Quiz A collection of interesting questions related to Urdu poetry, prose and literary history. Play Rekhta Quiz and check your knowledge about Urdu!
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
लोकप्रिय विषयों और शायरों के चुनिन्दा 20 शेर
उर्दू का पहला ऑनलाइन क्रासवर्ड पज़ल। भाषा और साहित्य से संबंधित दिलचस्प पहेलियाँ हल कीजिए और अपनी मालूमात में इज़ाफ़ा कीजिए।
पहेली हल कीजिएशब्दार्थ
हमारी नस्ल सँवरती है देख कर हम को
सो अपने-आप को शफ़्फ़ाफ़-तर भी रखना है
"ज़मीं से रिश्ता-ए-दीवार-ओ-दर भी रखना है" फ़ातिमा हसन की ग़ज़ल से
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जोश मलीहाबादी और शाहिद देहलवी के बीच एक वाद विवाद सन् साठ के दशक में उर्दू पत्रिकाओं के द्वारा हुआ था। मासिक 'अफ़कार' का प्रसिद्ध जोश विशेषांक जो पहली बार सहबा लखनवी ने 1961 में प्रकाशित किया था उसमें शाहिद अहमद देहलवी का लेख "जोश मलीहाबादी दीदा ओ शुनीदा" शामिल था।उस लेख को जोश साहब ने अपनी बेइज़्ज़ती और अपमान समझा। उत्तर में 1962 में मासिक 'अफ़कार' ही में जोश का एक विस्तृत लेख "ज़र्ब ए शाहिद बफ़र्क़ शाहिद बाज़" प्रकाशित हुआ जिसमें जोश ने नाराज़ हो कर न केवल शाहिद अहमद देहलवी की साहित्यिक प्रतिष्ठा की धज्जियां उड़ाई थीं बल्कि उनके वालिद डिप्टी नज़ीर अहमद को भी नहीं बख़्शा था।
उसके जवाब में शाहिद अहमद देहलवी ने मासिक 'साक़ी' का वृहद जोश विशेषांक 1963 में प्रकाशित किया जिसमें देशभर से जोश के विरुद्ध लेख लिखवाए।उस अंक की समस्त प्रतियां तुरंत बिक गई थीं। 06 रूपए की उस पत्रिका को लोग 3500/- में भी खरीदने को तैयार थे किन्तु मिल ही नहीं रहा था। लोगों के आग्रह के बावजूद शाहिद अहमद देहलवी दूसरा संस्करण प्रकाशित करने को तैयार नहीं हुए।
"अफ़शां" सोने के या सुनहरी बुरादे को कहते हैं जो औरतें सिंगार के रूप में अपनी मांग में या माथे पर छिड़कती हैं, विशेष रूप से दुल्हन की मांग में अफ़शां सजाई या "चुनी" जाती थी। क़मर जलालवी का शे'र है:
क़मर अफ़शां चुनी है रुख़ पे उसने इस सलीक़े से
सितारे आसमां से देखने को आए जाते हैं
उर्दू में शब्द अफ़शां छिड़कने, झड़ने या बिखेरने के मायने में प्रत्यय के रूप में भी इस्तेमाल होता है। लड़कियों के नाम "मेहर अफ़शां"(मोहब्बत बिखेरने वाली) और "नूर अफ़शां" रखे जाते हैं। किसी शे'र में आसमान किसी की क़ब्र पर "शब्नम अफ़शानी" करता है तो कहीं किसी की बातों से "गुल अफ़शानी" होती है यानी फूल बिखेरे जाते हैं।
ग़ालिब का एक मशहूर शे'र है:
फिर देखिए अंदाज़ ए गुल अफ़शानी ए गुफ़्तार
रख दे कोई पैमाना ए सहबा मिरे आगे
"गुल अफ़शानी ए गुफ़्तार" के लिए उर्दू में "फूल झड़ने" का मुहावरा भी मौजूद है। अहमद फ़राज़ एक शे'र बहुत मशहूर हुआ है:
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात करके देखते हैं
और एक शब्द है "इफ़शा" जिसके मायने हैं भेद खुल जाना या प्रकट हो जाना। उर्दू शायरी में हज़ारों अश्आर निगाहों से राज़ ए इश्क़ इफ़शा होने का हाल बयान करते हैं और जुर्म का भेद जानने के लिए थाने में "तफ़्तीश"भी की जाती है।
