सफ़र जिस में न हो तो हम-सफ़र अच्छा नहीं लगता
सफ़र जिस में न हो तो हम-सफ़र अच्छा नहीं लगता
गवारा कर लिया जाए मगर अच्छा नहीं लगता
जो सच पूछो तो घर की सारी रौनक़ उस के दम से है
वो जान-ए-जाँ न हो घर में तो घर अच्छा नहीं लगता
हतक-आमेज़ नज़रों से कोई देखे जहाँ हम को
क़दम रखना भी उस दहलीज़ पर अच्छा नहीं लगता
ख़ुदावंदा तिरा बंदा जो माँगे उस को मिल जाए
दुआ-ए-दिल हो महरूम-ए-असर अच्छा नहीं लगता
किसी की जुस्तुजू है जो लिए फिरती है बरसों से
हमें फिरना अगरचे दर-ब-दर अच्छा नहीं लगता
तख़य्युल को पर-ए-पर्वाज़ देना भी ज़रूरी है
बग़ैर उस के ख़लाओं का सफ़र अच्छा नहीं लगता
हर इक पल नित-नए जल्वों की शैदाई हों जो आँखें
कोई इक चेहरा उन को रात-भर अच्छा नहीं लगता
किसी सरकश के आगे सर अगर जबरन भी झुक जाए
वबाल-ए-दोश हो जाता है सर अच्छा नहीं लगता
मिरी रूदाद-ए-ग़म पर तुर्श लहजे में कहा उस ने
ये रोना रोज़-ओ-शब शाम-ओ-सहर अच्छा नहीं लगता
रुलाता भी है वो ज़ालिम मुझे फिर ये भी कहता है
तिरा दामन है क्यूँ अश्कों से तर अच्छा नहीं लगता
उछाला करते हैं अक्सर 'वक़ार' औरों के ऐबों को
वो जिन को पर्दा-पोशी का हुनर अच्छा नहीं लगता
- पुस्तक : Waqar-e-Hunar (पृष्ठ 102)
- रचनाकार : Mohammad Zahiir
- प्रकाशन : Waqar Manvi, Sui walan, Darya Ganj, Delhi (1998)
- संस्करण : 1998
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