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लेखक : क़ैसर सिद्दीक़ी

प्रकाशक : एजुकेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली

मूल : पटना, भारत

प्रकाशन वर्ष : 2012

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : शाइरी

पृष्ठ : 154

ISBN संख्यांक / ISSN संख्यांक : 978-81-8223-961-6

सहयोगी : क़ैसर सिद्दीक़ी

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लेखक: परिचय

क़ैसर सिद्दीक़ी का जन्म 19 मार्च 1937 को समस्तीपुर , बिहार में हुआ और 04 सितम्बर 2018 को 81वर्ष की संघर्ष पुर्ण ज़िंदगी जी कर इस दुनिया से रुख़सत हुऐ । शिक्षा अधूरी छोड़ कर शायरी का दामन थामा तो अंतिम सांस तक साथ निभाया , जीवन में कभी कोई नौकरी नहीं और न कोई कारोबार किया । जिस कारण उन्हें अपने जीवन के अंतिम पड़ाव तक संघर्ष करते रहना पड़ा ।

क़ैसर सिद्दीक़ी ने जो कुछ भी हासिल किया , वो शायरी ही से किया और अंतिम समय तक लिखते रहे , उन्होंने शायरी से बहुत कुछ हासिल नहीं किया परन्तु उन्हें अपनी शायरी से कभी कोई शिकायत नहीं रही और शिकायत भी क्यूं रहे , भले ही शायरी से उन्होंने अधिक धन अर्जित नहीं किया परन्तु पूरी दुनिया जहाँ उर्दू और हिन्दी पढ़ी, बोली और समझी जाती है , अपनी शायरी के ज़रिए अपना नाम पहुंचा दिया । उन्होंने विश्व स्तर पर अपने शहर , प्रदेश और देश का नाम रौशन किया जो बड़ी उपलब्धी मानी जाएगी ।

क़ैसर सिद्दीक़ी जवानी के दिनों में कोलकता रहे और बड़े बड़े मुशायरे पढ़े , फिल्मों में गीत लिखने के लिए मुम्बई भी गाये लेकिन कामयाबी नहीं मिली और वापस बिहार आ गये । बिहार के मुजफ्फरपुर में बड़े बड़े कव्वाल रहे है और एक ज़माने में ये शहर कव्वालों का गढ़ रहा है । क़ैसर सिद्दीक़ी का दिल मुजफ्फरपुर में लग गया और वो कव्वालों के लिए क़व्वालियाँ लिखते रहे । भारत का शायद ही कोई कव्वाल ऐसा होगा जो उनकी लिखी क़व्वाली न गाई हो , उन्होंने हज़ारों कव्वालियां लिखीं । जब कैसेट और सी डी का ज़माना आया तो वो दिल्ली आने लगे और यहाँ दिल्ली में कई मियूजिक कम्पनी के लिए लिखते रहे । अपने माँ बाप का तु दिल न दुखा और मुसलमनों संभल जाओ क़यामत आने वाली है जैसी मशहूर क़व्वाली इन की ही लिखी हुईं है , जो भारत के बाहर भी मशहूर हुईं हैं ।

उनकी शायरी का पहला संग्रह सहीफा के नाम से 1983 में छपा , उस के बाद आगमी 30 वषों ताक़ उनकी कोई किताब नहीं छपी , ये वो ज़माना है , जब उन्होंने दिन रात शायरी की , जिस में ज़्यादा क़व्वाली थी । क़व्वाली की दुनिया में ख़ूब नाम कमाया और उस शायरी से दूर होते गाये जिसे संजीदा शायरी कहा जाता है । जब उन्हें एहसास हुआ कि वक़्त बहुत निकल गया है और अब किताबें न छपीं तो फिर नहीं छप पाएंगी तो उन्होंने किताबें छापने का इरादा किया.

उनकी ग़ज़लों की पहली किताब सहीफा के नाम से 1983 में छपी थी , उसके बाद उन्होंने किताबों की ओर ध्यान नहीं दिया और अब अंतिम समय में धरा धड़ कई किताबें छापीं जिन में डूबते सूरज का मंज़र काफ़ी पसंद की गयी । उनकी शायरी पर बहुत लोगों ने लिखा , उनकी शायरी को बड़े बड़े शायरों ने सराहा और उनकी तारीफ की है ।

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