aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
یگانہ چنگیزی المعروف غالب شکن کے کلام کا انتخاب زیر مطالعہ ہے۔ جس میں غزلیں ،نظمیں ، رباعیات اورقطعات شامل ہیں۔ یگانہ نہ صرف نام کے یگانہ تھے بلکہ کلام میں بھی یگانہ تھے۔انھوں نے شاعری میں اپنا منفرد لہجہ اپنایا ہے۔ان کی زندگی مصائب و آلام میں گذری ،اس لیے ان کا کلام بھی اسی درد وکرب کا عکاس ہے۔یگانہ نے شاعری کی تقریبا تمام اصناف میں طبع آزمائی کی ہے۔لیکن ان کی شہرت ان کی غزل گوئی کے باعث ہے۔انھوں نے روایتی غزل کی پاسداری کے ساتھ جدت کے طور پر اردو غزل کو باغیانہ تیور سے آشنا کیاہے۔ موضوعات گرچہ وہی روایتی ہیں لیکن انداز نیا اور منفرد ہے۔بندش کی چستی،لفظیات کا انتخاب، خیالات کی دلکشی و شائستگی کلام یگانہ کی اہم خصوصیات ہیں۔ اس انتخاب کو انیس اشفاق نے انجام دیا ہے۔ مرتب نے مقدمہ میں یگانہ کے کلام پر سیر حاصل گفتگو کی ہے۔
मिर्ज़ा यास यगाना चंगेज़ी अपने समकालीनों में अपनी शायरी के नये रंगों और दुख दर्द की बेशुमार सूरतों में लिपटी हुई ज़िंदगी के सबब सबसे अलग नज़र आते हैं। यगाना का नाम मिर्ज़ा वाजिद हुसैन था। पहले यास तख़ल्लुस करते थे, बाद में यगाना तख़ल्लुस इख़्तियार किया। उनकी पैदाइश 17 अक्तूबर 1884 को मुहल्ला मुग़लपुरा अज़ीमाबाद में हुई। 1903 में कलकत्ता यूनिवर्सिटी से मैट्रिक का इम्तिहान पास किया। आर्थिक तंगी की वजह से शिक्षा पूरी नहीं कर सके। 1904 में वाजिद अली शाह के नवासे शहज़ादा मिर्ज़ा मुहम्मद मुक़ीम बहादुर के अंग्रेज़ी के शिक्षक नियुक्त हुए। मगर यहाँ की आब-ओ-हवा यगाना को रास नहीं आयी और वह अज़ीमाबाद लौट आये। अज़ीमाबाद में भी उनकी बीमारी का क्रम जारी रहा, इस लिए आब-ओ-हवा के बदलाव के लिए 1905 में उन्होंने लखनऊ का रुख़ किया। यहाँ की आब-ओ-हवा और इस शहर की रंगारंग दिलचस्पियों ने यगाना को कुछ ऐसा प्रभावित किया कि फिर यहीं के हो रहे। यहीं शादी की और यहीं अपनी आख़िरी सांसें लीं। आजीविका की तलाश के लिए लाहौर और हैदराबाद गये भी लेकिन लौट कर लखनऊ ही आये।
आरम्भिक कुछ वर्षों तक यगाना के तअल्लुक़ात लखनऊ के शायरों और अदीबों के समय खुशगवार रहे। उन्हें मुशायरों में बुलाया जाता और यगाना अपनी तहदार शायरी और अच्छी आवाज़ के आधार पर ख़ूब दाद वसूल करते लेकिन धारे-धीरे यगाना की लोकप्रियता लखनवी शायरों को खटकने लगी। वह यह कैसे बर्दाश्त कर सकते थे कि कोई ग़ैर लखनवी लखनऊ के अदबी समाज में क़द्र की निगाह से देखा जाने लगे। इसलिए यगाना के ख़िलाफ़ साज़िशें शुरू हो गयीं। उनके लिए आर्थिक मुश्किलें पैदा की जाने लगीं। इस दुश्मनी की इंतहा तो उस वक़्त हुई जब यगाना ने अपनी ज़िंदगी के आख़िरी सालों में कुछ ऐसी रुबाईयाँ कह दी थीं जिनकी वजह से सख़्त मज़हबी ख़यालात रखने वालों को तकलीफ़ हुई। इस मौक़े का फ़ायदा उठाकर यगाना के विरोधियों ने उनके ख़िलाफ़ ऐसा वातावरण तैयार किया कि मज़हबी जोश-ओ-जुनून रखने वाले यगाना को लखनऊ की गलियों में खींच लाये। चेहरे पर सियाही पोत कर उनका जुलूस निकाला और तरह, तरह की आमानवीय हरकतें कीं। लखनऊ के उस अदबी समाज में यगाना के लिए सबसे बड़ी समस्या उस सोच के ख़िलाफ़ लड़ना था जिसके अधीन कोई व्यक्ति या गिरोह ज़बान-ओ-अदब और शिक्षा को अपनी जागीर समझने लगता है।
यगाना की शायरी की यह दास्तान है जो वहाँ की घिसी-पिटी और पारंपरिक शायरी को रद्द कर के सोच विचार और ज़बान के नये स्वादों की स्थापित करने के लिए प्रवृत किया था। लखनऊ में यगाना के समकालिक एक ख़ास अदांज़ और एक ख़ास परंपरा की शायरी की नक़ल उड़ाने में लगे हुए थे। उनके यहाँ न कोई नया ख़याल था और न ही ज़बान का कोई नया स्वाद। वे दाग़ ओ मुसहफ़ी की बनायी हुई लकीरों पर चल रहे थे। लखनऊ में यगाना की आमद में वहाँ के अदबी समाज में एक हलचल सी पैदा कर दी। यह हलचल सिर्फ़ शायरी की सतह पर ही नहीं थी बल्कि यगाना ने उस वक़्त में प्रचलित बहुत सी अदबी परिकल्पनाओं व सोच पर भी चोट की और साथ ही लखनऊ के भाषाविद होने के पारंपरिक कल्पना को भी रद्द किया। ग़ालिब की शायरी पर यगाना की कठोर टिप्पणियाँ भी उस वक़्त के अदबी माहौल में हद से बढ़ी हुई ग़ालिब परस्ती का नतीजा थे।
यगाना की शायरी पढ़ते हुए अंदाज़ा होता है कि वह ज़बान व विचारों की सतह पर शायरी को किन नये अनुभवों से गुज़ार रहे थे। यगाना ने बीसवीं सदी के समस्त सांस्कृतिक, सामाजिक और व्यक्ति के अपने आंतरिक समस्याओं को जिस अंदाज़ में छुआ और एक बड़े संदर्भ में जिस रूप में ग़ज़ल का हिस्सा बनाया उस तरह उनके दौर के किसी और शायर के यहाँ नज़र नहीं आता। उनके इसी अनुभव ने आगे चलकर आधुनिक उर्दू ग़ज़ल की भूमिका तैयार की।
यगाना की किताबें: ‘नश्तर-ए-यास’, ‘आयात-ए-वज्दानी’, ‘ताराना’(काव्य संग्रह), ‘गंजीना-ए-दीगर’, ‘चराग़-ए-सुख़न’, ‘ग़ालिब शिकन’।
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