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पुस्तक: परिचय

مرزا فرحت اللہ بیگ بیسیویں صدی کےان ممتاز انشا پردازوں میں سےایک ہیں۔جو ادبی دنیا میں بحیثیت طنز و مزاح نگار معروف ہیں۔ "مضامین فرحت" مرزا کے مضامین کا مجموعہ ہے۔ اس مضامین میں مختلف موضاعات کو چھیڑا گیا ہے۔ جن میں تاریخی، تہذیبی اور ادبی مضامین شامل ہیں۔ یہ مضامین قاری کو ہنساتے بھی ہیں اور بہت کچھ سوچنے پرمجبور بھی کرتےہیں۔ دھلی سے دیرینہ تعلق کی بناء پر ان کی زبان میں ٹکسالی زبان کاچٹخارا آگیا ہے۔ تمام نقاد اس بات پرمتفق ہیں کہ مزاح نگاری میں فرحت کی کامیابی کی ضامن ان کی دلکش زبان ہے۔ فرحت صاحب نےان مضامین میں دلی کے محاوروں،دلی کےطرز بیان اور زبان کو اپنےخاص اسلوب میں اجاگر کیا ہے۔ مرزا صاحب کی ظرافت بہت ہی لطیف قسم کی ہوتی ہے۔ قہقہے کا موقع کم ہی ملتا ہے البتہ زیر لب تبسم کی کیفیت ضرور ملتی ہے۔ فرحت واقعہ، کردار اور موازنے وغیرہ سے تبسم کی تحریک دیتے ہیں۔ الفاظ و جملوں کو ایسی شگفتگی و دلکشی سے پیش کرتے ہیں کہ دل ودماغ ایک انبساطی کیفیت میں ڈوب جاتا ہے اور ہونٹوں پر تبسم خود ہی پھیلتا چلا جاتا ہے۔ اعلیٰ مزاح نگاری کا اصل کمال اور وصف یہی ہے۔ ان کے ہاں طنز کا عنصر بہت کم ہے۔ وہ خوش مزاقی اور ہلکی و لطیف ظرافت کے قائل تھے۔ ان کے مضامین میں سنجیدگی اور ظرافت کا فنکارانہ امتزاج پایا جاتا ہے البتہ ان کے مضمون نئی اور پرانی تہذیب کی ٹکر میں طنز کا پیرایہ صاف نظر آتا ہے لیکن اس میں زہر ناکی نہیں۔ ان کی ظرافت بے تصنع اور بناوٹ سے پاک ہوتی ہے۔ یہ مضامین کئی جلدوں میں ہیں۔ زیر نظر جلد اول ہے، جس کو شمیم انہونوی نے مرتب کیا ہے۔ جس میں ان کے چھ طویل مضامین شامل ہیں۔ مرتب نے کتاب کے شروع میں مضامین کی خصوصیات اور طنز و مزاح پر گفتگو بھی کی ہے۔

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लेखक: परिचय

हमारे हास्यकारों में मिर्ज़ा फ़र्हत उल्लाह बेग बहुत लोकप्रिय हैं। वो रेखाचित्रकार की हैसियत से बहुत मशहूर हैं और उन रेखाचित्रों को लोकप्रिय बनाने में मिर्ज़ा के स्वाभाविक हास्य को बहुत दख़ल है। उन्होंने विभिन्न विषयों पर क़लम उठाया। आलोचना, कहानी, जीवनी, जीवन-चरित, समाज और नैतिकता की तरफ़ उन्होंने तवज्जो की लेकिन उनकी असल प्रसिद्धि हास्य लेखन के इर्द-गिर्द रही।

वो दिल्ली के रहने वाले थे। उनके पूर्वज शाह आलम द्वितीय के शासनकाल में तुर्किस्तान से आए और दिल्ली को अपना वतन बनाया। यहाँ 1884ई. में मिर्ज़ा का जन्म हुआ। शिक्षा भी यहीं हुई। कॉलेज की शिक्षा के दौरान मौलवी नज़ीर अहमद से मुलाक़ात हुई। उनसे न सिर्फ अरबी भाषा व साहित्य की शिक्षा प्राप्त की बल्कि उनके व्यक्तित्व का गहरा प्रभाव भी स्वीकार किया। शिक्षा प्राप्त करने के बाद हैदराबाद गए। वहाँ विभिन्न पदों पर नियुक्त हुए। सन्1947 में उनका निधन हुआ।

उनकी कृति “दिल्ली का आख़िरी यादगार मुशायरा” चित्रकारी का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। मौलवी नज़ीर अहमद को उन्होंने बहुत क़रीब से देखा था और वर्षों देखा था। “मौलवी नज़ीर अहमद की कहानी-कुछ उनकी कुछ मेरी ज़बानी” में उनकी हूबहू तस्वीर उतारी है। इस रेखाचित्र ने उन्हें शाश्वत प्रसिद्धि दी। यह रेखाचित्र मौलवी वहीद उद्दीन सलीम को ऐसा पसंद आया कि उन्होंने अपना रेखाचित्र लिखने की फ़रमाइश की। उनके निधन के बाद मिर्ज़ा ने उस फ़रमाइश को पूरा कर दिया और उस रेखाचित्र को “एक वसीयत की तामील में” नाम दिया। उन्होंने बड़ी संख्या में लेख लिखे जो “मज़ामीन-ए-फ़र्हत” के नाम से सात खण्डों में प्रकाशित हो चुके हैं। शायरी भी की लेकिन यह उनका असल मैदान नहीं।

दिल्ली की टकसाली ज़बान पर उन्हें बड़ी महारत हासिल है और शोख़ी उनके लेखन की विशेषता है। उनके लेख पढ़ कर हम हंसते नहीं, क़हक़हा नहीं लगाते बस एक मानसिक आनंद प्राप्त करते हैं। जब वो किसी विषय या किसी शख़्सियत पर क़लम उठाते हैं तो छोटी छोटी बातों को नज़रअंदाज नहीं करते, इस विवरण से पाठक को बहुत आनंद प्राप्त होता है।

मिर्ज़ा फ़र्हत उल्लाह बेग असल में एक हास्यकार हैं। उनके लेखन में व्यंग्य कम है और जहाँ है वहाँ शिद्दत नहीं बस हल्की हल्की चोटें हैं जिनसे कहीं भी नासूर नहीं पैदा होता। उनकी लोकप्रियता का एक कारण यह भी है कि दार्शनिक गहराई और संजीदगी से यथासंभव अपना दामन बचाते हैं। उनकी कोशिश यही होती है कि पाठक ज़्यादा से ज़्यादा आनंदित हो।

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