Quiz A collection of interesting questions related to Urdu poetry, prose and literary history. Play Rekhta Quiz and check your knowledge about Urdu!
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
लोकप्रिय विषयों और शायरों के चुनिन्दा 20 शेर
उर्दू का पहला ऑनलाइन क्रासवर्ड पज़ल। भाषा और साहित्य से संबंधित दिलचस्प पहेलियाँ हल कीजिए और अपनी मालूमात में इज़ाफ़ा कीजिए।
पहेली हल कीजिएशब्दार्थ
कोई लुक़्मा जो कभी हम को मयस्सर आया
साथ ही दाँत के नीचे कोई कंकर आया
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शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी (1935-2020 ) उर्दू साहित्य के आकाश का चमकता सितारा, दर्जनों पुस्तकों के लेखक, प्रसिद्ध आलोचक, उपन्यासकार, बहुआयामी व्यक्तित्व, बचपन से ही किताबें पढ़ने के शौकीन थे।बारह साल की उम्र से ही आंखों पर चश्मा लग गया था। उन्हें घर में "बच्चे मियां" कहा जाता था। बी.ए.तक की शिक्षा गोरखपुर में हुई जहां उनके वालिद नौकरी के सिलसिले में रहते थे। वहां उनकेे कालेज के पास एक जिल्द साज़ की दुकान थी, वहां जो भी किताबें जिल्द बंदी के लिए आतीं, फ़ारूक़ी साहब वहीं बैठ कर पढ़ लेते। वह प्रायः अपने तायाज़ाद भाईयों के साथ पैदल कालेज जाते समय भी कोई किताब पढ़ने लगते। उनकेे भाई उन्हें कार, साईकिल और दूसरी सवारियों के टक्कर से बचाते। अंग्रेज़ी में एम.ए करने इलाहाबाद गए तो वहां भी चलते समय किताब पढ़ने की आदत रही। रास्ते में लोग उनकी तन्मयता देख कर ख़ुद ही रास्ता दे देते। वह इंडियन पोस्टल सर्विस में उच्च पदों पर आसीन रहे।आफ़िस में जब भी फ़ाइलों से सर उठाने की फ़ुर्सत मिलती तब कोई किताब उनके हाथ में होती। नौकरी के दौरान ही उन्होंने "शब ख़ून" नामक मासिक साहित्यिक पत्रिका निकाला जो निरंतर चालीस वर्षों तक जारी रहा। यह पत्रिका उर्दू अदब के आधुनिक रूझान के विकास में बहुत सहायक सिद्ध हुआ।
फ़ारूक़ी साहब साहित्य के अलावा चित्रकारी और संगीत के भी रसिया थे, विशेष रूप से हिंदुस्तानी क्लासिकी संगीत के
प्रेमी थे। जानवरों और पक्षियों से भी बहुत दिलचस्पी थी। इलाहाबाद में उन्होंने अपने घर में विभिन्न प्रकार की चिड़ियां पाल रखी थीं। वह किसी भी जानवर को मरते या ज़बह होते नहीं देख सकते थे।
उनका पैतृक स्थान आजमगढ़ था लेकिन उनकी पैदाइश उनके ननिहाल प्रतापगढ़ में हुई थी।
'आब ए रवां' के मायने हैं बहता हुआ पानी लेकिन 'आब ए रवां' एक महीन बुने हुए सूती कपड़े का नाम भी है। यह आपने समय की बहुत नफ़ीस मलमल थी और यूरोप की व्यापारिक कम्पनियां उसे हिंदुस्तान से आयात किया करती थीं और अंग्रेज़ों में यह Abaron के नाम से जानी जाती थी।
'आब ए रवां' के दुपट्टे और लिबास का उल्लेख क्लासिकी उर्दू शायरी में काफ़ी मिलता है। नज़ीर अकबराबादी के एक शे'र में इस आब ए रवां के पैरहन अर्थात लिबास की बात किस तरह आंसुओं की झड़ी की मुनासिबत से आई है।
अश्कों के तसलसुल ने छुपाया तन ए उर्यां
ये 'आब ए रवां' का है नया पैरहन अपना
इस शब्द से सम्बंधित एक मुहावरा भी है, "आब ए रवां में गाढ़े का पैवंद।" अर्थात अनमेल या बेजोड़ पैवंद लगाना। गाढ़ा एक मोटे खुरदरे कपड़े का नाम है।
"ग़ुबार ए ख़ातिर" मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की किताब है जो एक साहित्यिक कृति है। मौलाना आज़ाद स्वतंत्रता सेनानी और स्वतंत्र भारत के पहले शिक्षा मंत्री थे। ग़ुबार ए ख़ातिर उन चौबीस पत्रों पर आधारित है जो उन्होंने सन् 1942-1945 के मध्य क़िला अहमद नगर में क़ैद के ज़माने में लिखे थे। मौलाना आल इंडिया कांग्रेस कमेटी की बैठक की अध्यक्षता के लिए बम्बई गए थे और वहीं गिरफ्तार कर लिए गए थे।
