मैं स्कूल से छुट्टी लेकर अपने मामा की शादी में गाँव गया था। एक हफ़्ता स्कूल से ग़ायब रहने के बाद स्कूल आया तो मुझे क्लास में कुछ कमी सी महसूस हुई। दर-अस्ल मेरे सामने बैठने वाला शहज़ाद अपनी सीट पर मौजूद नहीं था। दरमयानी छुट्टी में मैंने अपने दोस्त कैलाश से पूछा, “आज शहज़ाद स्कूल नहीं आया?”
कैलाश ने कहा, “वो गुज़िश्ता पाँच दिनों से स्कूल नहीं आ रहा है और शायद अब आएगा भी नहीं।”
“क्यों? क्या बात हुई?”
“फ़ुटबॉल की प्रैक्टिस के वक़्त उसका रमेश से झगड़ा हो गया था। अपने दोस्तों के साथ मिल कर उसने शहज़ाद को बहुत मारा। उसका बस्ता फेंक दिया और कपड़े भी फाड़ दिए। उसके पिता जी आए थे। हेड-मास्टर साहब से शिकायत की। उन्होंने शहज़ाद के पिता जी को समझा-बुझा कर वापस कर दिया और रमेश के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की। इसलिए शहज़ाद के पिता जी ने उसे घर में बिठा लिया। अब भी वो अपने पिता जी के साथ सब्ज़ी के ठेले पर सब्ज़ियाँ बेचने जाता है।”
मैंने कहा, “अरे ये तो बहुत बुरा हुआ ग़रीब लड़के को इस तरह मारना नहीं चाहिए था। हेड-मास्टर साहब को उसके ख़िलाफ़ कार्रवाई करनी चाहिए थी।”
कैलाश ने कहा, “रमेश के ख़िलाफ़ कोई कुछ नहीं कर सकता। उसके दादा जी स्कूल के सदर हैं। उनकी नौकरी ख़तरे में पड़ जाएगी।”
“लेकिन एक ग़रीब और ज़हीन बच्चे की ज़िंदगी बर्बाद हो रही है इसका ज़िम्मेदार कौन है?”
“तुमको तो मा’लूम है रमेश कैसा ख़तरनाक लड़का है कोई उससे दुश्मनी लेने की हिम्मत नहीं करता।”
मैंने कहा, “मैं हिम्मत करूँगा, एक ज़हीन लड़के की ता’लीम का सिलसिला ख़त्म न होने पाए उसके लिए मैं रमेश से टकराऊँगा।”
“तुम क्या करोगे?”
“मैं उसके दादा जी से उसकी शिकायत करूँगा, वो अपने दादा जी से बहुत डरता है और उसके दादा जी बहुत नेक आदमी हैं।”
कैलाश ने कहा, “अच्छे से सोच लो! रमेश से दुश्मनी मोल लेना तुम्हारे लिए बहुत ख़तरनाक साबित हो सकता है।”
“मैं हर ख़तरे से निमटूँगा ताकि एक बच्चा ता’लीम हासिल कर सके, कुछ बन सके।”
स्कूल से छुट्टी होने के बाद मैं घर आया और शहज़ाद की अच्छाईयाँ, ज़हानत और खेल-कूद में उसकी उम्दा कारकर्दगी को बयान करते हुए रमेश की बुरी हरकतों की बाबत एक तफ़सीली ख़त लिखा और शाम के वक़्त रमेश के घर पहुँच गया। मुझे मालूम था कि इस वक़्त उसके दादा जी घर में ही रहते हैं और यही वक़्त होता है जब रमेश फ़ुटबॉल की प्रैक्टिस कर के घर आता है।
मैं उनके घर में दाख़िल हुआ तो उसके दादा जी सामने बैठक के कमरे में बैठे हुए कोई अख़बार देख रहे थे। मैं प्रणाम कर के उनके सामने जा कर खड़ा हो गया। वो हैरत से मेरी तरफ़ देखने लगे।
मैंने कहा, “मेरा नाम शरद है मैं स्कूल में रमेश के साथ पढ़ता हूँ।”
इतना कह कर मैंने वो तफ़सीली ख़त दादा जी के हाथ में दे दिया। जैसे-जैसे वो ख़त पढ़ते जा रहे थे उनके चेहरे का रंग तबदील होता जा रहा था। जैसे ही उन्होंने ख़त पढ़ कर ख़त्म किया बस उसी वक़्त रमेश घर में दाख़िल हुआ। मुझे अपने घर में देख कर वो बहुत हैरान हुआ। दादा जी के हाथ में चिट्ठी मौजूद थी और ग़ुस्से से उनका हाथ थर-थर काँप रहा था। रमेश मुआमले को समझ नहीं पाया। दादा जी को नमस्ते कह कर वो एक तरफ़ खड़ा हो गया। दादा जी अपनी जगह पर खड़े हो गए रमेश के क़रीब गए और एक ज़ोरदार तमांचा उसके गाल पर मारा और कहा, “अपनी ताक़त और दौलत का ग़लत इस्तेमाल कर रहे हो तुम। शहज़ाद को तुमने क्यों मारा?”
