aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "بے کسب"
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संपादक
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कंवल बुक क्लब, लाहौर
शान्ति बुक कलब, कोलकाता
इर्तिक़ा बुक क्लब, कराची
भारती बुक क्लब, नई दिल्ली
अब्दुल अज़ीम ताजिर कुतुब, अहमदिया बुक
अरी बेकसी तेरे क़ुर्बान जाऊँबुरे वक़्त में एक तू रह गई है
तिरे बिन किस तरह बसर होगीइस शब-ए-ग़म की क्या सहर होगी
अकेले घर से पूछती है बे-कसीतिरा दिया जलाने वाले क्या हुए
बे-कसी में यही हूँ पास कहींमैं कहीं हूँ मिरे हवास कहीं
ग़ज़ल का शेर तो होता है बस किसी के लिएमगर सितम है कि सब को सुनाना पड़ता है
ज़िन्दगी की धूप-छाँव हमेशा एक सी नहीं रहती। वक़्त और हालात आ’म इन्सान के हों या आशिक़ और शायर के, इन्हें बदलते देर नहीं लगती ताक़त और इख़्तियार के लम्हे बेकसी और बेबसी के पलों में तब्दील होते हैं तो शायर की तड़प और दुख-दर्द लफ़ज़ों में ढल जाते हैं, ऐसे लफ़्ज़ जो दुखे दिलों की कहानी भी होते हैं और बेहतरीन शायरी भी। बेकसी शायरी का यह इन्तिख़ाब पेश हैः
रचनाकार की भावुकता एवं संवेदनशीलता या यूँ कह लीजिए कि उसकी चेतना और अपने आस-पास की दुनिया को देखने एवं एहसास करने की कल्पना-शक्ति से ही साहित्य में हँसी-ख़ुशी जैसे भावों की तरह उदासी का भी चित्रण संभव होता है । उर्दू क्लासिकी शायरी में ये उदासी परंपरागत एवं असफल प्रेम के कारण नज़र आती है । अस्ल में रचनाकार अपनी रचना में दुनिया की बे-ढंगी सूरतों को व्यवस्थित करना चाहता है,लेकिन उसको सफलता नहीं मिलती । असफलता का यही एहसास साहित्य और शायरी में उदासी को जन्म देता है । यहाँ उदासी के अलग-अलग भाव को शायरी के माध्यम से आपके समक्ष पेश किया जा रहा है ।
शेर-ओ-अदब के समाजी सरोकार भी वाज़ेह रहे हैं और शायरों ने इब्तिदा ही से अपने आप पास के मसाएल को शायरी का हिस्सा बनाया है अल-बत्ता एक दौर ऐसा आया जब शायरी को समाजी इन्क़िलाब के एक ज़रिये के तौर पर इख़्तियार किया गया और समाज के निचले, गिरे पड़े और किसान तबक़े के मसाएल का इज़हार शायरी का बुनियादी मौज़ू बन गया। आप इन शेरों में देखेंगे कि किसान तबक़ा ज़िंदगी करने के अमल में किस कर्ब और दुख से गुज़र्ता है और उस की समाजी हैसियत क्या है।किसानों पर की जाने वाली शायरी की और भी कई जहतें है। हमारा ये इन्तिख़ाब पढ़िए।
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चाैधरी मोहम्मद नईम
किसी के बिन किसी की याद के बिनजिए जाने की हिम्मत है नहीं तो
बे-कसी पर ज़ुल्म ला-महदूद हैमतला-ए-इंसाफ़ अब्र-आलूद है
बे-कसी रुख़ बदल ही जाती हैआह मुँह से निकल ही जाती है
आशिक़ की बे-कसी का तो आलम न पूछिएमजनूँ पे क्या गुज़र गई सहरा गवाह है
मोहब्बत पर न भूलो मोहब्बत बे-कसी हैसुकून-ए-सर्व-ओ-सुंबुल सब अपनी सादगी है
गुज़रा है नागवार उन्हें बे-कसी का शोरकानों में जिन के गूँज रहा है ख़ुशी का शोर
बे-कसी से मरने मरने का भरम रह जाएगावो ज़रूर आएँगे जब आँखों में दम रह जाएगा
अजीब रंग सा चेहरों पे बे-कसी का हैचलो सँभल के ये आलम रवा-रवी का है
ऐ चर्ख़ बे-कसी पे हमारी नज़र न करजो कुछ कि तुझ से हो सके तू दर-गुज़र न कर
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