एहसास पर शेर
शायरी में एहसास और भावना
को कई सतहों पर पेश किया गया है । साहित्य में भाषा या ज़बान के संदर्भ में बड़ी बात ये हॊती है कि लफ़्ज़ अपने शाब्दिक अर्थ से कही आगे निकल जाता है और हम अर्थों की ऐसी दुनिया में होते हैं जिसे सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है । ये एहसास स्वयं रचनाकार का हो सकता है और पाठक का भी । यहाँ प्रस्तुत शायरी में देखिए कि एक शायर अपनी कल्पना-शक्ति और रचनात्मकता के बल पर किस तरह जीवन के ना-मालूम किनारों को भाषा की एक नई शैली में ढालता है । एसास की शिद्दत किसी भी रचना में क्या भूमिका अदा कर सकती है उसका अंदाज़ा यहाँ प्रस्तुत चुनिंदा शायरी से लगाया जा सकता है ।
अपनी हालत का ख़ुद एहसास नहीं है मुझ को
मैं ने औरों से सुना है कि परेशान हूँ मैं
तकलीफ़ मिट गई मगर एहसास रह गया
ख़ुश हूँ कि कुछ न कुछ तो मिरे पास रह गया
आगही कर्ब वफ़ा सब्र तमन्ना एहसास
मेरे ही सीने में उतरे हैं ये ख़ंजर सारे
मौत की पहली अलामत साहिब
यही एहसास का मर जाना है
मैं उस के सामने से गुज़रता हूँ इस लिए
तर्क-ए-तअल्लुक़ात का एहसास मर न जाए
तन्हाई के लम्हात का एहसास हुआ है
जब तारों भरी रात का एहसास हुआ है
कैसी बिपता पाल रखी है क़ुर्बत की और दूरी की
ख़ुशबू मार रही है मुझ को अपनी ही कस्तूरी की
मुझे ये डर है दिल-ए-ज़िंदा तू न मर जाए
कि ज़िंदगानी इबारत है तेरे जीने से
रेज़ा रेज़ा कर दिया जिस ने मिरे एहसास को
किस क़दर हैरान है वो मुझ को यकजा देख कर
मुझ को एहसास-ए-रंग-ओ-बू न हुआ
यूँ भी अक्सर बहार आई है
मिरे अंदर कई एहसास पत्थर हो रहे हैं
ये शीराज़ा बिखरना अब ज़रूरी हो गया है
हमें कम-बख़्त एहसास-ए-ख़ुदी उस दर पे ले बैठा
हम उठ जाते तो वो पर्दा भी उठ जाता जो हाइल था
हर तरफ़ अपने ही अपने हाए तन्हाई न पूछ
किस क़दर खलती है अक्सर हम को बीनाई न पूछ
दुश्मन-ए-दिल ही नहीं दुश्मन-ए-जाँ होता है
उफ़ वो एहसास जो पीरी में जवाँ होता है
औरों की आग क्या तुझे कुंदन बनाएगी
अपनी भी आग में कभी चुप-चाप जल के देख
ग़म से एहसास का आईना जिला पाता है
और ग़म सीखे है आ कर ये सलीक़ा मुझ से