रफ़्तार-ओ-तौर-ओ-तर्ज़-ओ-रविश का ये ढब है क्या
रफ़्तार-ओ-तौर-ओ-तर्ज़-ओ-रविश का ये ढब है क्या
पहले सुलूक ऐसे ही तेरे थे अब है क्या
हम दिल-ज़दा न रखते थे तुम से ये चश्म-दाश्त
करते हो क़हर लुत्फ़ की जागा ग़ज़ब है क्या
इज़्ज़त भी बा'द ज़िल्लत बिसयार छेड़ है
मज्लिस में जब ख़फ़ीफ़ किया फिर अदब है क्या
आए हम आप में तो न पहचाने फिर गए
उस राह-ए-साब इश्क़ में यारो तअब है क्या
हैराँ हैं उस दहन के अज़ीज़ान-ए-ख़ुर्दा-बीं
ये भी मक़ाम हाए तअम्मुल तलब है क्या
आँखें जो होवें तेरी तो तू ऐन कर रखे
आलम तमाम गर वो नहीं तो ये सब है क्या
उस आफ़्ताब बिन नहीं कुछ सूझता हमें
गर ये ही अपने दिन हैं तो तारीक शब है क्या
तुम ने हमेशा जौर-ओ-सितम बे-सबब किए
अपना ही ज़र्फ़ था जो न पूछा सबब है क्या
क्यूँकर तुम्हारी बात करे कोई ए'तिबार
ज़ाहिर में क्या कहो हो सुख़न ज़ेर-ए-लब है क्या
उस मह बग़ैर 'मीर' का मरना अजब हुआ
हर-चंद मर्ग-ए-आशिक़ मिस्कीं अजब है क्या
- पुस्तक : मीरियात - दीवान नंo- 2, ग़ज़ल नंo- 0671
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