यह सारे पत्र नवाब सदर यार जंग मौलाना हबीब उर रहमान ख़ान शेरवानी रईस भीकमपुर ज़िला अलीगढ़ के नाम लिखे गए थे, लेकिन ये पत्र जो क़िला अहमद नगर की घटनाओं और अनुभवों व विभिन्न विषयों, विचारों और दर्शन पर आधारित हैं, क़ैद की सख़्त पाबंदियों के कारण पोस्ट नहीं किए जा सकते थे। और यह बात मौलाना को मालूम थी कि ये पत्र पाने वाले को भेजे नहीं जा सकते। ये पत्र निजी प्रकार के थे और इस विचार से लिखे भी नहीं गए थे कि प्रकाशित किए जाएंगे, लेकिन क़ैद से रिहाई के बाद अपने सेक्रेटरी मौलाना अजमल ख़ां के आग्रह पर मौलाना ने उन्हें पुस्तकार में प्रकाशित किया।
ये पत्र उनके आरम्भिक जीवन के विवरण के साथ साथ ज्ञान वर्धक और साहित्यिक ज्ञान का ख़ज़ाना भी हैं और मौलाना आज़ाद की अद्वितीय शैली का शिखर बिंदु समझे जाते हैं।
"अफ़शां" सोने के या सुनहरी बुरादे को कहते हैं जो औरतें सिंगार के रूप में अपनी मांग में या माथे पर छिड़कती हैं, विशेष रूप से दुल्हन की मांग में अफ़शां सजाई या "चुनी" जाती थी। क़मर जलालवी का शे'र है:
क़मर अफ़शां चुनी है रुख़ पे उसने इस सलीक़े से
सितारे आसमां से देखने को आए जाते हैं
उर्दू में शब्द अफ़शां छिड़कने, झड़ने या बिखेरने के मायने में प्रत्यय के रूप में भी इस्तेमाल होता है। लड़कियों के नाम "मेहर अफ़शां"(मोहब्बत बिखेरने वाली) और "नूर अफ़शां" रखे जाते हैं। किसी शे'र में आसमान किसी की क़ब्र पर "शब्नम अफ़शानी" करता है तो कहीं किसी की बातों से "गुल अफ़शानी" होती है यानी फूल बिखेरे जाते हैं।
ग़ालिब का एक मशहूर शे'र है:
फिर देखिए अंदाज़ ए गुल अफ़शानी ए गुफ़्तार
रख दे कोई पैमाना ए सहबा मिरे आगे
"गुल अफ़शानी ए गुफ़्तार" के लिए उर्दू में "फूल झड़ने" का मुहावरा भी मौजूद है। अहमद फ़राज़ एक शे'र बहुत मशहूर हुआ है:
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात करके देखते हैं
और एक शब्द है "इफ़शा" जिसके मायने हैं भेद खुल जाना या प्रकट हो जाना। उर्दू शायरी में हज़ारों अश्आर निगाहों से राज़ ए इश्क़ इफ़शा होने का हाल बयान करते हैं और जुर्म का भेद जानने के लिए थाने में "तफ़्तीश"भी की जाती है।
इश्क़ के हवाले से शम्अ' और परवाना के हज़ारों एक से बढ़ कर एक शेर उर्दू शाइरी में भरे पड़े हैं। परवानों का तो हश्र जो होना था हो चुका
गुज़री है रात शम्अ' पे क्या देखते चलें
शाद अज़ीम आबादी
लेकिन उर्दू में एक और भी ‘‘परवाना’’ है जो पतिंगा नहीं है न ही उसका शम्अ' से कोई तअ'ल्लुक़ है। इस लफ़्ज़ परवाना के मा'नी हैं इजाज़त-नामा, मंज़ूरी, सरकारी या शाही हुक्म और वॉरन्ट वग़ैरा इस क़ानूनी लफ़्ज़ को शाइरी से क्या लेना देना?
लेकिन अकबर इलाहा आबादी सर सय्यद के ता'लीमी मिशन और अंग्रेज़ी साहिबों की ख़ुश-नूदी पर तंज़ के तीर चलाते हुए इस क़ानूनी ‘परवाने’ को भी शाइरी में ले ही आए और वो भी अंग्रेज़ी अल्फ़ाज़ लायलटी और हानर के साथ।
दिला दे हम को भी साहब से लोएलटी का परवाना
क़यामत तक रहे सय्यद तिरे आनर का अफ़्साना
इसके अलावा उर्दू लुग़त में ये भी मिलता है कि परवाना एक छोटा सा जानवर भी होता है जिसके मुतअल्लिक़ मशहूर है कि शेर के आगे आगे चीख़ता हुआ चलता है ताकि दूसरे जानवर शेर की मौजूदगी से ख़बर-दार हो के छुप जाएँ। हो सकता है कोई शायर इस पर भी शेर लिख दे।
सूफ़ी शायर धार्मिक शायरी के लिए विख्यात
अगर काबे का रुख़ भी जानिब-ए-मय-ख़ाना हो जाए
तो फिर सज्दा मिरी हर लग़्ज़िश-ए-मस्ताना हो जाए
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