद अख़्तर के दादा

मुज़्तर ख़ैराबादी के शेर

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मुसीबत और लम्बी ज़िंदगानी

बुज़ुर्गों की दुआ ने मार डाला

वक़्त दो मुझ पर कठिन गुज़रे हैं सारी उम्र में

इक तिरे आने से पहले इक तिरे जाने के बाद

व्याख्या

यह शे’र उर्दू के मशहूर अशआर में से एक है। इस शे’र का मूल विषय इंतज़ार और विरह है। वैसे तो एक आम इंसान की ज़िंदगी में कई बार और कई रूपों में कठिन समय आते हैं लेकिन इस शे’र में एक आशिक़ के मनोविज्ञान को ध्यान में रखते हुए शायर ये कहना चाहत है कि एक आशिक़ पर सारी उम्र में दो वक़्त बहुत कठिन होते हैं। एक वक़्त वो जब आशिक़ अपने प्रिय के आने का इंतज़ार करता है और दूसरा वो समय जब उसका प्रिय उस से दूर चला जाता है। इसीलिए कहा है कि मेरी ज़िंदगी में मेरे महबूब दो कठिन ज़माने गुज़रे हैं। एक वो जब मैं तुम्हारा इंतज़ार करता हूँ और दूसरा वो जब तुम मुझे वियोग की स्थिति में छोड़ के चले जाते हो। ज़ाहिर है कि दोनों स्थितियाँ पीड़ादायक हैं। इंतज़ार की अवस्था

शफ़क़ सुपुरी

इलाज-ए-दर्द-ए-दिल तुम से मसीहा हो नहीं सकता

तुम अच्छा कर नहीं सकते मैं अच्छा हो नहीं सकता

उसे क्यूँ हम ने दिया दिल जो है बे-मेहरी में कामिल जिसे आदत है जफ़ा की

जिसे चिढ़ मेहर-ओ-वफ़ा की जिसे आता नहीं आना ग़म-ओ-हसरत का मिटाना जो सितम में है यगाना

जिसे कहता है ज़माना बुत-ए-बे-महर-ओ-दग़ा-बाज़ जफ़ा-पेशा फ़ुसूँ-साज़ सितम-ख़ाना-बर-अन्दाज़

ग़ज़ब जिस का हर इक नाज़ नज़र फ़ित्ना मिज़ा तीर बला ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर ग़म-ओ-रंज का बानी क़लक़-ओ-दर्द

का मूजिब सितम-ओ-जौर का उस्ताद जफ़ा-कारी में माहिर जो सितम-केश-ओ-सितमगर जो सितम-पेशा है