उर्दू ने अरबी और फ़ारसी के बहुत से शब्दों को अपनाया है लेकिन वह कुछ अलग मायने में इस्तेमाल होते हैं, उनमें से एक शब्द है "लतीफ़ा"जिसका उर्दू में अर्थ है हंसाने वाली कोई छोटी सी कहानी या चुटकुला, जबकि अरबी में इसके मायने हैं नाज़ुक और उम्दा चीज़। अरब मुल्कों में लड़कियों के नाम लतीफ़ा होते हैं। ललित कला के लिए उर्दू में फ़ुनून ए लतीफ़ा शब्द का प्रयोग किया जाता है। लतीफ़ा का संबंध शब्द लुत्फ़ से है जो उर्दू में कई रूप दिखाता है। इसके मायने आनंद, अनुकंपा भी हैं। अमीर मीनाई का मशहूर शे'र है:
लुत्फ़ आने लगा जफ़ाओं में
वो कहीं मेहरबां न हो जाए
और हफ़ीज़ जालंधरी कहते हैं:
हम से ये बार ए लुत्फ़ उठाया न जाएगा
एहसां ये कीजिए कि ये एहसां न कीजिए
मजाज़ की इन्क़लाबी नज़्में अपने ज़माने में बहुत मशहूर थीं। बंबई में एक बार किसी मज़दूर ने फ़रमाइश की "आप अपनी वो नज़्म सुनाइए जिसमें आप ने कहा है, रहबरी "चालू रही" पैग़म्बरी "चालू रही" ज़रगरी "चालू रही।"
क्या आप जानते हैं कि मजाज़ ने हंस कर अपनी यह पूरी नज़्म जिस का शीर्षक है "ख़्वाब ए सहर" न सिर्फ़ सुना दी बल्कि जो उसका असल शे'र था:
रहबरी जारी रही, पैग़म्बरी जारी रही
दीन के पर्दे में जंग ए ज़रगरी जारी रही
उसमें "जारी रही" की जगह "चालू रही" ही पढ़ा।
मज़दूरों के एक और जलसे में कुछ मज़दूरों ने उन से निवेदन किया कि "वह लाल झंडा है हमारे हाथ में, वाली नज़्म सुनाएं।" मजाज़ ने मज़दूरों को ख़ुश करने के लिए अपनी उस नज़्म के उस टेप के मिसरे
"आज झंडा है हमारे हाथ में"
में हर जगह "आज" के बजाए "लाल" ही पढ़ा।
हरम के मा’नी हैं काबिल-ए-इज़्ज़त मुक़द्दस चीज़, एहतिराम के लायक़, मोहतरम। ये लफ़्ज़ कई तरह इस्तिमाल होता है।
हरम ज़नान ख़ाने को या’नी घर के उस हिस्से को कहा जाता है जिसमें औरतें रहती हैं।
मक्के मदीने और उनके इर्द-गिर्द के चंद मील का इलाक़ा भी हरम कहलाता है।
उर्दू शायरी में दैर-ओ-हरम का भी बहुत ज़िक्र आता है। दैर या’नी बुतख़ाना और हरम मस्जिद। दैर-ओ-हरम और उनसे वाबस्ता लोगों के दर्मियान की कश्मकश और झगड़े बहुत पुराने हैं। लेकिन शायर इन झगड़ों से मावरा होते हैं।
बुझ रहे हैं चराग़-ए-दैर-ओ-हरम
दिल जलाओ कि रौशनी कम है
शायरी की दुनिया बहुत खुली हुई, कुशादा और ज़िंदगी से भरपूर है। उर्दू के शायरों ने हमेशा दैर-ओ-हरम के महदूद दायरे में बंद हो कर सोचने वाले लोगों को तंज़ का निशाना बनाया है। सैकड़ों अश्आर इस मौज़ू पर मिलते हैं।
जन्मदिन
आधुनिक उर्दू ग़ज़ल के संस्थापकों में से एक। भारत के शहर अंबाला में पैदा हुए और पाकिस्तान चले गए जहाँ बटवारे के दुख दर्द उनकी शायरी का केंद्रीय विषय बन गए।
नए कपड़े बदल कर जाऊँ कहाँ और बाल बनाऊँ किस के लिए
वो शख़्स तो शहर ही छोड़ गया मैं बाहर जाऊँ किस के लिए
प्रतिष्ठित शायरों की चुनिन्दा शायरी
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