“दादा जी वो मुझसे मुँह ज़ोरी कर रहा था।”
“अच्छा खेल के दौरान कुछ कम ज़्यादा हो जाएगी तो तुम उसे मारोगे? एक ग़रीब लड़के की ज़िंदगी बर्बाद करना चाहते हो तुम। तुम अभी मेरे साथ उसके घर चलो और पैर पकड़ कर उससे माफ़ी माँगो। चलो मेरे साथ।”
और फिर उन्होंने मुझसे कहा, “तुम भी हमारे साथ चलो।”
दादा जी ने अपनी कार निकलवाई और हम शहज़ाद के घर की तरफ़ चल दिए। झोंपड़-पट्टी की हद शुरू हुई, रात हो चुकी थी मैंने एक जगह कार रुकवाई और चंद गलियों को पार कर के हम एक झोंपड़े के सामने रुक गए। दरवाज़ा खुला हुआ था अंदर एक बल्ब जल रहा था। एक कोने में खाने पकाने का सामान रखा हुआ था, दूसरे कोने में एक औरत सिलाई मशीन पर कपड़े सी रही थी। क़रीब ही एक लड़की चटाई पर बैठ कर कुछ पढ़ रही थी, झोंपड़े के बाहर शहज़ाद अपने पिता जी के साथ हाथ ठेले के पास खड़ा हुआ था और हाथ ठेले की सबज़ियाँ अंदर रखने में अपने पिता जी की मदद कर रहा था। हमें देख कर शहज़ाद और उसके पिता जी दोनों बहुत हैरान हुए। इससे पहले कि वो कुछ समझ पाते रमेश के दादा जी शहज़ाद के पिता जी के क़रीब पहुँच गए। उन्होंने शहज़ाद के पिता जी को मुख़ातब कर के कहा, “भाई जी। मैं इस ना-लायक़ रमेश का दादा हूँ और स्कूल का सदर भी हूँ। मेरे पोते ने तुम्हारे बेटे के साथ जो सुलूक किया है मैं उसके लिए तुमसे माफ़ी माँगने आया हूँ। मुझे और मेरे पोते को माफ़ कर दो।”
इतना कह कर उन्होंने रमेश को इशारा किया। वो आगे बढ़ा, उसने शहज़ाद को गले लगा लिया और रंजीदा लहजे में बोला, “शहज़ाद मुझे माफ़ कर दो, मुझसे बड़ी ग़लती हो गई और भगवान के लिए स्कूल आना बंद मत करो। हम सबका मुस्तक़बिल ता’लीम से ही जुड़ा हुआ है। मुझे अपनी ग़लती पर बहुत अफ़सोस है।” इतना कह कर वो शहज़ाद के पिता जी के पैरों को छू कर बोला, “अंकल-जी उसे स्कूल आने से मत रोकिए। मैं ख़ुद उसकी मदद करूँगा। मेरी ग़लत हरकत के लिए मुझे भी माफ़ कर दीजिए।”
शहज़ाद के पिता जी ने रमेश को गले से लगा लिया और कहा, “इतने बड़े आदमी मुझ ऐसे ग़रीब आदमी के घर माफ़ी माँगने आए हैं इससे बड़ी बात मेरे लिए और क्या हो सकती है, बेटा जाओ। शहज़ाद कल से रोज़ाना स्कूल आएगा।”
रमेश ने शहज़ाद से हाथ मिलाया फिर मुझसे हाथ मिला कर बोला, “शरद तुमने शहज़ाद से अपनी दोस्ती का हक़ अदा किया और मुझे भी अपनी ग़लतियों का एहसास दिला दिया है, बहुत-बहुत शुक्रिया।”
हम लोग कार में बैठ कर वहाँ से वापस हो गए।
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