दिलबर जिसे आती नहीं उल्फ़त जो समझता नहीं चाहत जो तसल्ली को समझे जो तशफ़्फ़ी को

जाने जो करे क़ौल पूरा करे हर काम अधूरा यही दिन-रात तसव्वुर है कि नाहक़

उसे चाहा जो आए बुलाए कभी पास बिठाए रुख़-ए-साफ़ दिखाए कोई

बात सुनाए लगी दिल की बुझाए कली दिल की खिलाए ग़म-ओ-रंज घटाए रह-ओ-रस्म

बढ़ाए जो कहो कुछ तो ख़फ़ा हो कहे शिकवे की ज़रूरत जो यही है तो चाहो जो

चाहोगे तो क्या है निबाहोगे तो क्या है बहुत इतराओ दिल दे के ये किस काम का दिल

है ग़म-ओ-अंदोह का मारा अभी चाहूँ तो मैं रख दूँ इसे तलवों से मसल कर अभी मुँह

देखते रह जाओ कि हैं उन को हुआ क्या कि इन्हों ने मिरा दिल ले के मिरे हाथ से खोया

मिरे गुनाह ज़ियादा हैं या तिरी रहमत

करीम तू ही बता दे हिसाब कर के मुझे

किसी की आँख का नूर हूँ किसी के दिल का क़रार हूँ

जो किसी के काम सके मैं वो एक मुश्त-ए-ग़ुबार हूँ

असीर-ए-पंजा-ए-अहद-ए-शबाब कर के मुझे

कहाँ गया मिरा बचपन ख़राब कर के मुझे

याद करना ही हम को याद रहा

भूल जाना भी तुम नहीं भूले

वो गले से लिपट के सोते हैं

आज-कल गर्मियाँ हैं जाड़ों में

बुरा हूँ मैं जो किसी की बुराइयों में नहीं

भले हो तुम जो किसी का भला नहीं करते

बोसे अपने आरिज़-ए-गुलफ़ाम के

ला मुझे दे दे तिरे किस काम के

लड़ाई है तो अच्छा रात-भर यूँ ही बसर कर लो

हम अपना मुँह इधर कर लें तुम अपना मुँह उधर कर लो

इक हम हैं कि हम ने तुम्हें माशूक़ बनाया

इक तुम हो कि तुम ने हमें रक्खा कहीं का

वक़्त आराम का नहीं मिलता

काम भी काम का नहीं मिलता

जिए जाते हैं पस्ती में तिरे सारे जहाँ वाले

कभी नीचे भी नज़रें डाल ऊँचे आसमाँ वाले

अगर तक़दीर सीधी है तो ख़ुद हो जाओगे सीधे

ख़फ़ा बैठे रहो तुम को मनाने कौन आता है

हमारे एक दिल को उन की दो ज़ुल्फ़ों ने घेरा है

ये कहती है कि मेरा है वो कहती है कि मेरा है

उन को आती थी नींद और मुझ को

अपना क़िस्सा तमाम करना था

उम्र सब ज़ौक़-ए-तमाशा में गुज़ारी लेकिन

आज तक ये खुला किस के तलबगार हैं हम

मदहोश ही रहा मैं जहान-ए-ख़राब में

गूंधी गई थी क्या मिरी मिट्टी शराब में

उन का इक पतला सा ख़ंजर उन का इक नाज़ुक सा हाथ

वो तो ये कहिए मिरी गर्दन ख़ुशी में कट गई

आँखें चुराओ दिल में रह कर

चोरी करो ख़ुदा के घर में

आइना देख कर ग़ुरूर फ़ुज़ूल

बात वो कर जो दूसरा करे

हाल उस ने हमारा पूछा है

पूछना अब हमारे हाल का क्या

मिरे दिल ने झटके उठाए हैं कितने ये तुम अपनी ज़ुल्फ़ों के बालों से पूछो

कलेजे की चोटों को मैं क्या बताऊँ ये छाती पे लहराने वालों से पूछो

तुम अगर चाहो तो मिट्टी से अभी पैदा हों फूल

मैं अगर माँगूँ तो दरिया भी दे पानी मुझे

ज़ुल्फ़ को क्यूँ जकड़ के बाँधा है

उस ने बोसा लिया था गाल का क्या

जान देना नहीं किसे मंज़ूर

तू किसी काम से तो आएगा

वो पास आने पाए कि आई मौत की नींद

नसीब सो गए मसरूफ़-ए-ख़्वाब कर के मुझे

सुब्ह तक कौन जियेगा शब-ए-तन्हाई में

दिल-ए-नादाँ तुझे उम्मीद-ए-सहर है भी तो क्या

एक हम हैं कि जहाँ जाएँ बुरे कहलाएँ

एक वो हैं कि जहाँ जाएँ वहीं अच्छे हैं

जो पूछा मुँह दिखाने आप कब चिलमन से निकलेंगे

तो बोले आप जिस दिन हश्र में मदफ़न से निकलेंगे

मोहब्बत में किसी ने सर पटकने का सबब पूछा

तो कह दूँगा कि अपनी मुश्किलें आसान करता हूँ

क्या असर ख़ाक था मजनूँ के फटे कपड़ों में

एक टुकड़ा भी तो लैला का गरेबाँ हुआ

बाज़ू पे रख के सर जो वो कल रात सो गया

आराम ये मिला कि मिरा हात सो गया

ऐसी क़िस्मत कहाँ कि जाम आता

बू-ए-मय भी इधर नहीं आई

मेरे अश्कों की रवानी को रवानी तो कहो

ख़ैर तुम ख़ून समझो इसे पानी तो कहो

हम से अच्छा नहीं मिलने का अगर तुम चाहो

तुम से अच्छे अभी मिलते हैं अगर हम चाहें

उठे उठ कर चले चल कर थमे थम कर कहा होगा

मैं क्यूँ जाऊँ बहुत हैं उन की हालत देखने वाले

तेरी रहमत का नाम सुन सुन कर

मुब्तला हो गया गुनाहों में

इश्क़ कहीं ले चल ये दैर-ओ-हरम छूटें

इन दोनों मकानों में झगड़ा नज़र आता है

हाल-ए-दिल अग़्यार से कहना पड़ा

गुल का क़िस्सा ख़ार से कहना पड़ा

दम-ए-ख़्वाब-ए-राहत बुलाया उन्हों ने तो दर्द-ए-निहाँ की कहानी कहूँगा

मिरा हाल लिखने के क़ाबिल नहीं है अगर मिल गए तो ज़बानी कहूँगा

मैं मसीहा उसे समझता हूँ

जो मिरे दर्द की दवा करे

मेरा रंग रूप बिगड़ गया मिरा यार मुझ से बिछड़ गया

जो चमन ख़िज़ाँ से उजड़ गया मैं उसी की फ़स्ल-ए-बहार हूँ

बुतो रंज के साथी हो आराम के तुम

काम ही जब नहीं आते हो तो किस काम के तुम

सुनोगे हाल जो मेरा तो दाद क्या दोगे

यही कहोगे कि झूटा है तू ज़माने का

अदू को छोड़ दो फिर जान भी माँगो तो हाज़िर है

तुम ऐसा कर नहीं सकते तो ऐसा हो नहीं सकता

वो शायद हम से अब तर्क-ए-तअल्लुक़ करने वाले हैं

हमारे दिल पे कुछ अफ़्सुर्दगी सी छाई जाती है

ज़ाहिद तो बख़्शे जाएँ गुनहगार मुँह तकें

रहमत-ए-ख़ुदा तुझे ऐसा चाहिए

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