Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

लेखक : साग़र सिद्दीक़ी

प्रकाशक : मकतबा शेर-ओ-अदब, लाहाैर

मूल : लाहौर, पाकिस्तान

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : शाइरी

उप श्रेणियां : काव्य संग्रह

पृष्ठ : 105

सहयोगी : इक़बाल लाइब्रेरी, भोपाल

lauh-e-junoon
For any query/comment related to this ebook, please contact us at haidar.ali@rekhta.org

लेखक: परिचय

साग़र सिद्दीक़ी 1928 में अंबाला में पैदा हुए। उनका ख़ानदानी नाम मुहम्मद अख़्तर था। साग़र के घर में बदतरीन ग़ुरबत थी। इस ग़ुरबत में स्कूल या मदरसे की तालीम का इम्कान न था। मुहल्ले के एक बुज़ुर्ग हबीब हसन के यहां साग़र आने जाने लगे। उन्होंने साग़र को इब्तिदा की तालीम दी। साग़र का दिल अंबाला की उसरत-ओ-तंगदस्ती से उचाट हो गया तो वो तेरह-चौदह बरस की उम्र में अमृतसर आ गए।

 
यहां साग़र ने लकड़ी की कंघियां बनाने वाली एक दुकान पर मुलाज़मत कर ली और कंघियां बनाने का फ़न भी सीख लिया। इस दौरान शेर-गोई का सिलसिला शुरू हो चुका था। शुरु में क़लमी नाम नासिर हिजाज़ी था लेकिन जल्द ही बदलकर साग़र सिद्दीक़ी कर लिया। साग़र अपने अशआर बेतकल्लुफ़ दोस्तों को सुनाने लगे। 1944 में अमृतसर में एक ऑल इंडिया मुशायरा मुनअक़िद हुआ, जिसमें शिरकत के लिए लाहौर के बाज़ शाइर भी मदऊ थे। उनमें एक साहब को मआलूम हुआ कि एक लड़का (साग़र सिद्दीक़ी) भी शेर कहता है। उन्होंने मुंतज़मीन से कह कर उसे मुशायरे में पढ़ने का मौक़ा दिलवा दिया। साग़र की आवाज़ में बला का सोज़ था, तरन्नुम की रवानी थी, जिससे उन्होंने उस मुशायरे में सबका दिल जीत लिया। इस मुशायरे ने उन्हें रातों रात शोहरत की बुलन्दी तक पहुँचा दिया। उसके बाद साग़र को लाहौर और अमृतसर के मुशायरों में बुलाया जाने लगा। शाएरी साग़र के लिए वजह-ए-शोहरत के साथ साथ वसीला-ए-रोज़गार भी बन गयी और यूँ नौजवान शायर ने कंघियों का काम छोड़ दिया। 
तक़सीम-ए-हिन्द के बाद साग़र अमृतसर से लाहौर चले गए। साग़र ने इस्लाह के लिये लतीफ़ अनवर गुरदासपुरी की तरफ़ रुजूअ किया और उनसे बहुत फ़ैज़ पाया। 1947 से लेकर 1952 तक का ज़माना साग़र के लिए सुनहरा दौर साबित हुआ। उसी अरसे में कई रोज़नामों, माहवार अदबी जरीदों और हफ़्तावार रिसालों में साग़र का कलाम बड़े नुमायां अंदाज़ में शाया होता रहा। फ़िल्मी दुनिया ने साग़र की मक़बूलियत देखी तो कई फ़िल्म प्रोड्यूसरों ने उनसे गीत लिखने की फ़रमाइश की और उन्हें माक़ूल मुआवज़ा देने की यक़ीन-दहानी कराई। 1952 के बाद साग़र की ज़िंदगी ख़राब सोहबत की बदौलत हर तरह के नशे का शिकार हो गयी। वो भंग, शराब, अफ़यून और चरस वग़ैरह इस्तेमाल करने लगे। उसी आलम-ए-मदहोशी में भी मश्क़-ए-सुख़न जारी रहती और साग़र  ग़ज़ल, नज़्म, क़तआ और फ़िल्मी गीत हर सिन्फ़-ए-सुख़न में शाहकार तख़लीक़ करते जाते। उस दौर-ए-मदहोशी के आग़ाज़ में लोग उन्हें मुशायरों में ले जाते जहां उनके कलाम को बड़ी पाज़ीराई मिलती।

उनकी तसानीफ़ में "ज़हर-ए-आरज़ू", "ग़म-ए-बहार", "शब-ए-आगाही", "तेशा-ए-दिल", "लौह-ए-जुनूँ", "सब्ज़-गुंबद", "मक़तल-ए-गुल", "कुल्लियात-ए-साग़र" शामिल हैं। जनवरी 1974 को वो फ़ालिज में मुब्तिला हो गए। उसकी वजह से उनका दायां हाथ हमेशा के लिए बेकार हो गया। फिर कुछ दिन बाद मुंह से ख़ून आने लगा, जिस्म सूख कर हड्डियों का ढांचा रह गया। साग़र सिद्दीक़ी का आख़िरी वक़्त दाता दरबार के सामने पायलट होटल के फ़ुटपाथ पर गुज़रा और उनकी वफ़ात 19 जुलाई 1974 की सुबह को उसी फ़ुटपाथ पर हुई। उन्हें म्यानी साहब के क़ब्रिस्तान में दफ़नाया गया।

.....और पढ़िए
For any query/comment related to this ebook, please contact us at haidar.ali@rekhta.org

लेखक की अन्य पुस्तकें

लेखक की अन्य पुस्तकें यहाँ पढ़ें।

पूरा देखिए

लोकप्रिय और ट्रेंडिंग

सबसे लोकप्रिय और ट्रेंडिंग उर्दू पुस्तकों का पता लगाएँ।

पूरा देखिए

Rekhta Gujarati Utsav I Vadodara - 5th Jan 25 I Mumbai - 11th Jan 25 I Bhavnagar - 19th Jan 25

Register for free
बोलिए